भक्ति एक धार्मिक अवधारणा है जो मोक्ष प्राप्ति के लिए भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण पर आधारित है। इसकी जड़ें बौद्ध, ब्राह्मण परंपराओं और ग्रंथों जैसे भगवद गीता व नारद भक्ति सूत्र में मिलती हैं। भक्ति आंदोलन छठी से दसवीं शताब्दी में दक्षिण भारत से शुरू हुआ और धीरे-धीरे उत्तर, पूर्व, पश्चिम भारत में फैला। वैष्णव और शैव पंथों के माध्यम से यह आंदोलन सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परिवेश को गहराई से प्रभावित करता रहा। हिंदू धर्म की अन्य पंथों और परंपराओं को समाहित करने की क्षमता ने आदिवासी पंथों को भी सम्मिलित किया। इसने बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में महाराष्ट्र की वारकरी परंपरा जैसी सांस्कृतिक धारणाओं को आकार देने में मदद की। इस तरह, भक्ति आंदोलन ने सामाजिक-धार्मिक सुधारों और सांस्कृतिक एकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
जगन्नाथ पंथ
मध्यकाल में भक्ति पंथ और मंदिर संस्थाओं ने हिंदूकरण को तेज किया। उड़ीसा में पुरी का पवित्र शहर, भगवान जगन्नाथ का निवास, इसका प्रमुख उदाहरण है। यह भक्ति, धार्मिकता और सांस्कृतिक एकीकरण का केंद्र बना और शाही संरक्षण के तहत विकसित हुआ।
हिंदू मध्ययुगीन राज्यों का वैधीकरण
एच. कुलके के अनुसार, मध्ययुगीन हिंदू साम्राज्यों में राज्य पंथ का उद्देश्य सामंती ताकतों को नियंत्रित करना था। यह तीन प्रमुख 'अनुष्ठान प्रतिवादों' के माध्यम से संभव हुआ तीर्थ स्थलों, ब्राह्मणों, और शाही मंदिरों का संरक्षण। जगन्नाथ पंथ इसका उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसने साम्राज्य की आंतरिक (ऊर्ध्वाधर) और बाहरी (क्षैतिज) वैधता को सुनिश्चित किया।
- ऊर्ध्वाधर वैधता: यह राजाओं और स्वदेशी देवता (जैसे जगन्नाथ) के संबंधों पर आधारित थी। अन्य उप-क्षेत्रीय देवताओं को धार्मिक नीतियों के तहत जगन्नाथ पंथ में शामिल किया गया।
- क्षैतिज वैधता: यह पुरी के शाही मंदिर और जगन्नाथ देवता की साम्राज्य स्तर पर मान्यता पर आधारित थी, जिसने साम्राज्य के बहु-केन्द्रित ढांचे को एकीकृत किया।
- जगन्नाथ पंथ ने आदिवासी पंथों को भी शामिल किया, जो इसकी दिव्य त्रिमूर्ति के प्रतीकों में झलकता है। इसने न केवल धार्मिक, बल्कि राजनीतिक और सांस्कृतिक एकीकरण का भी कार्य किया, जो पूर्वी गंगा साम्राज्य की सफलता का आधार बना।
जगन्नाथ पंथ के प्रारंभिक वर्ष और संरक्षण
प्राचीन ग्रंथों में भगवान जगन्नाथ और पुरी का उल्लेख मिलता है। उड़ीसा के राजनीतिक इतिहास और पौराणिक कथाओं के अनुसार, जगन्नाथ पंथ की स्थापना पहली बार सोमवंशी शासन के दौरान हुई। पुरी के पुरुषोत्तम मंदिर की प्राचीन छवि नीलमाधबा की पत्थर की मूर्ति थी। बाद में, चोलगंगादेव ने वैष्णव आंदोलन को बढ़ावा देकर वर्तमान जगन्नाथ मंदिर का निर्माण किया।
1. क्षत्र और क्षत्रिय
