भारत का इतिहास प्राचीन काल से 300 ce . तक UNIT- 2 SEMESTER - 1 THEORY NOTES प्रागैतिहासिक संस्कृतियों का सर्वेक्षण: पुरापाषाण, मध्यपाषाण और नवपाषाण DU. SOL.DU NEP COURSES

भारत का इतिहास प्राचीन काल से 300 ce . तक UNIT- 2   SEMESTER - 1 THEORY NOTES प्रागैतिहासिक संस्कृतियों का सर्वेक्षण: पुरापाषाण, मध्यपाषाण और नवपाषाण DU. SOL.DU NEP COURSES

पाषाण युग का परिचय

पाषाण युग मानव इतिहास का शुरुआती दौर है, जहाँ मानव ने पत्थर के औजार बनाए और विभिन्न वातावरणों में जीना सीखा। इस युग को तीन भागों में बाँटा गया है: पुरापाषाण, मध्यपाषाण, और नवपाषाण काल। इन कालों में मानव आखेटक (शिकार), संग्राहक (संग्रह), और खेती की ओर बढ़ा। लेखन के अभाव के कारण इसे प्रागैतिहासिक युग कहते हैं, और इसके बारे में जानकारी हमें पुरातत्त्व और नृविज्ञान से मिलती है।


दक्षिण एशिया में मानव-उद्भव

भारतीय उपमहाद्वीप की आर्द्र जलवायु के कारण जैविक सामग्री जल्दी अपघटित हो जाती है, जिससे यहाँ जीवाश्म दुर्लभ हैं। हालाँकि मानव की उत्पत्ति अफ्रीका में मानी जाती है, भारत में प्रारंभिक होमिनिड्स के प्रमाण सीमित हैं।

प्रमुख खोजें:

  • 1930 में पंजाब के शिवालिक क्षेत्र में रमापिथेकस के अवशेष मिले, जो मानव विकास के लिए महत्वपूर्ण थे।
  • 1984 में होशंगाबाद, मध्य प्रदेश में एक महिला का मस्तिष्क जीवाश्म मिला, जो होमो इरेक्टस और होमो सेपियन्स के बीच संक्रमण को दर्शाता है।
  • 2001 में तमिलनाडु के ओडई में एक मानव शिशु की खोपड़ी मिली, जो प्रारंभिक मानव जीवन का प्रमाण है।


 पुरापाषाण काल 

पुरापाषाण काल का अर्थ "प्राचीन प्रस्तर युग" है, जो लगभग 25 लाख ईसा पूर्व से 10 हजार ईसा पूर्व तक फैला हुआ है। इस काल में मानव पत्थर के औजारों का उपयोग जीवन-यापन के लिए करता था, और समय के साथ औजारों में नवाचार किए गए। इसे तीन चरणों में बाँटा गया है:

1. प्रारंभिक-पुरापाषाण काल (20 लाख - 1 लाख ईसा पूर्व): मुख्य औजार - हस्त कुठार, विदारणी

2. मध्य-पुरापाषाण काल (1 लाख - 40 हजार ईसा पूर्व): मुख्य औजार - छोटे, हल्के औजार (लेवालाई तकनीक)।

3. उत्तर-पुरापाषाण काल (40 हजार - 10 हजार ईसा पूर्व): मुख्य औजार - हल्के फलक और तक्षणी।

भारत में पुरापाषाण अनुसंधान

  • रॉबर्ट ब्रूस फूट ने 1863 में भारत में पहले पुरापाषाण औजारों की खोज की, जिससे भारतीय प्रागैतिहास विज्ञान की शुरुआत हुई।
  • 1930 के दशक में एच.डी. टेरा और टी.टी. पैटर्सन के सर्वेक्षण ने कश्मीर, पोटवार और जम्मू क्षेत्रों में प्रागैतिहासिक अनुसंधान को आगे बढ़ाया।
  • 1960 के दशक तक भारतीय पुरातत्वविद हिम-युग के शिल्प औजारों को प्रारंभिक, मध्य और उत्तर पुरापाषाण काल में विभाजित करने में सक्षम हो गए।


