मौर्य साम्राज्य की जानकारी के स्रोत
मौर्य काल का अध्ययन कई स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर आधारित है, जो उस समय की राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक स्थितियों पर प्रकाश डालते हैं।
- ग्रीक और रोमन वृत्तांत: सबसे प्रमुख स्रोत मेगस्थनीज का 'इंडिका' है, जो चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में सेल्यूकस निकेटर का राजदूत था। उसके कुछ विवरण ग्रीक और रोमन लेखकों के वृत्तांतों में मिलते हैं। अन्य ग्रीक राजदूतों में डायमेकस और डायोनिअस जैसे नाम शामिल हैं, जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप की भौगोलिक और राजनीतिक जानकारी प्रदान की है।
- जैन और बौद्ध साहित्य: जैन ग्रंथ 'जैन कल्पसूत्र' से चंद्रगुप्त मौर्य के जीवन और मौर्य वंश के बारे में जानकारी मिलती है। बौद्ध ग्रंथों जैसे 'दिव्यवदन', 'ललिताविस्तर', 'महावस्तु', और जातक कथाओं से उस काल की सामाजिक और धार्मिक जानकारी प्राप्त होती है। श्रीलंका के पालि इतिवृत्त 'दीपवंश' और 'महावंश' भी मौर्यकालीन भारत पर प्रकाश डालते हैं।
- कौटिल्य का 'अर्थशास्त्र' और विशाखदत्त का 'मुद्राराक्षस': 'अर्थशास्त्र', जो चाणक्य (कौटिल्य) द्वारा लिखा गया माना जाता है, मौर्यकालीन शासन व्यवस्था का गहन विवरण देता है। विशाखदत्त का नाटक 'मुद्राराक्षस' नंदों और मौर्य साम्राज्य के आरंभिक इतिहास पर आधारित है।
- अशोक के शिलालेख और स्तंभ: अशोक के शिलालेख उसकी धार्मिक नीति (धम्म), प्रशासनिक प्रणाली, और सार्वजनिक संदेशों का एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं। ये शिलालेख अशोक के साम्राज्य का एक महत्वपूर्ण राजनीतिक और धार्मिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं।
मौर्यों का प्रशासन
मौर्यकालीन प्रशासनिक व्यवस्था, अपने समय की सबसे संगठित और जटिल व्यवस्थाओं में से एक थी, जो विभिन्न स्रोतों जैसे कि ग्रीक, जैन, बौद्ध साहित्य, अर्थशास्त्र और अशोक के शिलालेखों से ज्ञात होती है। इसमें केंद्रीय प्रशासन, नगर व्यवस्था, सेना, गुप्तचर प्रणाली और न्यायिक व्यवस्था का विशिष्ट स्थान था।
1. केंद्रीय प्रशासन
- राजा: मौर्य प्रशासन के शीर्ष पर राजा होता था, जिसे सत्ता का मुख्य संचालक माना जाता था। राजा का प्राथमिक कर्तव्य सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखना, अपराधियों को दंड देना और शांति स्थापित करना था। कौटिल्य के अनुसार, राजा का सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक अनुष्ठान प्रशासनिक कार्य और उसकी सबसे बड़ी दानशीलता सबके प्रति समान व्यवहार था। राजा को आदर्श प्रस्तुत करना था, और उनकी प्रजा उनके बच्चों की भांति थी।
- मंत्री परिषद: मेगास्थनीज के अनुसार, राजा की सहायता के लिए एक मंत्री परिषद थी। परिषद में विवेकशील लोग होते थे जो प्रशासन के महत्वपूर्ण विषयों पर राजा को सलाह देते थे। मंत्री परिषद राजा की स्वेच्छाचारिता को नियंत्रित करती थी। प्रमुख अधिकारियों में मंत्री, पुरोहित, सेनापति, युवराज, और अध्यक्ष शामिल थे। मंत्री परिषद के सदस्य राजा की सहायता करते थे और विभिन्न कार्यों का निर्वहन करते थे, जैसे कि कृषि, व्यापार, खनन, और दस्तकारी पर नियंत्रण।
