भारत का इतिहास प्राचीन काल से 300 ce .तक UNIT 8 SEMESTER 1 THEORY NOTES मौर्योत्तर काल : राजनीति, अर्थव्यवस्था, समाज और संस्कृति सातवाहन और कुषाण के विशेष संदर्भ में DU. SOL.DU NEP COURSES
0Eklavya Snatakनवंबर 14, 2024
मौर्योत्तर काल को मौर्य वंश के पतन से लेकर गुप्त वंश के उदय तक का समय, यानी ईसा पूर्व 200 वर्ष से लेकर 300 ईस्वी तक की अवधि, माना जाता है। इस काल में कई महत्वपूर्ण घटनाएँ घटित हुईं, परंतु इसे मुख्यतः उन राजनीतिक, आर्थिक, और सामाजिक प्रक्रियाओं की अवधि के रूप में देखा जाता है, जो उत्तर-वैदिक काल में आरंभ हुईं, मौर्य काल में विकसित हुईं और मौर्योत्तर काल में अपनी परिणति तक पहुँचीं। इस काल की प्रमुख विशेषताओं के अध्ययन के लिए हमारे पास कई स्रोत उपलब्ध हैं, जिनमें साहित्य (बौद्ध और विदेशी विवरण), पुरातात्त्विक साक्ष्य (उत्तरी काला पॉलिशदार मृदभांड से संबंधित अवशेष), सिक्के (विविध प्रकार के और बड़ी मात्रा में), प्राकृत और संस्कृत में अभिलेख, तथा इस युग की स्थापत्य और कला के अवशेष शामिल हैं।
राजनीतिक इतिहास
मौर्योत्तर काल में राजनीतिक इतिहास में मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद कई क्षेत्रीय शक्तियों का उदय हुआ।
शुंग वंश: मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद, गंगा की घाटी में शुंग वंश ने अपना प्रभुत्व स्थापित किया। पुष्यमित्र शुंग ने, जो मौर्य सेना का सेनापति था, अंतिम मौर्य शासक की हत्या कर लगभग 180 ईसा पूर्व में इस वंश की स्थापना की। शुंग वंश ने लगभग सौ वर्षों तक पाटलिपुत्र, अयोध्या, और विदिशा सहित कई क्षेत्रों पर शासन किया। पुष्यमित्र ने वैदिक परंपराओं को पुनर्स्थापित किया और बौद्ध धर्म के प्रति असहिष्णु माना गया।
चेदि वंश: कलिंग (दक्षिण उड़ीसा) में चेदि वंश की स्थापना महामेघ वाहन ने की, और उसके प्रमुख राजा खारवेल थे। खारवेल के हाथी गुंफा अभिलेख से चेदि वंश के बारे में जानकारी मिलती है। इस वंश ने उड़ीसा में नियमित राजतंत्र की नींव रखी और इस क्षेत्र में राजव्यवस्था का विस्तार किया।
सातवाहन वंश: सातवाहन वंश मौर्योत्तर काल के सबसे प्रभावशाली राजवंशों में से एक था, जिसने प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व से तीसरी शताब्दी तक शासन किया। सातवाहनों ने दक्षिणापथ के महाप्रभु की उपाधि धारण की। उनका साम्राज्य कई प्रशासकीय इकाइयों में बँटा हुआ था, और राज्य का ढाँचा सामंतवादी था। सातवाहनों के कुछ प्रमुख शासक थे - गौतमीपुत्र सातकर्णी, वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावी, और यज्ञ श्री शातकर्णी। उनके द्वारा मातृनाम का उपयोग और रानियों के अभिलेख जारी करना विशेषता रही। इस वंश ने शीशे और पोटिन से बने सिक्के भी जारी किए।
बाहरी मूल के राजवंश