1. पूर्व-पुरापाषाण काल का परिचय

पूर्व-पुरापाषाण काल भारतीय उपमहाद्वीप का शुरुआती प्रस्तर युग है, जहाँ मानव ने पत्थरों से औजार बनाना शुरू किया। इस काल में प्रमुख औजार हस्त कुठार, विदारणी, और खंडक थे, जिन्हें पत्थरों को तोड़कर आकार दिया गया।

1. मुख्य स्थल और औजार शैलियाँ

  • सोहन घाटी (पाकिस्तान), कश्मीर, और थार रेगिस्तान : यहाँ "सोहान उद्योग" में गैंड़े और खंडक औजार (चॉपर) पाए जाते थे।
  • एशूली उद्योग (शेष भारत) : हस्त कुठार, विदारणी, दंतिका, खुरचनी जैसे औजार, जो क्वार्टजाइट से बने थे।

2. प्रमुख स्थल

  • महाराष्ट्र : बोरी, चिर्की-नेवासा
  • कर्नाटक : हुन्स्गी और घाटप्रभा घाटी
  • मध्य प्रदेश : भीमबेटका की गुफाएँ
  • उत्तर प्रदेश : बेलन घाटी
  • राजस्थान : डिडवाना
  • आंध्र प्रदेश : नागार्जुनकोंडा
  • तमिलनाडु : अत्तिरंपक्कम, गुडियम

3. प्राकृतिक पर्यावरण और सामग्री

  • ताप्ती, गोदावरी, भीमा, और कृष्णा नदियों की घाटियों में इन औजारों के स्थल मिले हैं, और क्वार्टजाइट पत्थर का उपयोग प्रचलित था।


2. मध्य-पुरापाषाण युग का परिचय

मध्य-पुरापाषाण युग में हल्के और छोटे पत्थर के औजारों का प्रयोग बढ़ा, जिन्हें शल्क-आधारित तकनीक से बारीकी से बनाया जाता था। इस काल में लेवालाई और चक्रीय कोर प्रविधियों में भी सुधार हुआ। औजार निर्माण के लिए क्वार्टजाइट के साथ चर्ट और सूर्यकांत जैसे महीन पत्थरों का उपयोग भी होने लगा।

1 . काल अवधि : मध्य-पुरापाषाण युग को सामान्यतः 1,50,000 से 30,000 वर्ष पूर्व का माना जाता है, जो अपेक्षाकृत शुष्क जलवायु का काल था।

2. कच्चे माल की उपयोगिता: चर्ट और जैस्पर जैसे शैल, जो औजार निर्माण के लिए उपयुक्त थे, कई किलोमीटर दूर से लाए जाने लगे।

3 . महत्वपूर्ण स्थल:

  • नर्मदा नदी के तट : यहाँ कई मध्य-पुरापाषाण स्थल मिले हैं।
  • बेलान घाटी, उत्तर प्रदेश : यहाँ मृगों समेत विभिन्न प्राणियों के जीवाश्म और औजार प्राप्त हुए हैं।
  • मेवाड़ क्षेत्र : वागाँव और काठमीली नदियों के किनारे विभिन्न प्रकार की खुरचनियाँ, बेधक और कांटे पाए गए हैं।
  • भीमबेटका : एशूली परंपरा के औजारों का स्थान मध्य-पुरापाषाण औजारों ने लिया।
  • संधाओं गुफा, पाकिस्तान
  • राजस्थान की लूनी नदी घाटी, डिडवाना
  • नर्मदा, सोन और कोर्टल्लायार नदी की घाटियाँ
  • पूर्वी भारत के पठार और हुस्गी घाटी, दक्षिण भारत
  • विशेष स्थल: ऊपरी सिंघ की रोहड़ी पहाड़ियाँ, जहाँ चर्ट का व्यापक उपयोग औजार निर्माण के लिए किया गया। इस क्षेत्र में जलवायु संबंधी कारणों से कई कालों में पत्थरों का उपयोग बढ़ा या घटा।




3. उत्तर-पुरापाषाण युग का परिचय

उत्तर-पुरापाषाण युग (लगभग 30,000 वर्ष पूर्व) में उपकरण निर्माण में सटीकता और नई तकनीकों का विकास हुआ। यह परिवर्तन शिकार के तरीकों या पर्यावरणीय बदलाव के प्रति अनुकूलन का संकेत देता है।