- नगर प्रशासन: नगर प्रशासन तीस सदस्यों वाले आयोग के अधीन था, जिसमें छह परिषदें थीं। प्रत्येक परिषद का अपना आवंटित विभाग था, जैसे कि उद्योग और शिल्प, विदेशी सुरक्षा, जन्म-मृत्यु का पंजीकरण, बिक्री का विनियमन, निर्मित सामानों की जाँच और कर वसूली। समाहर्ता मूल्यांकन का सर्वोच्च पदाधिकारी होता था।
- सेना: मौर्य साम्राज्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा उसकी विशाल सेना थी। सेना में चार प्रमुख विभाग थे: हाथी, रथ, घुड़सवार, और पैदल सेना। सेना के रख-रखाव के लिए राजस्व का बड़ा हिस्सा खर्च किया जाता था। सेना की दक्षता में मौर्यों की कूटनीति का भी बड़ा योगदान था। गुप्तचर प्रणाली से शत्रु की योजनाओं की जानकारी रखी जाती थी, जो युद्ध में सहायता प्रदान करती थी।
- गुप्तचरी: मौर्य प्रशासन में गुप्तचर प्रणाली अत्यंत प्रभावी थी। राजा हमेशा विभिन्न स्तरों के गुप्तचर नियुक्त करते थे। गुप्तचर तीन प्रकार के होते थे: उच्च, निम्न, और मध्यम। विशेष अभिकर्ता या समाचार लेखक चरित्र के आधार पर नियुक्त किए जाते थे। गुप्तचरी में महिलाओं की भूमिका का भी अर्थशास्त्र में उल्लेख है। अशोक ने प्रतिवेदकों को नियुक्त किया, जो जनसाधारण से जुड़े मामलों की जानकारी राजा को देते थे।
- विधि और न्याय: मौर्य न्याय प्रणाली में दो मुख्य प्रकार के न्यायालय थे: धर्मास्थीय और कंटक-शोधन। धर्मास्थीय न्यायालय सामाजिक, विवाह, विरासत, जलाधिकार, कर्ज, और संपत्ति के विवादों का निपटारा करते थे। कंटक-शोधन न्यायालय राज्य और समाज को समाज-विरोधी तत्वों से सुरक्षा प्रदान करने के लिए स्थापित थे। न्याय प्रणाली में कठोर दंड प्रचलित थे। राजा न्याय प्रणाली में सर्वोपरि था, और यूनानी लेखकों के अनुसार, झूठी गवाही पर अंगभंग और कुछ मामलों में अपराधी का मुंडन किया जाता था। अपराध स्वीकार करवाने के लिए यातना भी दी जाती थी।
2. प्रांतीय प्रशासन
- मौर्य साम्राज्य का प्रांतीय प्रशासन विकेंद्रीकृत था। साम्राज्य को चार प्रमुख विभागों में विभाजित किया गया था, जिनकी राजधानियाँ पाटलिपुत्र (मुख्य केंद्र), तक्षशिला (उत्तर-पश्चिम), उज्जैन (पश्चिम), सुवर्णगिरि (दक्षिण), और तोसली (पूरब) थीं।
- प्रत्येक विभाग का नेतृत्व वायसराय करता था, जो अक्सर राजा का कोई संबंधी होता था। वायसराय के अधीन प्रांतों का विभाजन किया गया, जिनके प्रमुख प्रादेशिक अधिकारी थे।
- अशोक के शिलालेखों और अन्य स्रोतों से पता चलता है कि ये अधिकारी राजकीय न्यायालयों और प्रशासन का संचालन करते थे। अशोक ने अपने अधिकारियों को ईमानदारी और न्यायप्रियता का पालन करने का निर्देश भी दिया था।
3. स्थानीय प्रशासन
मौर्य साम्राज्य में स्थानीय प्रशासन को छोटे-छोटे प्रशासनिक इकाइयों में विभाजित किया गया था:
- जिला और तहसील स्तर: प्रांतों को जिलों और तहसीलों में बाँटा गया, जिसमें 100 गांवों का समूह सिंहानिक के अंतर्गत और 5-10 गांवों का समूह गोप के अधीन होता था। इनके अंतर्गत युक्त और रज्जुक जैसे कर्मचारी थे, जो राजस्व वसूली और सामान्य प्रशासन में लगे थे।
- ग्राम स्तर: गाँव प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी, जिसमें अर्ध-स्वायत्तता थी। गाँव प्रतिरक्षा, अनुशासन, कृषि, राजस्व भुगतान, भूमि और जल अधिकार जैसे मामलों का स्वतंत्र रूप से निर्णय कर सकते थे। गाँव में नेतृत्व ग्रामणी के पास होता था, जो गाँव के वरिष्ठों में से चुना जाता था और छोटे विवादों को सुलझाने में सरकारी अधिकारियों की सहायता करता था।
मौर्यकालीन भारत का सामाजिक-आर्थिक ढांचा
1. मौर्य अर्थव्यवस्था
मौर्य साम्राज्य की अर्थव्यवस्था में लोहे की खोज और प्रौद्योगिकी का आगमन एक बड़ी क्रांति थी, जिसने कृषि, व्यापार, और नगर विकास में वृद्धि की। मौर्यकाल में अर्थव्यवस्था के मुख्य पहलू इस प्रकार थे:
- कृषि और सिंचाई: लोहे के उपयोग ने जंगलों की सफाई और गहरी जुताई को आसान बना दिया, जिससे गंगा-जमुना की उपजाऊ घाटी में कृषि का विस्तार हुआ। सिंचाई के लिए नहरें, तालाब और कुंड बनाए गए। चंद्रगुप्त ने गिरनार क्षेत्र में सिंचाई के लिए बांध बनवाया, और जल कर की व्यवस्था की गई।
- व्यापार और वाणिज्य: गंगा के जलमार्गों और व्यापारिक मार्गों के माध्यम से स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि हुई। प्रमुख नगर जैसे वाराणसी, श्रावस्ती, और चंपा व्यापार केंद्र बने, जो महाजनपदों के विकास में सहायक रहे। व्यापार मार्गों ने चंपा को तक्षशिला से जोड़ा, जो भारतीय वस्त्रों का वितरण केंद्र बन गया।
- शिल्प और कर प्रणाली: राज्य ने कवच, जहाज आदि बनाने वाले शिल्पकारों को संरक्षण दिया। सभी वस्तुओं पर कर लगाया जाता था, और उत्पादों की गुणवत्ता जांची जाती थी। उत्पादन लागत, मांग, और आपूर्ति पर आधारित मूल्य निर्धारण वाणिज्य अधीक्षक द्वारा होता था।
2. मौर्य राजनीति, अर्थव्यवस्था और समाज के बीच संबंध
मौर्य शासन व्यवस्था में राजनीति, अर्थव्यवस्था, और समाज का घनिष्ठ संबंध था, जो एक मजबूत और संगठित साम्राज्य का आधार बना। इस संबंध के प्रमुख पहलू निम्नलिखित थे:
- सशक्त राजनीतिक नियंत्रण: मौर्य साम्राज्य की स्थिरता एक बड़ी और संगठित सेना पर निर्भर थी, जिसके लिए कर संग्रह और आर्थिक संसाधन महत्वपूर्ण थे। इसने प्रशासन को केंद्रीकृत कर व्यवस्था अपनाने पर मजबूर किया।
- आय के विविध स्रोत: मौर्य शासकों ने कराधान के अतिरिक्त कृषि, उद्योग, व्यापार, और परिवहन को भी नियंत्रित कर राज्य की आय में वृद्धि की। इससे राज्य आर्थिक रूप से सशक्त हुआ।
- राज्य द्वारा आर्थिक विनियमन: कृषि और शिल्प का राज्य-नियंत्रण रोजगार बढ़ाने और कर वसूली में सहायक हुआ। उत्पादन और वितरण पर नियंत्रण के चलते आर्थिक गतिविधियाँ व्यवस्थित हुईं।