मौर्योत्तर काल में कई बाहरी मूल के राजवंशों ने भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी और पश्चिमी भागों में शासन किया। इनमें प्रमुख राजवंश थे - इंडो-ग्रीक, शक, पहलव, और कुषाण। ये राजवंश मध्य एशिया से हुए आक्रमणों के कारण इस क्षेत्र में आए और विभिन्न संस्कृतियों का प्रभाव लेकर आए।
इंडो-ग्रीक: इंडो-ग्रीक या इंडो-वैक्ट्रियाई सबसे पहले भारत आए और हिन्दूकुश पर्वत के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र से होते हुए पंजाब और सिंधु घाटी में फैल गए। इनका प्रभाव दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से पहली शताब्दी ईसा तक रहा। यह राजवंश अपने सिक्कों के लिए प्रसिद्ध है, जिनसे उनके शासकों के नाम, चित्र, और कथाएँ मिलती हैं। सबसे प्रसिद्ध शासक मिनांडर (मिलिंद) था, जिसने बौद्ध भिक्षु नागसेन के साथ संवाद के बाद बौद्ध धर्म अपना लिया। यह संवाद 'मिलिंद पन्हों' नामक ग्रंथ में संरक्षित है।
शक: शक (सीथियन) मध्य एशियाई कबीले थे, जिन्होंने भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जैसे तक्षशिला, मथुरा और मालवा में राज्य स्थापित किए। शकों में सर्वाधिक प्रसिद्ध शासक रुद्रादमन था, जिसने सौराष्ट्र, मालवा, काठियावाड़ और कोंकण पर अधिकार जमाया। उसका जूनागढ़ अभिलेख संस्कृत में लिखा गया भारत का सबसे पुराना शिलालेख है।
पहलव: पहलव या पार्थियन, जो मूल रूप से ईरानी थे, ने उत्तर-पश्चिमी भारत में अपना राज्य स्थापित किया। इनका प्रभाव सीमित था, और तक्षशिला में उनका सबसे प्रसिद्ध शासक गोंदोफर्निस था। पहलवों ने स्थानीय संस्कृति और प्रशासनिक ढाँचे में भी परिवर्तन लाए।
कुषाण : कुषाण, जो यूची नामक चीनी सीमा पर रहने वाली जनजाति के लोग थे, मौर्योत्तर काल के सबसे शक्तिशाली बाहरी शासकों में से थे। कुजुल कडफिसस ने उत्तर भारत में इस साम्राज्य की नींव रखी, और उनके पुत्र कनिष्क ने इसे और मजबूत किया। कनिष्क के शासनकाल में कुषाण साम्राज्य का विस्तार पूर्व में वाराणसी और दक्षिण में मालवा तक हो गया। उनकी दो मुख्य राजधानियाँ पुरुषपुर (पेशावर) और मथुरा में थीं। कुषाणों ने बौद्ध धर्म, शैव परंपरा, और संस्कृत साहित्य का संरक्षण किया। उन्होंने अपने राज्य में क्षत्रपों और महाक्षत्रपों को अधीनस्थ शासकों के रूप में नियुक्त किया। उनके शासन में विभिन्न संस्कृतियों का मिलन हुआ, जिससे कला, साहित्य, और धार्मिक परंपराओं में नए बदलाव आए।जैसे-जैसे कुषाणों की शक्ति कमजोर होने लगी, उनके द्वारा हराए गए स्थानीय राजवंशों ने फिर से सत्ता हासिल करने की कोशिश की। इन राजवंशों में शक, नाग, मित्र, दत्त, अर्जुनायन, मालव, और यौधेय जैसे समूह प्रमुख थे, जिनके बारे में सिक्कों और अभिलेखों से जानकारी मिलती है। चौथी सदी में गुप्त साम्राज्य के उदय के साथ एक नए राजनीतिक युग की शुरुआत हुई।
आर्थिक इतिहास