1. मुख्य विशेषताएँ और उपकरण

  • उपकरण निर्माण : समानांतर पत्तियाँ (ब्लेड्स) बनाई गईं; मुख्य औजारों में खुरचनियाँ, पत्तियाँ, कांटे और तक्षणियाँ शामिल थीं।
  • अस्थि-उपकरण : कुर्नूल की गुफाओं में अस्थि-उपकरण मिले, जो इस काल की विशेषता हैं।
  • कच्चा माल और व्यापार : चर्ट और कैल्सेडनी जैसे महीन पत्थरों का उपयोग किया गया, जो लंबी दूरी से लाए जाते थे, जिससे व्यापार और आदान-प्रदान का संकेत मिलता है।

2. प्रमुख स्थल

  • थार क्षेत्र, पाकिस्तान के स्थल : संघाओ गुफाएँ, पोटवार पठार।
  • दक्षिण भारत और आंध्र प्रदेश : रेनिगुंटा में पत्रियों और तक्षणियाँ मिलीं।
  • गुजरात और काठियावाड़ : उत्तर-पुरापाषाण काल के शिल्प तथ्य पाए गए हैं।


4. पुरापाषाणकालीन संस्कृति का परिचय

पुरापाषाणकालीन संस्कृति में लोग शिकार और संग्रहण पर निर्भर थे, क्योंकि कृषि और पशुपालन का विकास नहीं हुआ था। इनका आहार वन्य जीव-जंतु और पौधों से प्राप्त होता था।

1. मुख्य आहार स्रोत

  • जंतु आहार : बैल, नीलगाय, चिंकारा, काला हिरण, एंटिलोप, सांभर, भालू, पक्षी, कछुआ, मछली, और शहद।
  • पौधों से आहार : फल, कंद, बीज, और पत्तियाँ।
  • भीमबेटका की चित्रकारी : भीमबेटका गुफाओं की चित्रकारियाँ उत्तर-पुरापाषाण युग की हैं, जो शिकार-आधारित जीवन शैली और समूह में रहने का संकेत देती हैं।

2. सांस्कृतिक विशेषताएँ: इन चित्रों से समाज में सामूहिक शिकार और भोजन संग्रह की महत्वपूर्ण भूमिका का पता चलता है।




 मध्यपाषाण काल  

मध्यपाषाण युग (9000 ईसा पूर्व) भारतीय उपमहाद्वीप में पुरापाषाण से नवपाषाण युग की ओर विकास की निरंतरता को दर्शाता है। जलवायु परिवर्तन के कारण जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों में बदलाव हुआ, जिससे शिकार करने वाले समुदाय तेजी से फैल गए।

1. मुख्य औजार और स्थल : इस युग में छोटे पत्थरों के औजार (लघुपाषाण) बनते थे, जिनकी लंबाई 1-8 सेंटीमीटर होती थी। इनमें तक्षणी, अर्द्धचंद्रक, बालचंद्रक, त्रिकोण और नोकदार औजार शामिल थे। प्रमुख स्थल राजस्थान (बागोर, तिलवाड़ा), उत्तर प्रदेश (सराय नाहर राय), मध्य भारत (भीमबेटका, आदमगढ़), और दक्षिण भारत (रेणिगुंटा) हैं।

2. जीविका शैली : लांघनाज जैसे स्थलों में लघुपाषाण उपकरण, पशु-अस्थियाँ, और शवाधान के अवशेष मिले हैं। मुख्य आहार स्रोत शिकार था, लेकिन लोग कंद-मूल, फल, और शहद भी संग्रह करते थे। बागोर में पालतू भेड़-बकरियों की अस्थियाँ मिलीं, जो पारिवारिक जीवन की शुरुआत का संकेत देती हैं।

3. शैल चित्र : भीमबेटका, आदमगढ़, और मिर्जापुर की चित्रकारियाँ सामाजिक जीवन, शिकार, नृत्य, भोजन और रोजमर्रा की गतिविधियों को दर्शाती हैं। जानवरों, पौधों, और सामाजिक दृश्यों के चित्रों से उस समय के जीवन का अंदाजा मिलता है।



  नवपाषाण युग 

नवपाषाण युग, जो पाषाण युग की अंतिम अवस्था है, में खाद्य-उत्पादन की शुरुआत हुई। इस काल में मानव ने खेती और पशुपालन की दिशा में कदम बढ़ाए। इस बदलाव का मुख्य कारण होलोसीन काल में जलवायु परिवर्तन, बढ़ती जनसंख्या, और मानव समाज की विकसित होती संस्कृति और तकनीकी प्रगति का सम्मिश्रण था।

