भारत का इतिहास प्राचीन काल से 300 ce .तक UNIT 7 SEMESTER 1 THEORY NOTES प्रारंभिक तमिलकम संगम साहित्य, राजनीति, अर्थव्यवस्था और समाज का सर्वेक्षण DU. SOL.DU NEP COURSES

भारत का इतिहास प्राचीन काल से 300 ce .तक UNIT 7 SEMESTER 1 THEORY NOTES प्रारंभिक तमिलकम संगम साहित्य, राजनीति, अर्थव्यवस्था और समाज का सर्वेक्षण DU. SOL.DU NEP COURSES

 

प्रारंभिक तमिलकम संगम साहित्य

संगम युग तमिल संस्कृति और इतिहास का एक अनमोल एवं गौरवमयी अध्याय है, जिसे भारतीय विद्या-विशारद तमिलों के चिर-प्रतिष्ठित युग के रूप में मानते हैं। इस युग की तुलना ग्रीस और रोम के गौरव ग्रंथों और यूरोपीय पुनर्जागरण काल से की जाती है। कई विद्वान इसे तमिलों का 'स्वर्ण युग' मानते हैं। संगम युग तमिलकम (प्राचीन तमिल क्षेत्र) के इतिहास में एक अनूठा स्थान रखता है, जिसमें आज के तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश के क्षेत्र शामिल थे। इस युग के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पहलुओं को समझने के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्रोत संगम साहित्य है, जो दक्षिण भारत के विभिन्न स्थानों से प्राप्त हुआ है और जो संगम युग की गहरी जानकारी प्रदान करता है।

1. संगम' का आशय

  • 'संगम' शब्द का अर्थ 'सम्मिलन' है, लेकिन दक्षिण भारतीय इतिहास में यह एक उच्च स्तरीय विद्वत परिषद को दर्शाता है, जो पांड्य राजाओं के संरक्षण में साहित्य और कला को बढ़ावा देती थी। संगम कवि एक स्वैच्छिक संगठन के सदस्य होते थे, जो उच्च मानक की साहित्यिक रचनाएँ लिखते थे। संगम साहित्य, जिसमें 'एत्थिरुप्पत्तू', 'पत्तिनप्पालै', 'कुडावै', और 'सिलप्पतिकारम' जैसी कृतियाँ शामिल हैं, दक्षिण भारतीय साहित्य का स्वर्णिम युग माना जाता है और यह तीसरी सदी ईसा पूर्व से दूसरी सदी ईस्वी तक अस्तित्व में था।

2. कालक्रम

  • संगम युग की तिथि के संबंध में विद्वानों में मतभेद हैं, मुख्य रूप से संगम कृतियों के काल को लेकर। के.एन. शास्त्री के अनुसार, संगम युग की अवधि 100 ई. से 250 ई. तक मानी जाती है। पारंपरिक दृष्टि से 'तोल्काप्पियम' को सबसे पुरानी तमिल कृति माना जाता है, और एम. अरोकिया स्वामी का मानना है कि इसके लेखक तोल्कापिप्यर ईसा की चौथी या तीसरी शताब्दी पूर्व में थे। पुरातात्त्विक और साहित्यिक स्रोतों के आधार पर, संगम युग की अवधि लगभग ईसा पूर्व तीसरी सदी से लेकर ईस्वी सन की तीसरी सदी तक, यानी लगभग 600 वर्षों की मानी जाती है।

3. तीन संगम

तीन संगमों की परंपरा दक्षिण भारतीय इतिहास और साहित्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानी जाती है, जिसे पांड्य राजाओं ने साहित्य, कला और संस्कृति के उत्थान के लिए संरक्षित किया था। इन संगमों का सिद्धांत बताता है कि ये समकालीन नहीं थे, बल्कि अनुक्रमिक थे और विभिन्न अंतरालों में आयोजित किए गए।