- समाज में संगठन: प्रशासनिक नियंत्रण ने समाज में वर्ग विभाजन को बढ़ावा दिया। किसान, व्यापारी, और शिल्पकार राज्य के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान देते हुए समाज के संगठित ढाँचे में जुड़े रहे।
3. मौर्यों की सामाजिक कृषि नीति
मौर्य शासन ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास में गहरी रुचि दिखाई और इसके लिए दोहरी नीति अपनाई।
- नए कृषक अधिवासों की स्थापना: मौर्यों ने नए किसान बस्तियों को बसाया और अधिवासियों को नए क्षेत्रों में बसने में सहायता दी। कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए शूद्रों को खेतिहर के रूप में बसने की अनुमति दी गई, जो पहले ऊँची जातियों की संपत्ति माने जाते थे और दास या श्रमिक के रूप में कार्य करते थे।
- परती भूमि का विकास: परती भूमि को कृषि योग्य बनाने के लिए राज्य ने करों में छूट, पशुधन, बीज, और मुद्रा की सहायता दी। सेवानिवृत्त अधिकारियों और पुरोहितों को भी नई भूमि बिना स्वामित्व अधिकार के दी गई। जो किसान अपनी जमीन का उपयोग ठीक से नहीं कर पाते थे, उनकी भूमि दूसरों को दी जाती थी।
- सिंचाई और श्रम: राज्य ने सिंचाई और जलापूर्ति की व्यवस्था की, जिससे गंगा घाटी के बड़े हिस्से को कृषि के अंतर्गत लाया जा सका। कृषि अधीक्षक इस व्यवस्था की देखरेख करते थे और दास तथा भाड़े के श्रमिकों के श्रम से खेतों की देखभाल की जाती थी।
4. व्यापार और उद्योग
- मौर्य साम्राज्य ने व्यापार और उद्योग को कई अधीक्षकों के माध्यम से व्यवस्थित किया। वाणिज्य अधीक्षक बाजार पर, तौल और माप अधीक्षक सही तौल-माप पर, और पोत अधीक्षक जल परिवहन और आवागमन शुल्क पर नजर रखते थे। कर अधीक्षक व्यापार पर सीमा शुल्क वसूलता था, जबकि बुनाई अधीक्षक और मद्य अधीक्षक क्रमशः बुनाई उद्योग और राज्य की शराब दुकानों का संचालन करते थे। नमक और मद्य का व्यापार राज्य के एकाधिकार में था।
- खनन और धातुकर्म मौर्य शासन की आर्थिक शक्ति का आधार था, जिसे खनन विशेषज्ञ अधीक्षक देखता था। सोना, चाँदी, ताँबा, और विशेष रूप से लोहे का कार्य अधिक खर्चीला था। खनन से प्राप्त धातुओं और खनिजों पर राज्य का एकाधिकार था। कौटिल्य के अनुसार, खनन से ही कोषागार भरता है, जिससे राज्य की शक्ति और भूमि पर अधिकार सुनिश्चित होता है।
5. कर प्रणाली
- मौर्य राज्य ने आय के कई स्रोत विकसित किए, जिसमें पारंपरिक और नए प्रकार के कर शामिल थे। किसानों से मुख्य कर उपज का 1/6 भाग था, जबकि बटाईदारों से 1/4 या 1/2 हिस्सा लिया जाता था। गाँवों के समूहों पर 'पिंड कर' वसूला जाता था और 'बलि' अब धार्मिक कर बन गया था। उद्यानों, सेना की रसद (सेनाभक्त), नकद (हिरण्य), और सिंचाई पर भी कर लगाए जाते थे। शहरी दस्तकारों के संघों और सीमा शुल्क पर भी कर वसूले जाते थे।
- राज्य के बढ़ते खर्चों के कारण 'आपदा प्रबंधन करों' का भी प्रावधान था, जिसमें एक बार किसानों पर अतिरिक्त कर लगाना और दूसरी फसल का हिस्सा लेना शामिल था। पतंजलि और कौटिल्य के अनुसार, देवताओं की प्रतिमाएँ स्थापित कर मुद्रा संग्रह भी होता था, और चाँदी के सिक्कों के माध्यम से कोषागार को भरने के प्रयास किए जाते थे।