नवपाषाण युग के विशिष्ट लक्षण

1. उपकरणों में विविधता : भारी उपकरण जैसे मूसल, खरल और चक्की का उपयोग हुआ, जो पिसाई और कूटने में मददगार थे। चमकदार औजार जैसे कुठार और हँसिया, जंगली और घरेलू पौधों को काटने के लिए उपयोग में आए।

2. आहार और जीवनशैली में बदलाव : नवपाषाण युग में मनुष्य ने घुमंतू जीवन त्यागकर कृषि और पशुपालन को अपनाया। घुमंतू आखेटक जीवन से स्थानबद्ध जीवन की ओर परिवर्तन हुआ, जिससे गाँव, कस्बे और नगरों का विकास हुआ।

3. कृषि और पशुपालन : कृषि ने खाद्य उत्पादन को स्थायित्व दिया और भोजन की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित की। पशुपालन से दुग्ध, ऊन, और मांस का नियमित उत्पादन संभव हुआ।

4. मिट्टी के बर्तन और पहिये का उपयोग : मिट्टी के बर्तन और चाक के उपयोग से मृणपात्र निर्माण हुआ। पहिये के आविष्कार से गाड़ियों और कताई-बुनाई में भी प्रगति हुई।

5.नवपाषाण क्रांति : गार्डन वी. चाइल्ड ने नवपाषाण युग के इन बदलावों को 'नवपाषाण क्रांति' की संज्ञा दी। यह युग धीरे-धीरे विकास की ओर बढ़ा, और इसे क्रांति की बजाय एक रूपांतरण या क्रमिक विकास के रूप में अधिक स्वीकारा जाता है।


भारत में कृषि के विकास

भारतीय उपमहाद्वीप में कृषि का विकास पश्चिमी विकीर्णवादी धारणाओं के विपरीत स्वतंत्र रूप से हुआ। निम्नलिखित प्रमुख बिंदुओं के माध्यम से इसे समझा जा सकता है:

1. विकीर्णवादी धारणा का खंडन : पहले माना जाता था कि भारत में कृषि का विचार मेसोपोटामिया से आया है। परंतु, 1970 के बाद के शोध से यह धारणा खंडित हो गई और अब कृषि को भारत में स्वतंत्र रूप से विकसित मानते हैं।

2. स्थानीय कृषि उत्पाद : तीन प्रमुख फसलें जैसे गेहूँ, जौ, और चावल भारतीय उपमहाद्वीप में ही विकसित हुईं। पाकिस्तान के मेहरगढ़ में गेहूँ और जौ के साक्ष्य तथा उत्तर प्रदेश के कोल्डीहवा में चावल के प्रमाण इस तथ्य को पुष्ट करते हैं।

3. नवपाषाण संस्कृतियाँ और उनके क्षेत्र : भारतीय नवपाषाण संस्कृतियाँ विविध क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न समयावधि में विकसित हुईं, जैसे कि:-

  • उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र (बलूचिस्तान),
  • कश्मीर घाटी,
  • मध्य भारत,
  • पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार,
  • बंगाल, उड़ीसा, असम,
  • दक्षिण भारत।

4. संवर्धित ग्राम्य जीवन और कृषि का विकास : इन संस्कृतियों में ग्राम्य जीवन और कृषि का विकास भौगोलिक क्षेत्र के अनुसार अलग-अलग रूप में हुआ। उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में नवपाषाण औजार मिले, लेकिन अनाज की खेती का कोई प्रमाण नहीं मिला।

5. फसलों में भौगोलिक विविधता : हर क्षेत्र में अपनी-अपनी प्रमुख फसलें थीं, जैसे कि:-

  • मेहरगढ़ में गेहूँ और जौ
  • मध्य भारत में चावल
  • दक्षिण भारत में बाजरा और रागी।



नवपाषाण संस्कृतियों का प्रादेशिक वितरण

1. उत्तर-पश्चिम भारत

उत्तर-पश्चिम भारत में सिंधु के मैदान और बलूचिस्तान क्षेत्र नवपाषाण युग के शुरुआती साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। यहाँ कृषि और पशुपालन का विकास हुआ। बलूचिस्तान की घाटी के प्रमुख स्थल हैं