  • पहला संगम: पहला संगम प्राचीन मदुरै (पुराना मदुरै) में हुआ था और इसे प्रागैतिहासिक काल से जोड़ा जाता है। यह संगम जल आपदाओं और जल प्लावन के कारण नष्ट हो गया। पहले संगम में 8598 विद्वान शामिल हुए थे।
  • दूसरा संगम: दूसरा संगम कपाटपुरम में आयोजित हुआ था, जो दूसरे जल प्लावन से नष्ट हो गया। यह संगम तमिल साहित्य और संस्कृति के लिए महत्वपूर्ण था क्योंकि इस दौरान नई दिशा मिली।
  • तीसरा संगम: तीसरा संगम आधुनिक मदुरै में आयोजित हुआ था और इसे सबसे प्रामाणिक माना जाता है। यह संगम ईसा पूर्व की अंतिम सदी और ईस्वी सदी के प्रारंभ के आसपास हुआ था, जब रोम और भारत के बीच समुद्रपारीय व्यापार बढ़ा था। तीसरे संगम में कई महत्वपूर्ण साहित्यिक कृतियाँ लिखी गईं, जैसे 'अट्टिकल', 'सिलप्पतिकारम', जो तमिल संस्कृति और भाषा के उत्थान में योगदान देती हैं।

4. संगम साहित्य-निकाय

संगम साहित्य प्राचीन तमिलकन के इतिहास, संस्कृति और समाज को समझने का महत्वपूर्ण स्रोत है। यह तमिल भाषा में विकसित हुआ और इसका उद्देश्य साहित्यिक अभिव्यक्ति को संरक्षित करना था। संगम साहित्य का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व अत्यधिक है, क्योंकि यह प्राचीन दक्षिण भारत के सामाजिक, राजनीतिक और भौतिक जीवन को प्रस्तुत करता है।

  • संगम काव्य: संगम काव्य के प्रमुख स्रोत छंदबद्ध रचनाएँ हैं, जो गद्य से पहले रची गईं। संगम साहित्य का प्रमुख हिस्सा एत्तुतोगाई (अष्टसंग्रह), पत्तुपातु (दस गीत) और पतिनेंकिल्कनक्कु (अष्टादश लघु कृतियाँ) है, जो लगभग 150 ई. से 250 ई. के बीच रचित माने जाते हैं। इसके अलावा पंचमहाकाव्य, जैसे 'सिलप्पदिकरम', 'मणिमेखलई' और 'जीवकचिंतामणि' भी संगम साहित्य का हिस्सा हैं।
  • संगम साहित्य के प्रमुख प्रकार: लघु संबोध-गीति (Odes) इन कविताओं में तमिलकन के सामाजिक और राजनीतिक जीवन के पहलुओं को वचनिकाओं में संग्रहित किया गया है। अहनानुरु, पुरानानुरु, कुरुतोगाई, नारिनाई, कालितोगाई, परिपादाल, ऐंगुरुनुरु और पतिरुपत्तु एत्तुतोगाई के रूप में संग्रहित हैं।
  •  लंबी कविताएँ (Epic Poems): इन कविताओं में मुख्य रूप से वीरगाथाएँ और ऐतिहासिक प्रसंग होते हैं। पत्तु-पत्तु समुच्चय के अंतर्गत 10 प्रमुख गीति-काव्य जैसे तिरुमुरुगार्रुप्पादाई, सिरुपानार्रुप्पादाई, पोरुनार्रुपादाई, नेदुनालवादाई आदि संगम युग के सामाजिक और राजनीतिक पहलुओं को दर्शाते हैं।
  • संगम साहित्य की सामाजिक और सांस्कृतिक महत्त्वता: संगम साहित्य न केवल तमिलकन के साहित्यिक उत्थान को दर्शाता है, बल्कि यह उस समय के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हालात का भी विस्तृत चित्रण करता है। यह साहित्य युद्ध, प्रेम, सामाजिक नैतिकता, और कर्तव्यों को छानबीन करता है, और प्राचीन तमिल समाज की सशक्तता, उसके नियमों और जीवन की उच्चतम मान्यताओं का प्रतीक है।
  • तीरथकुरल: संगम साहित्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा 'तिरुक्कुरल' है, जो जीवन के विभिन्न पहलुओं पर आधारित 1330 शेरों का संग्रह है। यह उपदेशात्मक साहित्य जीवन के सिद्धांतों और आचार विचारों पर आधारित है, जो आज भी सामाजिक नैतिकता का मार्गदर्शन करता है।
  • काव्य की विशेषताएँ: संगम साहित्य में विषय की शुद्धता और साहित्यिक गुणवत्ता पर जोर दिया गया था। कविता की लंबाई और छंदों की संरचना के आधार पर इसे अलग-अलग वर्गों में बांटा गया। संगम काव्य में कविताएँ 3 पंक्तियों से लेकर 800 पंक्तियों तक की हो सकती हैं, और इनमें कुछ रचनाएँ एकल कवियों द्वारा लिखी गई हैं, जबकि नालादियार जैसी रचनाएँ अनेक कवियों का समूह रूप में मानी जाती हैं।
  • संगम साहित्य का प्रभाव: संगम साहित्य ने तमिल भाषा को समृद्ध साहित्यिक रूप दिया और इसके माध्यम से उस समय के समाज की धार्मिक और सांस्कृतिक धारा को संरक्षित किया गया। यह न केवल तमिलकन के सामाजिक जीवन को दर्शाता है, बल्कि पूरे भारतीय साहित्यिक इतिहास का अभिन्न हिस्सा बन चुका है, जिससे तमिल भाषा और संस्कृति को वैश्विक पहचान मिली है।