- मध्यकालीन हिंदू राजशाही में शक्ति (क्षत्र) और तीर्थ स्थलों (क्षेत्र) का गहरा संबंध था। शाही संरक्षण ने पुरी को तीर्थयात्रा का प्रमुख केंद्र बना दिया। ब्राह्मण बस्तियों और भूमि दानों ने जगन्नाथ मंदिर की संपत्ति और महत्ता को बढ़ाया, जो पूरे भारत से तीर्थयात्रियों को आकर्षित करता था। जगन्नाथ का पंथ आदिवासी भगवान को महान हिंदू देवता में परिवर्तित करने का उदाहरण है। भगवान का प्रतीक लकड़ी का बना है, और उनके कुछ पुजारी आज भी स्थानीय जनजातियों से आते हैं।
2. जगन्नाथ पंथ को संरक्षण
- चोलगंगा और अनंगभीम III का शासन: जगन्नाथ पंथ का विकास पुरी में हुआ, लेकिन 12वीं शताब्दी में गंगा वंश के उदय के साथ यह उड़ीसा के राजनीतिक वैधीकरण का मुख्य स्रोत बन गया। चोलगंगा ने 1112 ई. में पुरी में स्मारकीय जगन्नाथ मंदिर का निर्माण शुरू किया, जो वैष्णव परंपरा को बढ़ावा देने और क्षेत्रीय पंथों को एकीकृत करने का प्रतीक था। 1230 ई. में अनंगभीम III ने अपने साम्राज्य को भगवान जगन्नाथ को समर्पित किया और स्वयं को उनका वायसराय घोषित किया। उन्होंने बलभद्र को त्रिमूर्ति में शामिल कर पंचरात्र दर्शन के प्रभाव के तहत पंथ का पुनर्गठन किया।
- पंचरात्र दर्शन का प्रभाव: पंचरात्र दर्शन ने पुरुषोत्तम (जगन्नाथ), बलभद्र (रुद्र/शिव), और सुभद्रा (दुर्गा) को एक त्रिमूर्ति में एकीकृत किया। यह दर्शन आदिवासी और क्षेत्रीय देवताओं को नए राज्य पंथ में शामिल करने का माध्यम बना। अनंगभीम ने इस त्रयी को स्थापित कर उड़ीसा में धार्मिक और वैचारिक एकता को मजबूत किया।
- सूर्यवंश वंश का योगदान: सूर्यवंश के संस्थापक कपिलेंद्र (1430-1467) ने स्वयं को जगन्नाथ का पहला सेवक घोषित किया। उन्होंने राज्य के हर दान और आदेश को भगवान जगन्नाथ के प्रति समर्पण माना। उनके पुत्र पुरुषोत्तम ने पुरी की प्रसिद्ध रथयात्रा की अनुष्ठानिक सफाई सेवा शुरू की, जो पुरी के राजाओं का प्रमुख अधिकार बना।
रथ उत्सव और पुरी के पुजारी
रथ उत्सव भगवान जगन्नाथ, उनकी बहन सुभद्रा और भाई बलभद्र का प्रमुख त्योहार है, जिसमें तीन रथों पर सवार होकर उन्हें पुरी की 'महान सड़क' से गुंडिचा मंदिर तक ले जाया जाता है। यह नौ दिनों तक उनका ग्रीष्मकालीन निवास होता है। इस त्योहार का ऐतिहासिक प्रमाण गंगा काल से मिलता है। रथ उत्सव राजा या उनके प्रतिनिधि द्वारा तीनों रथों की सफाई और पानी छिड़कने के बाद ही शुरू होता है।
- पुरी के पुजारी और उनकी भूमिका: पुरी के ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण पुजारी शाही संरक्षण पर निर्भर थे, लेकिन वे कर्मकांडों को शाही हस्तक्षेप से मुक्त रखने की कोशिश करते थे। उनके बीच सत्ता संघर्ष और प्रभुत्व के लिए मतभेद बने रहते थे। राजा, खासकर कपिलेंद्र और पुरुषोत्तम, जो सिंहासन के वैध उत्तराधिकारी नहीं थे, अपने वैधीकरण के लिए पुजारियों पर निर्भर थे।
- राजनीतिक और धार्मिक महत्व:
1. राजनीतिक वैधता: सोमवंशी और गजपति राजाओं ने पुरी के जगन्नाथ पंथ को संरक्षण देकर अपने शासन को वैध बनाया।
2. राज्य पंथ: 1230 में, गजपति राजशाही की विचारधारा में जगन्नाथ पंथ की स्थापना हुई।
