भारतीय समाज को व्यवस्थित और नियमबद्ध करने के लिए वेद, पुराण, उपनिषद, स्मृति और संहिता जैसे ग्रंथों की रचना की गई। इनमें से स्मृतियां, जो मानव रचित मानी जाती हैं, श्रुति से अलग हैं। भारत में 18 स्मृतियां मानी गई हैं, जिनमें मनुस्मृति प्रमुख है। इसे महर्षि मनु द्वारा रचित और सबसे प्राचीन स्मृति माना जाता है। मनुस्मृति में राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक सिद्धांत दिए गए हैं, जो समयानुसार प्रासंगिक रहे हैं। मनु को ब्रह्मा का मानस पुत्र और नियमों व कानूनों का संस्थापक कहा गया है।
मनुस्मृति
मनुस्मृति हिंदू धर्म के विधि-विधान, समाज और राजनीति का आधार ग्रंथ है। इसके रचनाकाल और मनु की पहचान को लेकर मतभेद हैं। माना जाता है कि भारतीय इतिहास में 14 मनु हुए, जिनमें नियम और कानून बनाने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया गया।
- रचनाकाल और योगदान: मनुस्मृति की रचना का समय 300 ई.पू. से 200 ई.पू. माना जाता है। डॉ. वी.सी. सरकार इसे 150 ई.पू., जबकि मैक्समूलर चौथी शताब्दी में और डॉ. हंटर 600 ई.पू. की रचना मानते हैं।मनुस्मृति की मूल प्रति उपलब्ध नहीं है। वर्तमान में प्रचलित प्रति 15वीं शताब्दी में कुलक भट्ट ने संकलित की।
- मनुस्मृति का महत्व: यह पहला संस्कृत ग्रंथ था, जिसका अंग्रेजी में अनुवाद 1794 में सर विलियम जोन्स ने किया। मनुस्मृति में 12 अध्याय और लगभग 2694 श्लोक हैं।
मुख्य विषय
- अध्याय 1: सृष्टि की उत्पत्ति।
- अध्याय 2: संस्कार और व्रत।
- अध्याय 3: श्राद्ध।
- अध्याय 4: जीवन यापन के नियम।
- अध्याय 5: खाने-पीने के नियम।
- अध्याय 6: चार आश्रम।
- अध्याय 7: राजधर्म।
- अध्याय 8: शासन व्यवस्था।
- अध्याय 9: स्त्री-पुरुष के कर्तव्य।
- अध्याय 10: वर्ण व्यवस्था।
- अध्याय 11: प्रायश्चित।
- अध्याय 12: मोक्ष।
मनु का राजनीतिक चिंतन
1. राज्य की उत्पत्ति का दैवीय सिद्धांत
मनुस्मृति के सातवें अध्याय में राज्य और राजा की उत्पत्ति को दैवीय सिद्धांत से जोड़ा गया है। इसके अनुसार, राज्य और राजा दोनों को ईश्वर की ओर से एक दिव्य संस्था माना गया है।
राजा की उत्पत्ति: मनु और बृहस्पति के अनुसार, राजा का निर्माण ईश्वर ने आठ प्रमुख देवताओं के अंश से किया। ये देवता हैं: इन्द्र,वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, कुबेर राजा में इन देवताओं का अंश होने से, वह देवताओं से भी ऊँचा और परम देवता माना जाता है। राजा को पाँच रूपों में देखा जाता है:
- अग्नि: क्रोध और तेज के साथ दूसरे को तृप्त करने पर।
- इन्द्र: शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने पर।
- सोम: शालीनता से जनता से बात करने पर।
- यम: न्याय करने के कारण।
- कुबेर: अभावग्रस्तों को सम्पन्नता देने पर।
2. राज्य की आवश्यकता: मनु के अनुसार, जब कोई राजा नहीं था, तो समाज में अराजकता और भय फैल चुका था। शक्तिशाली लोग निर्बल लोगों की संपत्ति लूट लेते थे और न्याय की कोई व्यवस्था नहीं थी। इस अराजकता को दूर करने के लिए ईश्वर ने राजा की उत्पत्ति की।
3. राजा का महत्व: राजा को समाज में व्यवस्था और सुरक्षा बनाए रखने के लिए परम दैवीय कर्तव्य सौंपा गया है। यदि राजा छोटा या बालक हो, तो भी उसका सम्मान किया जाना चाहिए, क्योंकि उसका अपमान देवता का अपमान माना जाता है।