राजव्यवस्था

संगम काव्य दक्षिण भारत में राज्य प्रणाली के विकास की पहली रूपरेखा प्रस्तुत करता है। इन रचनाओं से पता चलता है कि संगम युग में कबीलों की संख्या में कमी आई थी, लेकिन राजा के नेतृत्व में सुगठित राज्य संरचनाओं का अस्तित्व बना रहा। हालांकि, यह राज्य पूरी तरह से स्थिर नहीं था, और लोकतांत्रिक अवधारणा अभी पूरी तरह से विकसित नहीं हुई थी, फिर भी प्रशासनिक ढांचा राजतंत्र के बावजूद प्रजातांत्रिक मूल्यों पर आधारित था।

  • राजत्व : तीन प्रमुख राजवंशों – चोल, पांड्य, और चेर – ने दक्षिण भारत के विभिन्न हिस्सों पर शासन किया। चोलों का नियंत्रण कावेरी घाटी पर था, पांड्य तटवर्ती क्षेत्रों और पशुचारी पर शासन करते थे, और चेरों का आधिपत्य पश्चिमी पहाड़ी क्षेत्रों में था। संगम काव्य में इन राजाओं का नाम उल्लेखित है, जिनमें चोलों की वंशावली का विश्लेषण किया गया है, जैसे करिकाल चोल और उनके पुत्र। पांड्य और चेर राजवंशों के कई महत्वपूर्ण शासकों का भी जिक्र मिलता है।
  • शासन का रूप: राजा को समाज का प्रधान माना जाता था। संगम साहित्य में उसे सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक आयोजनों का प्रमुख कर्ता माना जाता था। राजा के पद के प्रमुख चिह्न मृदंग, राजदण्ड, और श्वेत छत्र थे। राज्याभिषेक के समय राजा महत्वपूर्ण उपाधियाँ ग्रहण करता था और देवताओं के समकक्ष उसकी पवित्रता मानी जाती थी।
  • सरदारगण: संगम युग में बड़े सरदारों का भी महत्वपूर्ण स्थान था। उन्हें वेलिर और अ-वेलिर वर्गों में बाँटा गया था। इन सरदारों का कार्य केवल प्रशासनिक नहीं, बल्कि साहित्यिक संरक्षक के रूप में भी था। संगम काव्य में इन प्रमुख सरदारों का उल्लेख मिलता है, जैसे मोहुर का पालयन मारन और नन्नान वेनमान। समय के साथ इन सरदारों की स्थिति कमजोर होकर राजकीय पदाधिकारियों में बदल गई।
  • प्रशासनिक तंत्र: संगम साहित्य में प्रशासनिक तंत्र की दो प्रमुख परिषदों का उल्लेख मिलता है: ऐंपेरुकुलु (मंत्रियों की परिषद) और ऐंपेरायम (महासभा), जो राज्य के प्रशासनिक कार्यों में परामर्श देती थीं। हालांकि इन परिषदों के परामर्श को राजा द्वारा अधिकांशतः स्वीकार किया जाता था, उनका कार्य मुख्य रूप से न्यायिक था।
  • प्रतिरक्षा: संगम युग में बड़े शासक और राजवंश स्थायी सेना रखते थे, और युद्ध प्रायः न केवल राज्यक्षेत्र बढ़ाने के लिए होते थे, बल्कि कभी-कभी वे वैवाहिक संबंधों के लिए भी लड़े जाते थे। राजा के पास चार प्रकार की सेना - रथ, गज, अश्व, और पैदल - होती थी। चेरों के पास नौसेना भी थी, जो सामुद्रिक पत्तन की रक्षा करती थी। संगम साहित्य में युद्ध की छावनियों का भी उल्लेख मिलता है, जहां सैनिक और अधिकारी राजा के साथ युद्धों में भाग लेते थे।
  • संगम राज्यव्यवस्था और उत्तर भारतीय प्रभाव: संगम युग की राज्यव्यवस्था उत्तर भारतीय राजनीतिक विचारों और संस्थाओं से प्रभावित थी। शासक अक्सर अपने संबंधों को शिव, विष्णु, और प्राचीन मनीषियों से जोड़ने की कोशिश करते थे, और कई राजाओं ने महाभारत जैसे युद्धों में भाग लेने का दावा किया था। संगम शासक कला, साहित्य, और धार्मिक कृत्यों के संरक्षक थे और यज्ञों का आयोजन करते थे।