3. जगन्नाथ की स्थिति: केवल वे राजा जो पुरी और उसके मंदिर को नियंत्रित करते थे, उड़ीसा के वैध शासक माने जाते थे।
वारकरी पंथ
वारकरी पंथ एक लोकप्रिय धार्मिक आंदोलन है जो समानता और सामाजिक भागीदारी पर आधारित है। इसकी शुरुआत तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में महाराष्ट्र में संत नामदेव और ज्ञानेश्वर ने की। यह पंथ शैव और वैष्णव परंपराओं से जुड़ा है और इसके आराध्य देवता श्री विठ्ठल (विठोबा) हैं, जिनका मंदिर पंढरपुर में स्थित है।
मुख्य विशेषताएँ:
- भक्ति और तीर्थयात्रा (वारी): वारकरी पंथ में वारी का विशेष महत्व है। भक्त पंढरपुर और अन्य संतों की समाधियों (जैसे आलंदी, देहू) की तीर्थयात्रा करते हैं।
- जाति और वर्ग भेद का खंडन: यह पंथ सभी जाति, वर्ग, लिंग और सामाजिक स्थिति के लोगों के लिए खुला है।
- भक्ति साहित्य: संतों द्वारा रचित अभंग (भक्ति गीत) विठ्ठल और भक्ति की भावना को व्यक्त करते हैं।
- सरलता और अहिंसा: वारकरी तुलसी की माला धारण करते हैं, शाकाहार और अहिंसा का पालन करते हैं, और कोई जटिल अनुष्ठान नहीं करते।
- लोकप्रियता: भजन, कीर्तन, और लोक कथाओं के माध्यम से दर्शन और धर्म का प्रचार किया जाता है।
- संगठन: दिंडी (समूह) और पालकी जुलूस जैसी प्रथाओं ने भक्ति को संगठित रूप दिया और इसे जीवित रखा।
- सामाजिक और धार्मिक योगदान: वारकरी पंथ ने जाति-भेद और वर्गभेद की दीवारें गिराकर समावेशी समाज के निर्माण में मदद की। यह आंदोलन भक्ति पर आधारित धार्मिकता और सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है।
वारकरी पंथ की उत्पत्ति
वारकरी पंथ की उत्पत्ति मध्यकालीन महाराष्ट्र की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों के परिणामस्वरूप हुई। यह पंथ मुख्यतः 13वीं शताब्दी के दौरान यादव शासन के अंतर्गत विकसित हुआ, जब महाराष्ट्र गंभीर सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का सामना कर रहा था।
1. सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि
- यादव शासन का शोषण: यादवों का शासन भ्रष्ट और अक्षम था। शासक और उच्च वर्ग ने आम जनता, विशेषकर किसानों और कारीगरों का अत्यधिक शोषण किया। बार-बार आने वाले अकाल और उच्च वर्ग के शोषण ने निम्न वर्ग के भीतर असंतोष को बढ़ावा दिया।
- ब्राह्मणवादी वर्चस्व: यादव शासन के दौरान ब्राह्मणवादी परंपराओं का बोलबाला था। ब्राह्मणों ने धार्मिक अनुष्ठानों और कर्मकांडों के माध्यम से समाज पर प्रभुत्व स्थापित किया। चतुरवर्ग चिंतामणि जैसे ग्रंथों में अनगिनत व्रतों और प्रसादों की व्यवस्था को बढ़ावा दिया गया, जिसने गरीब ग्रामीण वर्ग और विशेष रूप से महिलाओं पर भारी बोझ डाला।
- महिलाओं की स्थिति: महिलाओं को पितृसत्तात्मक समाज में धार्मिक अनुष्ठानों का कठोर अनुपालन करना पड़ता था। सावित्री व्रत, मंगला गौरी जैसे उपवास महिलाओं के लिए अनिवार्य थे। ब्राह्मणवादी परंपराओं के कारण महिलाओं की स्थिति बेहद दयनीय थी।
2. वारकरी पंथ का वैचारिक आधार