संगम काव्य और पुरातत्त्व से यह स्पष्ट होता है कि ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी और ईसा की तीसरी शताब्दी के बीच उपमहाद्वीप में नगरीय संपन्नता और व्यापार का वातावरण विकसित हुआ था। यह एक संकेत था प्रारंभिक ऐतिहासिक नगरीकरण की पराकाष्ठा का, जिसमें शहरों के विकास के साथ कृषि, शिल्प-उत्पादन और व्यापार का भी विस्तार हुआ था।
शहरों का विकास: इस काल में जो नगर विकसित हुए, वे न केवल स्थापत्य में विकसित थे, बल्कि इनकी संरचना में नयी तकनीकों का प्रयोग भी हुआ था, जैसे कि पक्की ईंटों के भवन, गलियाँ, नालियाँ और किलेबंदी। नगर केंद्रों से सिक्कों का ढलाई, मृदभांड, माला, मृण्मूर्ति जैसी जटिल और परिष्कृत कला कृतियाँ बनाई गईं। प्रमुख नगरों में राजगृह, पाटलिपुत्र, वाराणसी, श्रीवस्ती, मथुरा, कौशांबी, अयोध्या, उज्जयिनी, और प्रतिष्ठान शामिल हैं।
कृषि व्यवस्था और भूमि अनुदान: इस अवधि में एक सुदृढ़ कृषि व्यवस्था ने नगरों के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। मौर्यकाल के बाद निजी और व्यक्तिगत स्वामित्व वाले भूमि पर विकसित खेती का उल्लेख मिलता है। भूमि के अनुदान का चलन भी बढ़ा, जहां राजा भूमि दान कर सकते थे और इसके बदले विशेष अधिकार जैसे कर मुक्ति या शाही सेना के प्रवेश से मुक्ति प्राप्त होती थी।
शिल्प उत्पादन: मौर्योत्तर काल में शिल्पकला में उल्लेखनीय प्रगति हुई। शिल्पकला के व्यवसायों में लोहकार, स्वर्णकार, संगतराश, काष्ठकार, कर्मकार, बुनकर, कुंभकार, मद्यनिर्माता, फल विक्रेता, अनाज व्यापारी इत्यादि प्रमुख थे। शिल्पियों के संघ निगमों में संगठित होते थे, जो व्यापार में वृद्धि के साथ-साथ समाज में अपनी समृद्धि और स्थिति को दर्शाते थे।
सिक्कों का प्रयोग और मुद्रा व्यवस्था: सिक्के भी इस आर्थिक व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा थे। ये विभिन्न धातुओं जैसे सोना, चाँदी, ताँबा, शीशा, पोटिन और निकल के बने होते थे। सिक्के विभिन्न राजवंशों, गणों, और नगर प्रशासन द्वारा जारी किए जाते थे और इन्हें व्यापार के लिए इस्तेमाल किया जाता था।
व्यापार: व्यापार में स्थलीय और समुद्री दोनों प्रकार के मार्गों का विकास हुआ। विभिन्न स्थानों से माल का आयात और निर्यात किया जाता था। प्रमुख व्यापारिक वस्तुओं में सूती वस्त्र, इस्पात के बने हथियार, घोड़े, ऊंट, हाथी, चंदन, रेशम, मसाले, मोती, और इत्र शामिल थे। भारत का आंतरिक व्यापार उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व तक फैला हुआ था। प्रमुख व्यापार मार्गों में उत्तरा पथ और दक्षिणा पथ शामिल थे, जो महत्वपूर्ण व्यापारिक शहरों को आपस में जोड़ते थे। इसके अलावा, भारत का व्यापार बाहरी दुनिया, जैसे मध्य एशिया, दक्षिण-पूर्व एशिया, और भूमध्य सागर से भी जुड़ा हुआ था।
सामाजिक इतिहास
मौर्योत्तर काल में राजनीतिक और आर्थिक बदलावों का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा। जाति, वर्ग और लिंग का धार्मिक आधार पर स्तरीकरण पहले से अधिक सख्त और विस्तृत हो गया।