4. राजा के कर्तव्य: राजा को अपनी प्रजा की रक्षा करनी चाहिए और न्याय के आधार पर समाज में उचित दंड देने चाहिए। मनु के अनुसार, राज्य दैवीय दंड विधान के अधीन है और राजा का कर्तव्य है कि वह इस दंड का पालन करे। यदि राजा कर वसूलने के बावजूद समाजिक कल्याण में ध्यान नहीं देता, तो वह नर्क का भागी होता है।
इस प्रकार, मनुस्मृति के दैवीय सिद्धांत में राजा का कार्य सिर्फ शासन नहीं, बल्कि समाज की सुरक्षा और न्याय स्थापित करना भी है।
2. सप्तांग राज्य संरचना का सिद्धांत
मनु द्वारा प्रतिपादित सप्तांग राज्य सिद्धांत भारतीय राज दर्शन में अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसके अनुसार, राज्य को एक शरीर की तरह माना गया है, जिसमें सात अंग होते हैं। ये अंग राज्य की संरचना और कार्यों को सुनिश्चित करते हैं। मनुस्मृति के श्लोक 9.294 में इन सात अंगों का वर्णन किया गया है:
- स्वामी (राजा)– राजा को राज्य की सभी शक्तियां प्राप्त होती हैं और वह राज्य की एकता व अखंडता का संरक्षण करता है।
- अमात्य (मंत्री)– मंत्री राजा के साथ मिलकर शासन का संचालन करते हैं और शक्तियों का दुरुपयोग रोकते हैं।
- पुर (राजधानी)– राज्य की राजधानी को सुरक्षित और दुर्गम स्थान पर बनाना चाहिए, ताकि शत्रु हमला न कर सकें।
- राष्ट्र (जनपद)– राज्य के भीतर भूमि और जनता का समुचित प्रबंध होना चाहिए।
- कोष– राज्य के सभी कल्याणकारी कार्यों के लिए धन का प्रबंधन आवश्यक है।
- दंड– राज्य की रक्षा के लिए सेना की आवश्यकता होती है, जो राज्य की सुरक्षा सुनिश्चित करती है।
- मित्र (सहयोगी)– राज्य को अन्य देशों के साथ मित्रता और सहयोग की नीति अपनानी चाहिए।
इन सभी अंगों का सही कार्यान्वयन राज्य की सफलता और संरचना के लिए आवश्यक है। मनु के इस सिद्धांत में राजनीति, प्रशासन, और विदेश नीति के महत्वपूर्ण पहलुओं की पहचान की गई है, जो आज भी प्रासंगिक हैं।
राज्य के अनिवार्य कार्य
- आंतरिक और बाह्य सुरक्षा: राज्य का प्रमुख कार्य प्रजा को आंतरिक खतरों जैसे चोर, डाकू और षड्यंत्रों से बचाना है। इसके साथ ही बाहरी शत्रुओं के आक्रमण से देश की रक्षा करना भी राज्य का महत्वपूर्ण दायित्व है।
- न्याय व्यवस्था: राज्य नागरिकों के अधिकारों और सामाजिक नियमों की रक्षा करता है। इसमें भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों को दंडित करना और पारस्परिक विवादों का निपटारा करना शामिल है।
- सामाजिक शांति: समाज में कानून और व्यवस्था बनाए रखना राज्य का कर्तव्य है। साथ ही, यह सभी वर्गों से उनके कर्तव्यों का पालन करवाने का प्रयास करता है ताकि समाज में शांति बनी रहे।
- राजकोष का प्रबंधन: राज्य कर वसूली और कोष की वृद्धि के लिए उत्तरदायी होता है। साथ ही, राज्य के धन और संसाधनों का न्यायसंगत उपयोग सुनिश्चित करना भी इसका कार्य है
- भ्रष्टाचार पर नियंत्रण: राज्य को भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि राज्य के कर्मचारी अपनी जिम्मेदारियों के प्रति जवाबदेह रहें।
राज्य के ऐच्छिक कार्य