- भक्ति का उदय: जाति, वर्ग और लिंग भेद से ऊपर उठकर विठ्ठल भक्ति के माध्यम से मोक्ष का मार्ग प्रदान किया।
- ब्राह्मण विरोध और समानता: ब्राह्मणवादी कर्मकांडों का विरोध कर हाशिए पर पड़े वर्गों को मुख्यधारा में लाया।
- शिवाजी और महाराष्ट्र धर्म: शिवाजी और पेशवाओं ने इसे "महाराष्ट्र धर्म" के राजनीतिक अभियान में शामिल किया।
3. सामाजिक संरचना और वारकरी पंथ के संत
1. सामाजिक आधार: वारकरी पंथ समाज के वंचित वर्गों को मुख्यधारा में लाने का आंदोलन था। इसके अनुयायी दर्जी, कुम्हार, माली, नाई, महार, और ब्राह्मण जैसे विभिन्न जातियों से थे। महिला संतों की बड़ी भागीदारी इस पंथ की समावेशी प्रवृत्ति को दर्शाती है।
2. प्रमुख संत:
- नामदेव: शूद्र दर्जी, जिन्होंने मराठी में भक्ति कविताएँ लिखीं। उनकी शिष्या जनाबाई ने भी भक्ति गीत रचे।
- ज्ञानेश्वर: ब्राह्मण परिवार से, जिन्होंने भगवद गीता पर मराठी टिप्पणी "ज्ञानेश्वरी" लिखी।
- चोक्कमेला: महार जाति के संत, जिन्होंने जातिगत भेदभाव पर सवाल उठाए।
- तुकाराम: शूद्र जाति के संत, जिन्होंने सामाजिक समानता का संदेश दिया।
- महिला संत: जनाबाई, मुक्ताबाई, सोयराबाई, कन्होपात्रा, और बहिनबाई जैसे संतों ने भक्ति और सामाजिक समानता का प्रसार किया।
3. महिला संतों का योगदान: महिला संतों ने भक्ति के माध्यम से अपने अनुभवों, संघर्षों और पीड़ा को अभंगों में व्यक्त किया। पंथ में महिलाओं और पुरुषों को समान सम्मान मिला।
4. विचारधारा: वारकरी पंथ जाति और लिंग भेदभाव के खिलाफ था, लेकिन पितृसत्तात्मक संरचना से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया। फिर भी, वारी की प्रथा ने जाति और वर्ग की सीमाएँ तोड़कर समानता और सहयोग को बढ़ावा दिया।
5. प्रभाव: वारकरी पंथ ने भक्ति आंदोलन को नई दिशा दी, मराठी भाषा और साहित्य को समृद्ध किया, और एक समग्र सांस्कृतिक एकता का निर्माण किया। यह पंथ समाज के हाशिए पर पड़े लोगों और महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बना।
लैंगिक भूमिकाएँ : महिला भक्त और शासक
- महिला इतिहास लेखन की आवश्यकता: पारंपरिक इतिहास लेखन में महिलाओं की भूमिका उपेक्षित रही है। महिला इतिहासकारों ने यह स्थापित किया कि महिलाओं ने समाज में विशिष्ट व्यवहार और पैटर्न स्थापित किए हैं। उनके इतिहास का मूल्यांकन उनके योगदान और सामाजिक चुनौतियों के संदर्भ में किया जाना चाहिए।
- भक्ति आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी: भक्ति आंदोलन (6वीं-10वीं शताब्दी) ने धार्मिक समानता और सामाजिक भागीदारी को बढ़ावा दिया। इसने जाति, वर्ग, और लिंग भेद को चुनौती दी और सरल भक्ति, प्रेम और विश्वास के माध्यम से मोक्ष का मार्ग प्रस्तुत किया। भक्ति आंदोलन ने महिलाओं को भी भागीदारी का अवसर दिया, जिससे वे सामाजिक प्रतिबंधों के बावजूद अपनी छाप छोड़ सकीं।
महिला संतों का योगदान:
- अक्का महादेवी (12वीं शताब्दी): दक्षिण-पश्चिम कर्नाटक की संत, जिन्होंने लिंगायत भक्ति आंदोलन में भाग लिया। उन्होंने सामाजिक बंधनों को अस्वीकार कर भगवान से जुड़ने का मार्ग अपनाया।