प्रमुख स्थल -

  • मेहरगढ़ : यहाँ गेहूँ, जौ, मवेशी, भेड़ और बकरियों पर आधारित कृषि के प्रमाण मिले हैं, जिनका समय लगभग 7000 ईसा पूर्व है। यहाँ के लोग कच्ची ईंटों के मकानों में रहते थे और व्यापार के लिए फिरोजा और शंख जैसे बाहरी सामग्रियों का उपयोग करते थे।
  • किली गुल मुहम्मद : यह स्थल 5000 ईसा पूर्व का है और यहाँ मिट्टी के बरतन, पालतू पशुओं और पत्थर के औजार मिले हैं।
  • राना घुंडई : यहाँ 4500-3100 ईसा पूर्व की संस्कृति के प्रमाण मिले हैं। मिट्टी के बरतन, पालतू पशुओं और पत्थर तथा हड्डी के औजारों का उपयोग किया गया था।
  • गुमला : गोमल घाटी में स्थित इस स्थल पर लघु पाषाण औजार, मृत्तिका पात्र, और खेल के मोहरे जैसे अवशेष मिले हैं।
  • रहमान ढेरी : 3400-2100 ईसा पूर्व तक का यह स्थल मिट्टी और कच्ची ईंटों की संरचनाओं के लिए जाना जाता है। यहाँ गेहूँ, जौ, और मवेशियों के अवशेष मिले हैं।
  • अमरी : सिंध में स्थित इस स्थल पर हस्तनिर्मित मृदभांड, पालतू पशुओं और तांबे के टुकड़े मिले हैं।


2. उत्तर भारत

उत्तर भारत में नवपाषाण संस्कृति का मुख्य साक्ष्य कश्मीर घाटी के बुर्जहोम, गुफ्कराल, और कनिष्कपुर स्थलों से प्राप्त हुआ है। इन स्थलों में कृषि और पशुपालन के साथ-साथ शिकार पर आधारित जीवन शैली के प्रमाण मिलते हैं।

मुख्य स्थल -

  • गुफ्कराल : "कुम्हार की गुफा" के नाम से प्रसिद्ध, गुफ्कराल का स्थल लगभग 3000 ईसा पूर्व से नवपाषाण गतिविधियों का प्रमाण देता है। यहाँ मिट्टी के पात्रों का प्रारंभिक अभाव था, लेकिन बाद में हाथ से बने और चाक पर बनाए गए मृदभांड मिले हैं। पालतू भेड़, बकरी, जौ, गेहूँ और मसूर का भी साक्ष्य यहाँ मिलता है।
  • बुर्जहोम : लगभग 2700 ईसा पूर्व का यह स्थल झील के किनारे स्थित है, जहाँ गोलाकार गर्तावास पाए गए। यहाँ शिकार, मछली पकड़ने, और कृषि के साक्ष्य हैं। यहाँ का अस्थि उद्योग विकसित था, जिसमें कांटेदार बर्षी, सुई, और वाणाग्र शामिल थे। दफन विधि और शिकार दृश्यों के चित्र भी यहाँ पाए गए हैं।
  • कनिष्कपुर : बारामुल्ला जिले का यह स्थल नवपाषाण और ऐतिहासिक काल के प्रमाण प्रस्तुत करता है। यहाँ के औजारों में पॉलिशदार पत्थर के सेल्ट, हड्डी के औजार, और मृदभांड शामिल हैं। यहाँ जौ, गेहूँ और पालतू भेड़-बकरी के अवशेष भी मिले हैं।


3. मध्य भारत

मध्य भारत में नवपाषाण संस्कृति का केन्द्र विंध्य और कैमूर पर्वत श्रेणियाँ हैं, जो गंगा और सोन नदियों से घिरी हैं। प्रमुख स्थल हैं कोल्डीहवा, महागारा, और लहुरादेव। इस क्षेत्र में नवपाषाण युग की तिथियों को लेकर कुछ मतभेद हैं, लेकिन कोल्डीहवा का नवपाषाण काल लगभग 7000 ईसा पूर्व माना गया है।