- शिक्षा और दान: राज्य का कार्य शिक्षा की व्यवस्था करना और समाज के जरूरतमंदों, विशेषकर ब्राह्मणों और अन्य गरीबों को दान देना है। यह समाज में समानता और विकास को बढ़ावा देता है।
- सामाजिक कल्याण: राज्य का उद्देश्य अपंगों, स्त्रियों, और बच्चों की सहायता करना है, ताकि उनके जीवन स्तर में सुधार हो सके। इसके अलावा, राज्य बाजारों के मूल्य नियंत्रित करने और वस्तुओं की आपूर्ति सुनिश्चित करने का कार्य भी करता है, जिससे समाज में समानता बनी रहे।
- जन सुविधाएं: राज्य सार्वजनिक स्थानों का निर्माण और उनकी देखरेख करता है ताकि नागरिकों को सुविधाएं मिल सकें। इसके साथ ही, मनोरंजन के साधनों की व्यवस्था भी राज्य के दायित्वों में शामिल है, ताकि नागरिकों को मानसिक और शारीरिक आराम मिल सके।
3. राजा के कर्तव्य और सीमाएँ
- प्रजा का कल्याण: राजा का प्रमुख कर्तव्य प्रजा के सुख और समृद्धि को प्राथमिकता देना है। उसे प्रजा के साथ पुत्रवत व्यवहार करना चाहिए, अर्थात उनकी भलाई के लिए सच्चे हृदय से काम करना चाहिए।
- आर्थिक प्रगति: राजा को राज्य की आर्थिक स्थिति को मजबूत करना चाहिए। इसके लिए उसे न्यायोचित तरीके से कर संग्रह करना और योग्य व्यक्तियों को उपहार और सम्मान देना चाहिए, ताकि राज्य में समृद्धि और सामाजिक न्याय सुनिश्चित हो सके।
- विदेश नीति और कूटनीति: राजा को कुशल राजदूतों और राजनयिकों की नियुक्ति करनी चाहिए। शत्रुओं से साम, दाम, भेद, और दंड नीति के अनुसार निपटना चाहिए और युद्ध की स्थिति में मित्र राष्ट्रों से सहयोग लेना चाहिए।
- युद्ध नीति: युद्ध राजा के लिए अंतिम विकल्प होना चाहिए। उसे शत्रु की कमजोरियों को पहचान कर कूटनीति का उपयोग करना चाहिए। युद्ध जीतने के बाद, राजा को मित्रता पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए ताकि शांति और सहयोग की स्थिति बनी रहे।
राजा के कर्तव्य
- प्रजा का कल्याण: राजा को धार्मिक, न्यायपूर्ण, और विनम्र होना चाहिए। उसे प्रजा की रक्षा और मार्गदर्शन करना चाहिए, और वह अपने आचार में संयमित तथा दोषमुक्त होना चाहिए।
- कार्यपालिका: राजा राज्य के प्रबंधन और सुरक्षा के लिए जिम्मेदार है। उसे कर्मचारियों की उचित व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे कार्यों का सही विभाजन हो सके।
- न्यायिक: राजा को न्यायपूर्ण दंड देना चाहिए, जो देश, काल और अपराध की गंभीरता पर निर्भर करता है। वह सभी साक्ष्यों पर विचार कर और ब्राह्मणों से सलाह लेकर न्याय सुनिश्चित करे।
- विधायी: राजा को कानून बनाने के लिए एक परिषद का गठन करना चाहिए, जिसमें धर्मशास्त्रज्ञ और अन्य योग्य व्यक्ति शामिल हों।
- प्रशासनिक: राजा को योग्य कर्मचारियों की नियुक्ति करनी चाहिए और प्रशासन की निगरानी के लिए गुप्तचरों का उपयोग करना चाहिए।
- उपशास्त्रीय: राजा को समाज में धर्म की प्रतिष्ठा और पालन सुनिश्चित करने के लिए वेदों और शास्त्रों का ज्ञान होना चाहिए।
- राजस्व: राजा को उचित कर वसूली करनी चाहिए, जिससे राज्य की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ रहे और जनता में असंतोष न हो।
- सेना: राजा को युद्ध कौशल में निपुण और साहसी होना चाहिए। उसे अपनी सेना को सुसज्जित करना और योग्य सैनिकों को पुरस्कृत करना चाहिए।
4. क्या राजा निरंकुश हो सकता है?