जाति और वर्ण व्यवस्था: इस काल में चार वर्णों और चार आश्रमों पर आधारित चतुर्वर्णाश्रम धर्म स्थापित हुआ। जाति व्यवस्था में सजातीय विवाह और वंशानुगत पेशे को प्राथमिकता दी गई। एक ही जाति के लोग अलग बस्तियों में रहते थे, और शुचिता और प्रदूषण के नियम सख्त थे। समाज के निचले पायदान पर 'चंडाल' जैसे समुदाय थे, जिन्हें अस्पृश्य माना गया और समाज से अलग रखा गया। इसके साथ ही, यवन और शक जैसे बाहरी लोगों को जातियों के मिश्रण से उत्पन्न वर्ण या वात्य क्षत्रिय का दर्जा देकर समाज में शामिल किया गया।
महिलाओं की स्थिति: इस काल में पितृसत्ता मजबूत हुई और महिलाओं की स्थिति कमजोर हो गई। महिलाओं को धार्मिक और शैक्षिक अधिकारों से वंचित रखा गया और उनका स्थान घरेलू कार्यों तक सीमित हो गया। संपत्ति पर उनका अधिकार बहुत सीमित था, हालांकि 'स्त्रीधन' पर उनका अधिकार मान्य था। कुछ महिलाएँ बौद्ध स्थलों को दान देती थीं, जो उनके सीमित आर्थिक स्वतंत्रता का संकेत है।
धार्मिक अनुष्ठान: मौर्योत्तर काल में धार्मिक अनुष्ठानों का महत्व बढ़ा। जीवन के विभिन्न चरणों को चिह्नित करने के लिए संस्कार किए जाते थे, जैसे गर्भाधान, उपनयन, विवाह, और अन्त्येष्टि। उच्च जातियों के लिए पंचमहायज्ञ जैसे अनुष्ठान निर्धारित थे, जो समाज में आस्था और परंपराओं को बनाए रखने का माध्यम बने।
सांस्कृतिक उत्थान
मौर्योत्तर काल में भारत में सांस्कृतिक उत्थान का एक नया अध्याय प्रारंभ हुआ। यह काल न केवल आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण था, बल्कि सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी अत्यधिक समृद्ध था। इस काल में कला, साहित्य, धर्म, दर्शन, और स्थापत्य के क्षेत्र में न केवल समृद्धि आई, बल्कि विभिन्न सांस्कृतिक प्रवृत्तियाँ भी विकसित हुईं, जो आज तक भारतीय समाज की पहचान बनी हुई हैं।
धर्म
मौर्योत्तर काल में धार्मिक विश्वास और आचरण के सिद्धांतों का विकास हुआ, जिन्हें हम आज हिंदू धर्म के रूप में जानते हैं। इस समय भक्ति और पूजा की परंपराएँ स्थापित हुईं, जो मुख्य रूप से तीन प्रमुख देवताओं—शिव, विष्णु और शक्ति—की पूजा पर आधारित थीं। इन देवताओं के प्रति श्रद्धा का रूप एक विशेष ईष्टदेव के प्रति अनुरक्ति में व्यक्त हुआ, जिसे भक्ति कहा गया। ये देवता नए नहीं थे, लेकिन इस काल में इनकी पूजा और उनके मिथक नए रूप में सामने आए।
भक्ति का विकास: भक्ति का अर्थ किसी विशेष ईष्टदेव (शिव, विष्णु, शक्ति) के प्रति गहरी श्रद्धा और समर्पण से था। त्रिदेव - ब्रह्मा (सृजनकर्ता), विष्णु (पालक) और शिव (संहारक) का पूजन एक सामान्य देवकुल के रूप में किया गया।
विष्णु और दशावतार: विष्णु के दशावतार की अवधारणा ने विभिन्न पूजा पद्धतियों को जोड़ा। वासुदेव-कृष्ण का अवतार सबसे लोकप्रिय हुआ, और भगवद् गीता का प्रभाव बढ़ा।