- मौर्य राज्य की अर्थव्यवस्था वित्तीय आवश्यकताओं के अनुरूप थी, और कर माल के रूप में वसूले जाते थे। हालांकि, आधी आय कोषागार में जमा करने और सभी वस्तुओं पर कर लगाने की नीति से मौद्रिक अर्थव्यवस्था की प्रगति में कुछ बाधाएँ उत्पन्न हुईं।
सम्राट अशोक
- अशोक का आदर्श शासन: अशोक ने अपने शासन का आदर्श प्रजा के भौतिक और आध्यात्मिक कल्याण पर आधारित रखा। उनका उद्देश्य था कि लोग इस लोक और परलोक दोनों में सुखी रहें। उन्होंने शांति, नैतिकता और धर्म का संदेश फैलाने का कार्य किया और इसे अपने शासन का प्रमुख उद्देश्य माना।
- कलिंग युद्ध और पश्चाताप: कलिंग युद्ध के बाद अशोक ने भारी संख्या में मारे गए लोगों और बंदियों को देखकर गहरे पश्चाताप का अनुभव किया। युद्ध की विभीषिका ने उसे युद्ध की जगह धर्म को अपनाने की प्रेरणा दी। इसके बाद उसने अपने शासन में धर्म को सर्वोत्तम विजय के रूप में स्वीकार किया और अपने पुत्रों-पौत्रों को भी यह सलाह दी कि वे युद्ध की बजाय धर्म से विजय प्राप्त करने का प्रयास करें।
- धर्म और नैतिकता का प्रचार: अशोक ने शिलालेख XIII में अपनी मानसिकता का विस्तार करते हुए यह कहा कि उसने धर्म और नैतिकता के प्रचार के लिए हर संभव प्रयास किया ताकि वह जीवित प्राणियों के ऋण को चुका सके और उन्हें इस लोक में सुखी बना सके तथा परलोक में स्वर्ग प्राप्त करवा सके।
- प्राकृतिक जीवन के प्रति करुणा: अशोक ने युद्ध और हिंसा के खिलाफ कड़ा विरोध किया। उसने कलिंग युद्ध के बाद पशुबलि और अन्य जीवों की हत्या पर रोक लगाई। उसने शिलालेख-1 में एक आचार संहिता बनाई, जिसके तहत पशु-पक्षियों के साथ होने वाली हिंसा पर पाबंदी लगाई। वह मानते थे कि सभी प्राणियों का भौतिक और आध्यात्मिक कल्याण होना चाहिए।
- विश्व कल्याण का संदेश: अशोक का उद्देश्य केवल भारत तक सीमित नहीं था; उन्होंने संपूर्ण ज्ञात विश्व के स्तर पर मानव और अन्य जीवों के भौतिक और आध्यात्मिक कल्याण के लिए प्रयास किया। डी. आर. भंडारकर के अनुसार, अशोक का लक्ष्य संपूर्ण दुनिया के लिए शांति और कल्याण सुनिश्चित करना था।
अशोक का धम्म
- धर्म का सार्वभौमिक दृष्टिकोण: अशोक का धम्म किसी एक विशेष धर्म तक सीमित नहीं था। यह सभी धर्मों के सार और नैतिक सिद्धांतों का मिश्रण था। उसने समाज के विभिन्न संप्रदायों और वर्गों को एकसूत्र में जोड़ने की कोशिश की, साथ ही शांति और सार्वभौम भ्रातृत्व को बढ़ावा दिया।
- अशोक का धम्म और बौद्ध धर्म: विद्वानों में मतभेद है कि अशोक का धम्म बौद्ध धर्म से प्रेरित था या नहीं। हालांकि, यह स्पष्ट है कि अशोक के धम्म में बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धांत जैसे चार आर्य सत्य, अष्टांग मार्ग, प्रतीत्य समुत्पाद या निर्वाण का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। इसलिए, इसे बौद्ध धर्म से नहीं जोड़ सकते।