अर्थव्यवस्था

संगम युग की अर्थव्यवस्था का आधार भूमि के पाँच प्रकार के वर्गीकरण, जिसे तिनई कहा जाता है, पर आधारित था। ये वर्गीकरण कुरिची (पहाड़ी क्षेत्र), मुलई (देहाती क्षेत्र), मरुतम (कृषि क्षेत्र), पलाई (रेगिस्तानी क्षेत्र) और नेताल (तटीय क्षेत्र) थे। प्रत्येक क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के लोग रहते थे और इन विभिन्न परिवेशों ने उनके व्यवसायों, जैसे कि कृषि, पशुचारिता, आखेट, माहीगिरी, और नौचालन, को प्रभावित किया।

1.कृषि

  • संगम युग की अर्थव्यवस्था का प्रमुख स्तंभ कृषि था। मदुरैक्कांजी में कृषि और व्यापार को आर्थिक विकास की मुख्य शक्तियाँ माना गया है। कृषि विशेषकर मरुतम क्षेत्र में मुख्य व्यवसाय था, जबकि पलाई क्षेत्र में पशुपालन प्रचलित था। संगम काव्यों में दूध, मक्खन, दही, घी, और छाछ जैसे पशु उत्पादों का उल्लेख मिलता है, और पशुधन को राज्य की संपत्ति के रूप में महत्व दिया जाता था। इसके अतिरिक्त धान और ईख जैसी प्रमुख फसलों के उत्पादन का जिक्र भी मिलता है।
  • संगम युग के राजाओं ने कृषि के विकास के लिए कई उपाय किए। करिकाल चोल ने सिंचाई के लिए तालाब खुदवाया, और कावेरी तटबंध का निर्माण भी कृषि के लिए अत्यधिक लाभकारी सिद्ध हुआ। इस प्रकार भूमि की उर्वरता और जल प्रबंधन ने कृषि में समृद्धि को बढ़ावा दिया।