मुख्य स्थल -

  • कोल्डीहवा : उत्तर प्रदेश की बेलन घाटी में स्थित यह स्थल शुरुआती चावल की खेती का प्रमाण प्रस्तुत करता है, जिसका समय लगभग 5500-6500 ईसा पूर्व माना जाता है। यहाँ पॉलिश किए गए पत्थर के औजार, लघुपाषाण, और तीन प्रकार के हस्तनिर्मित मृदभांड मिले हैं। चावल की भूसी का उपयोग मिट्टी के बर्तनों में किया गया था, और यहाँ पशुपालन के भी साक्ष्य हैं, जिसमें भेड़, बकरी, और हिरण शामिल हैं।
  • महागारा : बेलन नदी के किनारे स्थित इस स्थल से भी प्रारंभिक चावल की खेती और मवेशियों के बाड़े के प्रमाण मिले हैं, जो पालतू मवेशियों के संकेत देते हैं। यहाँ हड्डियों के औजार, कैल्सेडनी और गोमेद जैसे पत्थरों के औजार और हल्के आग में पकाए गए मृदभांड मिले हैं।


4. मध्य गंगा की घाटी

मध्य गंगा की घाटी, जो पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार को आच्छादित करती है, गंगा नदी और उसकी सहायक नदियों (सरयू, घाघरा) के किनारे बसे नवपाषाणकालीन स्थलों के लिए प्रसिद्ध है। प्रमुख स्थल नरहन (सरयू के किनारे), इमलीडीह (कुवाना के किनारे), सोहागौरा (राप्ती के किनारे) और चिरांद हैं, जहाँ से नवपाषाण काल की संस्कृति के प्रमाण मिले हैं।

प्रमुख स्थल -

  • चिरांद : गंगा और सरयू के संगम पर स्थित, चिरांद का टीला एक किलोमीटर लंबा है। यहाँ से 2100-1400 ईसा पूर्व तक की नवपाषाण संस्कृति के साक्ष्य मिले हैं। लाल, धूसर, और काले रंग के हस्तनिर्मित मृदभांड, पकी मिट्टी से बनी वस्तुएँ (जैसे कुबड़ा सांड, पक्षी, सांप), और शिल्प सामग्रियाँ यहाँ पाई गई हैं।
  • जीविका और कृषि : चिरांद के लोग खेती और पशुपालन करते थे, जिनकी मुख्य फसलें चावल, गेहूँ, जौ, मूंग, और मसूर थीं। जानवरों के अवशेषों में पालतू पशुओं से लेकर हाथी और गैंडे तक शामिल हैं।
  • औजार और आभूषण : अस्थियों से बनी वस्तुएँ (जैसे छेदक, खुरचनी, और वाणाग) और आभूषण (जैसे पेंडेंट, कड़े) मिले हैं। पत्थर से बने लघुपाषाण औजार, नवपाषाण कुठार, मूसल और चक्कियाँ भी यहाँ पाई गई हैं। गोमेद, कार्नेलियन, और सूर्यकांत जैसी सामग्री और पकी मिट्टी की वस्तुएँ शिल्प उत्पादन और वस्तु विनिमय की ओर संकेत करती हैं।


5. पूर्वी भारत

पूर्वी भारत में झारखंड, पश्चिम बंगाल, और ओड़ीसा के नवपाषाणीय स्थल एक समृद्ध प्रागैतिहासिक इतिहास का संकेत देते हैं। यहाँ के प्रमुख स्थल कुचई, गोलबई सासन, पांडु राजा ढिबी, और बारुडीह हैं। हालांकि इन क्षेत्रों में सीमित खुदाई के कारण, यहाँ के नवपाषाण काल का एक प्रारंभिक रूप ही प्रस्तुत किया जा सकता है।