- सामान्य नैतिक सिद्धांतों का समावेश: अशोक के धम्म में सभी धर्मों के सामान्य नैतिक सिद्धांतों को समाहित किया गया था। इसका उद्देश्य समाज के विभिन्न धार्मिक और सामाजिक संप्रदायों को एकजुट करना था और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को प्रोत्साहित करना था।
- धम्म का उद्देश्य: अशोक का धम्म मानवता के उच्च आदर्शों और नैतिकता के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए था। उसने इसे एक व्यापक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया, जिसमें सभी प्राणियों का कल्याण और समाज में शांति की स्थापना पर जोर दिया गया।
1. अशोक के शिलालेखों में धम्म
अशोक के शिलालेखों में धम्म का सार व्यापक और सार्वभौमिक नैतिक सिद्धांतों पर आधारित है, जो सभी धर्मों के मूल्यों को समाहित करते हैं। अशोक ने अपने फरमानों में कई महत्वपूर्ण सद्गुणों का वर्णन किया जो प्रजा को नैतिक जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं।
धम्म के मुख्य सिद्धांत:
- साधुता: शांति और संयम।
- अपासिनवम: पाप से मुक्ति, बुराई से बचना।
- दया: सभी प्राणियों के प्रति करुणा।
- दानम: उदारता और दानशीलता।
- सत्यम: सत्य का पालन करना।
- शौचम: पवित्रता और स्वच्छता।
- मार्दवम: मृदुलता और विनम्रता।
- संयम: आत्म नियंत्रण और संयम।
- धर्मरति: नैतिकता और धर्म के प्रति लगाव।
अशोक के स्तंभ लेख 1 में उनके धम्म के मुख्य तत्त्व और नैतिक आदर्शों का वर्णन है, जो उनके राज्य और प्रजा के कल्याण के उद्देश्य से स्थापित किए गए थे। इन तत्त्वों में कई महत्वपूर्ण गुण और सिद्धांत शामिल हैं:
- प्राणानाम अनारंभ: सभी जीवित प्राणियों के वध से परहेज, यानी अहिंसा का पालन करना।
- अहिंसा: सभी प्राणियों के प्रति दया और अहिंसा का भाव रखना।
- सुश्रुसा: माता-पिता और गुरुओं का आज्ञापालन करना, उन्हें सम्मान देना।
- अपचिति: शिष्यों द्वारा अपने गुरु का आदर करना और उन्हें सम्मान देना।
- सम्प्रतिपत्ति: ब्राह्मणों, श्रमणों, संबंधियों और परिचितों के प्रति उचित व्यवहार करना।
- दानम: ब्राह्मणों, श्रमणों, मित्रों और वृद्धों के प्रति उदारता और सहायता प्रदान करना।
- मितव्ययिता: साधारण जीवन शैली अपनाना और फिजूलखर्ची से बचना।
- संयम: बचत में संयम बरतना और अपनी आवश्यकताओं को नियंत्रित रखना।
2. अशोक के शिलालेखों में धम्म
- धम्म के सिद्धांत: साधुता, दया, अहिंसा, सत्यम, संयम, मार्दवम (मृदुलता) जैसे नैतिक गुणों को प्रमुखता दी गई।
- व्यावहारिक आचार संहिता: प्राणों की रक्षा, अहिंसा, माता-पिता का आदर, दानम, और मितव्ययिता जैसे आचार का पालन।
- धर्म विजय: धर्म विजय को सच्ची विजय माना, जिसमें आत्म-परीक्षण और आत्म-उद्यम को महत्वपूर्ण माना गया।
- सहिष्णुता और धर्मों का सम्मान: सहिष्णुता को बढ़ावा दिया, अपने धर्म की प्रशंसा करते हुए दूसरों के धर्म की निंदा से बचने की सलाह दी।
- धर्म का सार्वभौमिक दृष्टिकोण: अशोक का धम्म सभी धर्मों की समानताओं पर आधारित था, जिसका उद्देश्य शांति, समानता, और सहिष्णुता को बढ़ावा देना था।
अशोक का बाह्य संबंधों में धर्म का प्रचार