2. उद्योग

  • संगम युग में विभिन्न प्रकार के उद्योग और कारीगरों का उल्लेख मिलता है, जिनमें लौहकार, ताम्रकार, स्वर्णकार, कुंभकार, मूर्तिकार, चित्रकार और बुनकर शामिल थे। मणिमेखलई और सिलप्पादिकरम जैसी रचनाओं में विभिन्न कारीगरों की विशेषताओं का उल्लेख मिलता है, और यह भी दर्शाया गया है कि पेशे आमतौर पर आनुवंशिक होते थे। कारीगर विभिन्न गलियों में रहते थे और अपने-अपने पेशे में माहिर होते थे।
  • निर्माण कला में नौकाओं, पुलों, खंदकों, और नालियों जैसी संरचनाओं का निर्माण हुआ। चित्रकला और बुनाई उद्योग भी लोकप्रिय थे, और भारतीय रेशम विशेष रूप से रोम और ग्रीस में अत्यधिक मांग में था।

3. व्यापार

  • संगम युग में भारत के तमिल क्षेत्र का व्यापार ग्रीस, रोम, मिस्र, चीन, दक्षिण-पूर्वी एशिया और श्रीलंका के साथ था। सिलप्पादिकरम और मनिमेखलई जैसी रचनाओं में विदेशी व्यापारियों का उल्लेख मिलता है। रोम से मुख्य रूप से सिक्के, मूंगा, मद्य, शीशा, और टिन आयात किए जाते थे, जबकि भारत से मुख्य निर्यात में हाथीदाँत, मोती, मसाले, नारियल, केला, चंदन, और सूती वस्त्र शामिल थे।
  • संगम ग्रंथों में मुसिरी, पुहार और कोड़काई जैसे प्रमुख पत्तनों का उल्लेख मिलता है, जो समुद्री व्यापार के प्रमुख केंद्र थे। पेरिप्लस ऑफ़ एरिथ्रियन में दक्षिण भारत के व्यापारिक गतिविधियों का विस्तार से वर्णन किया गया है। इन पत्तनों से व्यापारिक सामानों के आदान-प्रदान के प्रमाण प्राप्त होते हैं।
  • व्यापार को प्रायः वस्तु विनिमय के आधार पर चलाया जाता था, और सिक्कों का उपयोग व्यापारिक उद्देश्यों के लिए किया जाता था। स्थानीय व्यापार नेटवर्क भी आंतरिक व्यापार के विकास में सहायक था, और इन नगरों से जुड़े गाँवों में भी व्यापारिक गतिविधियाँ होती थीं।