मूर्ति और मंदिर पूजा: पूजा में पुष्प, फल, कपूर का उपयोग किया जाने लगा। मूर्तिपूजा और मंदिरों में पूजा की परंपरा बढ़ी, जिससे धार्मिक स्थायित्व मिला। शिवलिंग और विभिन्न देवताओं की मूर्तियाँ मथुरा, बेसनगर आदि जगहों पर पाई गईं।
बौद्ध धर्म में महायान संप्रदाय: महायान में बोधिसत्त्व की भक्ति का महत्व रहा, जो दूसरों के कल्याण के लिए निर्वाण का त्याग करते थे। बुद्ध और बोधिसत्त्व की मूर्तिपूजा आरंभ हुई, और बौद्ध साहित्य में संस्कृत का प्रचलन बढ़ा।
महायान और कनिष्क का संरक्षण: कनिष्क ने महायान का प्रसार किया और कश्मीर में महापरिषद का आयोजन किया। महायान संप्रदाय में अवलोकितेश्वर, मैत्रेय जैसे बोधिसत्त्व की पूजा शामिल हुई।
जैन धर्म का विभाजन: जैन धर्म में दिगंबर (वस्त्र त्याग का पालन) और श्वेतांबर (श्वेत वस्त्र धारण) दो संप्रदाय बने। दिगंबर दक्षिण भारत में, जबकि श्वेतांबर पश्चिम भारत में प्रमुख हुए।
मंदिर संस्कृति का विकास: मंदिर और अनुष्ठानों का विकास हुआ, जिसमें किसी मध्यस्थ मठवासी पुरोहित वर्ग का समावेश नहीं था। कंकाली टीला (मथुरा) और उदयगिरि-खांडगिरि (उड़ीसा) जैसे स्थान मंदिर संस्कृति के प्रमुख केंद्र बने।
साहित्य
मौर्योत्तर काल भारतीय साहित्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण काल था, जहाँ धार्मिक, दार्शनिक, तकनीकी, और सर्जनात्मक साहित्य की रचनाएँ हुईं। इस काल के दौरान महाकाव्यों, धर्मशास्त्रों, दार्शनिक ग्रंथों और चिकित्सा-विज्ञान से संबंधित कृतियों की रचना की गई, जो भारतीय सांस्कृतिक धरोहर का अभिन्न हिस्सा बन गईं। इस काल में रचित साहित्य ने भारतीय समाज, धर्म और दर्शन को न केवल प्रभावित किया बल्कि समृद्ध भी किया।
महाकाव्य और धर्मशास्त्र: इस काल में महाभारत (ईसा पूर्व 400 से 400 ई.स. तक) और रामायण (ईसा पूर्व 500 से 300 ई.स. तक) जैसे महान महाकाव्य रचे गए। ये काव्य भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा बन गए और जीवन के मूल्यों, धर्म, राजनीति, और समाज के सिद्धांतों को स्पष्ट करते हैं। इसके अलावा, इस काल में धर्मशास्त्रों का संकलन भी हुआ, जिनमें मनुस्मृति, नारदस्मृति, और याज्ञवल्क्यस्मृति प्रमुख हैं, जिनमें वर्णाश्रमधर्म के सिद्धांतों का विस्तृत रूप से वर्णन है। ये ग्रंथ सदियों तक ब्राह्मण समाज के धार्मिक और सामाजिक आचार-विचार का आधार बने।
दर्शनशास्त्र और तर्कशास्त्र: मौर्योत्तर काल में भारतीय दर्शन के शास्त्रीय विद्यालयों की रचना हुई। इस समय में मीमांसा के सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हुए जैमिनी ने मीमांसासूत्र की रचना की, जिसमें वैदिक अनुष्ठानों को धर्म का मूल रूप माना गया। साथ ही ब्रह्मसूत्र की रचना बादरायण ने की, जो वेदांत दर्शन का आधार बन गया और ब्रह्म और आत्मा के संबंधों की विवेचना करता है। कणाद द्वारा रचित वैशेषिकसूत्र में पदार्थवाद (विशेषवादी वस्तुवाद) को प्रस्तुत किया गया। इसके अलावा, गौतम ने न्यायसूत्र की रचना की, जो तर्क और विवेचन की विधि पर आधारित था और पतंजलि ने योगसूत्र लिखा, जिसमें शारीरिक और मानसिक साधनाओं के माध्यम से मुक्ति की प्रक्रिया का वर्णन किया गया।