प्रमुख स्थल -

  • कुचई (ओड़ीसा) : मयूरभंज के समीप स्थित कुचई में नवपाषाण उपकरणों जैसे पॉलिशदार प्रस्तर सेल्ट और कुठार से इस युग के अस्तित्व की पुष्टि होती है।
  • गोलबई सासन (ओड़ीसा) : मंदाकिनी नदी के किनारे स्थित इस स्थल की खुदाई में हल्के लाल और धूसर मिट्टी के पात्र, हड्डियों के औजार, फर्श और स्तंभ गर्तों के निशान मिले हैं।
  • पांडु राजा ढिबी (पश्चिम बंगाल) : अजय घाटी में स्थित यह स्थल नवपाषाण से ताम्रपाषाण काल की ओर विकास दर्शाता है। यहाँ चावल की भूसी के चिह्नित धूसर मृदभांड, चित्रित लाल मृदभांड, और अस्थियों के औजार मिले हैं, जो इस युग की मिश्रित संस्कृति का संकेत देते हैं।
  • बारुडीह (झारखंड) : छोटानागपुर पठार में स्थित इस स्थल से नवपाषाणकालीन सेल्ट, लौह उपकरण, और विभिन्न चक्र निर्मित मृदभांड प्राप्त हुए हैं। यहाँ के मृदभांड मुख्यतः लाल और कृष्ण वर्ण के हैं, और यह स्थल लगभग 1401 से 837 ईसा पूर्व का माना जाता है।


6. उत्तर-पूर्वी भारत

उत्तर-पूर्वी भारत में प्रचुर मात्रा में पॉलिशदार नवपाषाणीय उपकरण मिले हैं, लेकिन इस क्षेत्र की नवपाषाण संस्कृति की एक स्पष्ट तस्वीर नहीं उभर पाई है। स्कंधित कुठारों और रस्सी छाप वाले मृदभांड, जो दक्षिण-पूर्व एशिया से मिलते-जुलते हैं, से संकेत मिलता है कि संभवतः यहाँ की संस्कृति का विस्तार दक्षिण-पूर्व एशिया से हुआ हो। डी. पी. अग्रवाल ने इस क्षेत्र की नवपाषाण संस्कृतियों की तिथि लगभग 2500-1500 ईसा पूर्व मानी है। प्रमुख स्थल हैं दाओजली हादिंग और सारुतारु (असम), नापचिक (मणिपुर), और प्यनथोलातेंग (मेघालय)।

  • दाओजली हादिंग : असम की उत्तरी कचार पहाड़ियों में स्थित दाओजली हादिंग से नवपाषाणकालीन काठ के बने औजार (कुठार, वसूला, फावड़ा, छेनी) और हस्तनिर्मित फीके लाल मृदभांड मिले हैं। यहाँ कृषिजन्य अनाज नहीं पाए गए, लेकिन सिलौट और मूसल जैसी वस्तुओं से कृषि गतिविधियों का संकेत मिलता है।


दक्षिण भारत

दक्षिण भारत में कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, और तमिलनाडु में नवपाषाण संस्कृति के स्थलों की बड़ी संख्या है। इस क्षेत्र की प्रमुख विशेषता राख के टीलों का अस्तित्व है, जो जलने के कारण संचित हुई पशु-विष्ठा (गोबर) से बने हैं। प्रमुख स्थलों में सनगन कल्लू, हल्लूर, टेक्कलकोटा, ब्रह्मगिरि, मास्की, पिकलीहल (कर्नाटक), उतनूर, पालावो, कोडेकाल (आंध्र प्रदेश), और पैयमपल्ली (तमिलनाडु) शामिल हैं। इन स्थलों का काल लगभग 2400 ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व के बीच माना जाता है।

1. जीविका और कृषि

  • दक्षिण भारतीय नवपाषाण समाज मुख्यतः प्रारंभिक कृषि और पशुपालन पर निर्भर था। ज्वार, बाजरा, जौ, मूंग और उड़द जैसी फसलों के प्रमाण मिले हैं, जिससे यह सिद्ध होता है कि ये फसलें देशज रूप से विकसित हुई थीं। मछली की हड्डियाँ और पशु हड्डियाँ शिकार और मछली पकड़ने की गतिविधियों को दर्शाती हैं।

2. संगनकुल्लू और पिकलीहल

  • संगनकुल्लू : यहाँ खुरदरे मृदभांड, पालतू पशुओं की अस्थियाँ, और जले अनाज के दाने पाए गए हैं, जो नवपाषाण काल के कृषिजन्य जीवन और पशुपालन का संकेत देते हैं।
  • पिकलीहल : कर्नाटक में स्थित यह राख का टीला है, जहाँ लोग यायावर जीवन जीते थे और मवेशियों को पालते थे। गोबर जमा कर उसे जलाने के बाद छावनी को फिर से साफ किया जाता था।










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