समाज

  • सामाजिक संरचना : संगम युग में समाज की संरचना का आधार विभिन्न जातीय और सांस्कृतिक घटकों का मिश्रण था, जिसमें नेग्रोआयड और आस्ट्रेलायड समूहों का योगदान था। इनकी मिश्रित प्रजाति आद्य भूमध्यसागरीय क्षेत्रों से आई थी। प्रारंभिक समाज में किसी ठोस वर्गीकरण का अभाव था, और लोग एकजुट थे, वे बिना किसी बाधा के अपने शासकों से मिल सकते थे। उस समय समाज का वर्गीकरण पेशेवर आधार पर था, जैसे सैनिक, आखेटक, गड़रिया, हलवाहा, मछुआरा, आदि। बाद के समय में, विशेष रूप से ईसा की पहली सदी में, ब्राह्मणों द्वारा वर्ण-व्यवस्था को लाया गया, हालांकि इसमें क्षत्रिय का कोई स्थान नहीं था। केवल ब्राह्मणों को यज्ञोपवीत धारण करने का अधिकार था। संगम काव्यों में दासों का भी उल्लेख मिलता है, जिन्हें 'आदिमाई' कहा जाता था।
  • महिलाएँ : संगम युग में महिलाएँ अपेक्षाकृत स्वतंत्र थीं। वे स्वतंत्र रूप से शहरों में जा सकती थीं, उत्सवों में भाग ले सकती थीं और सामाजिक गतिविधियों में शामिल हो सकती थीं। फिर भी, उनका स्थान पुरुषों की तुलना में निम्नतर था, और यह उस समय के सामान्य समाजिक दृष्टिकोण को दर्शाता था। विवाह को संस्कार माना जाता था और महिलाएँ संपत्ति के अधिकार से वंचित थीं। महिलाओं के लिए आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख मिलता है, जिसमें ब्रह्म विवाह सबसे सामान्य था। वेश्यावृत्ति इस युग में स्वीकृत थी, लेकिन गणिकाओं को पारंपरिक रूप से सम्मानित किया जाता था, और उनका कार्य मुख्य रूप से सांस्कृतिक आनंद देना था। वे सामाजिक दृष्टिकोण से अवमानना का शिकार नहीं थीं।
  • समाज के अन्य तत्त्व: संगम समाज में दो प्रकार के घरों का उल्लेख मिलता है: गीली मिट्टी से बने घर और पकाई गई मिट्टी से बने घर। धनी लोग शानदार घरों में रहते थे, जो कला और सजावट से भरे होते थे। गरीब लोग छाजन वाले घरों में रहते थे।
  • भोजन : सामिष (मांसाहारी) भोजन मुख्य रूप से प्रचलित था, हालांकि ब्राह्मण और संन्यासी निरामिष (शाकाहारी) आहार को प्राथमिकता देते थे। दही, दूध, मक्खन, घी और शहद लोकप्रिय खाद्य पदार्थ थे, और मांस और मद्य का खुलकर उपयोग होता था। विशेष अवसरों पर सामूहिक भोज आयोजित किए जाते थे, जहाँ अतिथियों को सम्मानपूर्वक भोजन दिया जाता था।
  • मनोरंजन और खेल: समाज में मन-बहलाव के लिए नृत्य, संगीत, खेल, और उत्सवों का आयोजन किया जाता था। संगम काव्य में विभिन्न प्रकार के नृत्यों और संगीत कार्यक्रमों का उल्लेख है। युद्ध, कुश्ती, मुर्गा लड़ाई, और पासा जैसे खेल भी प्रचलित थे। महिलाओं द्वारा धार्मिक उत्सवों और वारिप्पांथु (कपड़े की गेंद से खेल) में भाग लिया जाता था।
  • साहित्य और कला: संगम काव्य में विभिन्न प्रकार के वाद्ययंत्रों, जैसे मृदंग, बांसुरी, और याल का जिक्र मिलता है। नाटकों का स्वरूप मुख्य रूप से धार्मिक होता था, लेकिन कभी-कभी यह महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों और घटनाओं के स्मरणोत्सव के रूप में भी होते थे। चारण (पोरुनार) युद्ध के सैनिकों को प्रोत्साहित करने के लिए गीत गाते थे और पनार आम लोगों का मनोरंजन करते थे।
  • सामाजिक दृष्टिकोण: संगम समाज में विभिन्न सामाजिक वर्गों और गतिविधियों का उल्लेख मिलता है, जिसमें महिलाएँ, वेश्याएँ, कारीगर, और खेलों का महत्व दर्शाया गया है। यह समाज अपने समय की सांस्कृतिक और सामाजिक विशेषताओं को प्रकट करता है, जिसमें पारंपरिक जीवनशैली, काव्य, और कला का गहरा संबंध था।


धार्मिक विश्वास और अनुष्ठान

संगम युग में धार्मिक विश्वासों और अनुष्ठानों का व्यापक विवरण मिलता है। इस युग में ब्राह्मणवाद, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, शैववाद, और वैष्णववाद एक साथ अस्तित्व में थे। तमिल प्रदेश में बौद्ध धर्म और जैन धर्म ईसा की पहली शताब्दी में आए, जबकि ब्राह्मण-पंथ (शैव और वैष्णव) भी महत्वपूर्ण धर्म थे। संगम काव्य और अन्य साहित्यिक स्रोत इन धर्मों के आपसी प्रभाव को स्पष्ट करते हैं।