बौद्ध और जैन साहित्य: मौर्योत्तर काल में बौद्ध धर्म और जैन धर्म दोनों में बदलाव हुए। बौद्ध धर्म में महायान विचारधारा का उदय हुआ, जो हीनयान से पूरी तरह भिन्न थी। इस समय में बौद्ध साहित्य में संस्कृत का अधिक प्रयोग होने लगा, और बुद्धचरित और सौंदरानंद जैसे ग्रंथों की रचना हुई। अश्वघोष ने बुद्धचरित में बुद्ध के जीवन का विस्तृत वर्णन किया। साथ ही, बौद्ध धर्म में बोधिसत्त्व की पूजा की शुरुआत हुई, जो स्वयं मुक्ति प्राप्त कर दूसरों के लिए संसार में रहने का संकल्प करता है। जैन धर्म में भी इस समय में महत्वपूर्ण विकास हुआ, और यह दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदायों में विभाजित हो गया। दोनों संप्रदायों में मुख्य अंतर मठवासीय आचार को लेकर था। इस समय में जैन साहित्य में भी वृद्धि हुई और जैन धर्म के सिद्धांतों का विस्तार हुआ।
तकनीकी और अन्य शास्त्र: इस काल में कई तकनीकी और विज्ञान से संबंधित ग्रंथ भी रचे गए। पाणिनी के व्याकरण पर आधारित अष्टाध्यायी और पतंजलि द्वारा रचित महाभाष्य ने संस्कृत के व्याकरण को स्पष्ट किया। इसके अलावा, छंदसूत्र नामक ग्रंथ में छंद और काव्य रचनाओं की शास्त्रगत व्याख्या की गई। आर्थशास्त्र के कुछ अंश भी इस काल में लिखे गए, जिसमें चाणक्य ने राज्य प्रशासन, राजनीति, और समाज व्यवस्था पर गहरी चर्चा की थी।
चिकित्सा और शल्य चिकित्सा: इस काल में चिकित्सा शास्त्र में भी महत्वपूर्ण कृतियाँ रची गईं। चरक संहिता और सुश्रुत संहिता जैसे ग्रंथों में मानव शरीर, रोगों, और उपचार के विस्तृत विवरण दिए गए हैं। इन ग्रंथों में पशु चिकित्सा और मानसिक रोगों का भी विश्लेषण किया गया था। इन ग्रंथों के माध्यम से चिकित्सा के क्षेत्र में उन्नति की दिशा स्पष्ट हुई।
काव्य और नाटक: मौर्योत्तर काल में काव्य और नाटक लेखन में भी एक नया मोड़ आया। अश्वघोष द्वारा रचित बुद्धचरित और सौंदरानंद ने न केवल बौद्ध धर्म को साहित्य में प्रस्तुत किया, बल्कि इस समय के काव्य साहित्य में धार्मिक, नैतिक और सामाजिक पहलुओं का समावेश किया। इसी तरह, भास द्वारा लिखे गए 13 नाटक, जैसे स्वप्नवासवदत्तम, कर्णमारम्, और अविमारक, ने नाटक लेखन के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया।
उपन्यास और जीवनचरित: इस काल में कुछ प्रमुख उपन्यास और जीवनचरित भी रचे गए, जिनमें सामाजिक, नैतिक और धार्मिक विषयों का समावेश था।
कला और स्थापत्य
मौर्योत्तर काल भारतीय कला और स्थापत्य के लिए एक महत्वपूर्ण युग था। इस काल में कला ने धार्मिक और सांस्कृतिक आदर्शों को परिभाषित किया और भारतीय स्थापत्य कला में नए रूप और विधियाँ विकसित हुईं।