- लाल दे (14वीं शताब्दी): कश्मीर की रहस्यवादी कवयित्री, जिन्होंने सामाजिक पाखंड का विरोध किया और अपनी भक्ति कविताओं में आध्यात्मिक खोज को व्यक्त किया।
- मीराबाई (16वीं शताब्दी): राजस्थान की प्रसिद्ध कृष्ण भक्त, जिन्होंने समाज की परवाह किए बिना अपनी भक्ति और प्रेम का मार्ग चुना।
अक्का महादेवी
अक्का महादेवी वीरशैव आंदोलन की एक प्रमुख महिला संत थीं, जिन्होंने पितृसत्तात्मक व्यवस्था और सामाजिक बंधनों को चुनौती दी। उनका जन्म 11वीं-12वीं शताब्दी के कर्नाटक में हुआ और वे भगवान शिव की परम भक्त थीं।
1. जीवन और विद्रोह:
- सांसारिक जीवन का त्याग: कहा जाता है कि उन्होंने अपने पति कौशिका के घर से नग्न होकर विद्रोह किया, स्वयं को अपने लंबे बालों से ढँकते हुए। यह पितृसत्तात्मक विवाह व्यवस्था और सांसारिक परिवार को अस्वीकार करने का प्रतीक था।उनके लिए सांसारिक परिवार आध्यात्मिक यात्रा में बाधा था।
- धार्मिक प्रतिबद्धता: उन्होंने खुद को भगवान शिव (चेन्ना मल्लिकार्जुन) की दुल्हन घोषित किया। उनके वचन प्रेम, पीड़ा, और भगवान शिव के प्रति लालसा की तीव्र अभिव्यक्ति हैं।
2. रचनात्मक योगदान:
- वचन साहित्य: उनके लगभग 350 वचन उपलब्ध हैं, जो कन्नड़ काव्य की उत्कृष्ट रचनाएँ हैं। शिव के प्रति प्रेम को प्रिय, पति और स्वामी के रूप में चित्रित किया गया है। उन्होंने "योगना-त्रिविधि" और "अक्कागल पीठिका" जैसी साहित्यिक रचनाएँ भी लिखीं।
- कामुकता का स्पष्ट दृष्टिकोण: उन्होंने शरीर और कामुकता को भक्ति व्यक्त करने का साधन माना। उनके लिए यह न तो शर्मिंदगी थी और न ही मोक्ष में बाधा।
3. महत्त्व और आलोचना:
- समाज में योगदान: अक्का ने सामाजिक और धार्मिक परंपराओं को चुनौती दी और स्वतंत्रता की खोज की। उनकी भूमिका वीरशैव आंदोलन में महत्त्वपूर्ण है, जहाँ उन्होंने जाति, लिंग और सामाजिक बंधनों को तोड़ा।
- आलोचना: कुछ आलोचक मानते हैं कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था का विरोध करने के बावजूद, वे उसी के प्रतिमान में बंधी रहीं।लेकिन उनके वचन असहमति और विरोध का प्रतीक भी हैं।
लाल दे (लल्लेश्वरी)
लाल दे, जिन्हें लल्ला योगीश्वरी, लल्ला आरिफा, या लल्लेश्वरी के नाम से भी जाना जाता है, 14वीं शताब्दी के मध्यकालीन कश्मीर की एक प्रसिद्ध महिला संत थीं। उनका जीवन कष्टों, संघर्षों और आध्यात्मिकता की खोज से भरा था।
1. जीवन और संघर्ष
- प्रारंभिक जीवन: उनका जन्म 1320 ईस्वी के आसपास कश्मीर के सेम्पोर में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ।उनका विवाह पंपोर के नीका भट्ट से हुआ, लेकिन ससुराल में उन्हें दुर्व्यवहार और कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
- आध्यात्मिक यात्रा: पति का घर छोड़कर वे नग्न होकर घूमने लगीं, अपनी भक्ति और आत्मानंद में मग्न। उनके गुरु सिद्ध मोल ने उन्हें आध्यात्मिकता की दिशा में मार्गदर्शन दिया।
2. दर्शन और विचारधारा