  • ब्राह्मणवाद और शैववाद: संगम काव्यों में ब्राह्मणवाद का प्रभाव दिखता है। सिलप्पादिकरम में त्रिगुण पवित्र अग्नि और द्विज प्रकृति जैसे ब्राह्मणवादी विचारों की चर्चा की गई है, और तोल्काप्पियम में भी छह कर्तव्यों का उल्लेख है जो ब्राह्मणों द्वारा किए जाते थे। ब्राह्मणवादी संस्कार और अनुष्ठान, जैसे यज्ञों का आयोजन, आम थे।संगम साहित्य में मुरुगन (शिव का पुत्र), तिरुमल (विष्णु), इंद्र, और वरुण जैसे देवताओं की पूजा का उल्लेख है। मुरुगन की पूजा का विशेष रूप से पत्तिनप्पालै में उल्लेख मिलता है, और अन्य देवताओं जैसे लक्ष्मी, कामन (प्रणय देव), चंद्रदेव, और समुद्र देव की पूजा भी होती थी।
  • भूत-प्रेत और जीववाद: संगम युग में भूत-प्रेत और दुष्टात्माओं पर विश्वास भी प्रचलित था। सिलप्पादिकरम में भूतों और राक्षसों का उल्लेख मिलता है, जो पेड़ों, युद्ध क्षेत्रों और श्मशानों में रहते थे। कुछ दुष्टात्माएँ रक्तपान करती थीं, और इनसे बचने के लिए यज्ञ और अनुष्ठान किए जाते थे। वृक्षों, झरनों और पर्वतों पर देवताओं की पूजा होती थी, और जीववाद का प्रचलन था, जिसमें मृतकों और शहीदों को देवत्व प्रदान किया जाता था।
  • बौद्ध और जैन धर्म: ईसा की पहली शताब्दी में बौद्ध और जैन धर्मों का तमिल प्रदेश में प्रवेश हुआ। इन धर्मों ने तमिल समाज के दार्शनिक विचारों को प्रभावित किया, खासकर भौतिकता के बजाय ज्ञान और आत्मा के महत्व पर जोर दिया। कई विद्वान मानते हैं कि सिलप्पादिकरम जैन था और मनिमेखलाई बौद्ध धर्म से प्रभावित था।
  • शैववाद और वैष्णववाद: शैववाद और वैष्णववाद इस समय के प्रमुख धार्मिक पंथ थे, हालांकि इनका संगम युग में नाम से नहीं, बल्कि सिद्धांत के रूप में प्रसार था। तोल्काप्पियम में मुरुगन और मायेंन (विष्णु) की पूजा का उल्लेख है, लेकिन शैववाद और वैष्णववाद का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। यह संकेत करता है कि ये पंथ धीरे-धीरे संगम युग में विकसित हो रहे थे।
  • स्वप्न और ग्रहों का प्रभाव: संगम युग के लोग स्वप्नों और ग्रहों के प्रभाव में विश्वास करते थे। कुछ लक्षण, जैसे कौओं का काँव-काँव, शुभ संकेत माने जाते थे, और इसे अतिथियों के आगमन से जोड़ा जाता था। कुरुतोगाई में इस विश्वास का उल्लेख मिलता है, जिसमें कौए को चावल और घी खिलाने की परंपरा थी।
  • मंदिर और पूजा अनुष्ठान: संगम युग में देवताओं की पूजा मंदिरों में होती थी। मनिमेखलाई में चक्रवाह कोट्टम नामक विशाल मंदिर का जिक्र है। मंदिरों में नृत्य, पुष्प अर्पण, तंदुल और मांस चढ़ाने जैसी पूजा विधियाँ होती थीं। सिलप्पादिकरम में देवताओं की प्रस्तर प्रतिमाओं का उल्लेख मिलता है। यह 'लिंगम' के रूप में, जो कि एक पुरातात्विक खोज द्वारा प्रमाणित है, की पूजा की जाती थी।
  • मृत्युदर्शन और श्मशान कर्म: संगम युग में मृत्यु के बाद के कर्म भी महत्वपूर्ण थे। मृतकों को दफनाया या जलाया जाता था, और कभी-कभी शवों को खुले में छोड़ दिया जाता था, ताकि वे गिद्धों या अन्य जानवरों द्वारा खाए जा सकें। मनिमेखलाई में श्मशान स्थलों का उल्लेख है, जहाँ भूत-प्रेत निवास करते थे।


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