संरचनात्मक कला और धार्मिक स्थापत्य: मौर्योत्तर काल की कला मुख्य रूप से धार्मिक थी और यह स्थायी धार्मिक संरचनाओं, जैसे तोरण द्वार, स्तूप, चैत्य, विहार और मंदिरों की वास्तुकला पर आधारित थी। इस समय की कला में विशेष रूप से आख्यानात्मक और मिथकीय चित्रण था, जिसमें देवताओं और आधे-दैवी प्राणियों के कृत्य और मिथकों का चित्रण किया गया था। इन स्थलों पर चिन्हों और प्रतीकों का भी उपयोग किया गया था।
ब्राह्मणपंथी मंदिर और मूर्तिकला: इस काल में प्रारंभिक ब्राह्मणपंथी मंदिर और मूर्तिकला का भी विकास हुआ। विष्णु मंदिर (विदिशा, ईसा पूर्व तीसरी सदी), लक्ष्मी मंदिर (अत्रांजिश्वेर, 200-50 ई. पूर्व), और शिव मंदिर (नागार्जुनकोंड) इसके उदाहरण हैं। इन मंदिरों में देवताओं के मूर्तिपूजन के रूप में धर्म की स्थायिता और सस्थानीकरण की प्रक्रिया दिखाई देती है। विष्णु, शिव और अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियों की पूजा की जाने लगी। विशेष रूप से महिषासुर मर्दिनी जैसी शक्तिशाली मूर्तियाँ इस काल की प्रमुख कृतियाँ थीं।
बौद्ध स्थापत्य का उत्थान: मौर्योत्तर काल बौद्ध स्थापत्य का स्वर्णकाल था। इस काल में उपमहाद्वीप के प्रत्येक भाग में बौद्ध स्तूपों, चैत्यों और विहारों का निर्माण किया गया। साँची, भारहुत और तक्षशिला के स्तूप सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। इन स्तूपों की सजावट में जातक कथाएँ, त्रिरत्न के प्रतीक, और यक्षों की मूर्तियाँ प्रमुख रूप से पाई जाती हैं।
शैल कटौती और गुफाएँ: मौर्योत्तर काल में शैल काटकर बनाई गई गुफाओं की संख्या में भी वृद्धि हुई। नासिक, कार्ले, कन्हेरी, और बेदसा जैसी गुफाओं में चैत्य और विहारों का निर्माण किया गया था। इन गुफाओं में पूजा की स्थल और मठवासियों के लिए विश्रामगृह बनाए गए थे। आंध्र प्रदेश में भी इस काल के कई महत्वपूर्ण बौद्ध प्रतिष्ठान पाए गए, जैसे अमरावती और नागार्जुनकोंड।
गांधार और मथुरा शैली: मौर्योत्तर काल में गांधार और मथुरा शैलियाँ प्रमुख रूप से विकसित हुईं। गांधार शैली में ग्रीक-रोमन प्रभाव साफ दिखाई देता है, जिसमें बुद्ध की मूर्तियाँ त्रीआयामी, लहरदार बालों और तीखे नाक-नक्श के साथ दिखती हैं। मथुरा शैली में स्थानीय लाल और चितकबरे बालुकाश्म का प्रयोग हुआ, और मूर्तियाँ अधिक मांसल और भारी काया वाली थीं। इन मूर्तियों में स्पष्ट रूप से जातक कथाएँ और अन्य धार्मिक चित्रण मिलते हैं।
सांस्कृतिक आदान-प्रदान और स्थापत्य: मौर्योत्तर काल में भारतीय कला और स्थापत्य में विदेशी प्रभावों का भी समावेश हुआ, खासकर यूनानी, फारसी और मध्य एशियाई संस्कृतियों से। यह प्रभाव विशेष रूप से गांधार शैली में देखने को मिला, जहां भारतीय धार्मिक प्रतीक और ग्रीक-रोमन शैली का मिश्रण था।