- मनुस्मृति में राजा को दैवीय सिद्धांत के तहत उच्च स्थान और असीमित शक्ति मिलती है, लेकिन उसकी निरंकुशता का समर्थन नहीं किया गया है। राजा को धर्म के अधीन रखा गया है और उससे अपेक्षित है कि वह प्रजा की रक्षा करते हुए धर्म का पालन करे।
- राजा की शक्ति पर अंकुश लगाने के लिए मंत्रीमंडल और न्याय व्यवस्था का प्रावधान किया गया है। यदि राजा विवेक से दंड नहीं देता, तो उसे भी दंड का भागी बनना पड़ता है। राजा को प्रजा के प्रति उत्तरदायी माना गया है, और यदि वह जनकल्याण से विमुख हो जाता है, तो उसे त्याग दिया जा सकता है।
- इस प्रकार, राजा को दैवीय शक्ति प्राप्त होते हुए भी निरंकुश नहीं माना गया है; वह जनकल्याण के लिए प्रतिबद्ध है और धर्म के अनुसार कार्य करता है।
मनु का सामाजिक दर्शन
1. सामाजिक विधि संहिता
- मनुस्मृति केवल राजदर्शन नहीं, बल्कि सामाजिक दर्शन पर भी विस्तृत विचार प्रस्तुत करती है। इसमें समाज की संरचना, सामाजिक आचरण, और राज्य व राजा के उत्तरदायित्वों का विवरण दिया गया है। मनुस्मृति सामाजिक संगठन के सिद्धांतों, विभिन्न वर्णों के कर्तव्यों और राज्य के कार्यों पर आधारित है। इसे एक नैतिक सिद्धांतों का समूह माना जाता है जो मानव समाज के लिए जीवन के आवश्यक नियमों की रूपरेखा प्रस्तुत करता है।
- मनुस्मृति, जिसे मनु के नियम के रूप में जाना जाता है, ब्राह्मणवादी परंपरा का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जो सामाजिक और नागरिक नियमों की रूपरेखा तय करता है। इसमें विवाह, संस्कार, वर्ण, नैतिकता, और धर्म से संबंधित नियम शामिल हैं, जो आज भी भारतीय हिन्दू धर्म का आधार माने जाते हैं।
2. न्याय की अवधारणा और दंड
मनुस्मृति में न्याय और दंड राज्य की मुख्य धुरी माने गए हैं। दंड को विधि, न्याय व्यवस्था और सजा के रूप में विस्तृत रूप से परिभाषित किया गया है, और इसे राज्य की शक्ति और शासन के आधार के रूप में देखा गया है।
- राजा की जिम्मेदारी: राजा को नियमों का पालन करना चाहिए, और यदि वह उल्लंघन करता है, तो उसे दंडित किया जाना चाहिए। राजा को प्रजा के समान दंड मिलना चाहिए, और अगर वह कर्तव्यों से भटकता है, तो उसे न्याय की प्रक्रिया के तहत दंडित किया जाए।
- दंड का वर्गीय भेद: मनु के अनुसार, अपराधियों के वर्ग के आधार पर दंड में भेद है। ब्राह्मणों को अन्य वर्गों से अधिक दंड देना जाता है, और अपराधों के कारण उत्पन्न विवादों को दो श्रेणियों में बांटा गया है: हिंसा और संपत्ति विवाद।
- न्यायाधीश और साक्ष्य: राजा यदि स्वयं न्याय नहीं करता, तो उसे न्यायाधीश नियुक्त करना चाहिए। न्यायाधीशों को निष्पक्ष रहकर सभी विवादों का समाधान करना चाहिए। साक्ष्य के मामले में लिखित और युक्ति प्रमाण को अधिक महत्व दिया गया है, जबकि असत्य साक्ष्य पर दंड का प्रावधान है।
- दंड के प्रकार: दंड के तीन मुख्य प्रकार हैं: शत्रु का धन हरण, शारीरिक कष्ट देना, और शत्रु का वध करना। इसके अलावा, "प्रकाश दंड" और "अप्रकाश दंड" का भी उल्लेख किया गया है।
- दंड संहिता का प्रासंगिकता: मनु की दंड संहिता आज के संदर्भ में शत प्रतिशत प्रासंगिक नहीं हो सकती, लेकिन इसके सिद्धांतों के मौलिक पहलू आधुनिक दंड संहिता में भी देखे जा सकते हैं।
3. वर्ण-व्यवस्था
भारत में जाति व्यवस्था समाज के जीवन को नियंत्रित करती है, और इस पर विभिन्न विद्वानों के अलग-अलग दृष्टिकोण रहे हैं। कुछ विद्वान, जैसे सिडनी लो एब्बे डुबोय, इसे सकारात्मक मानते हैं, जबकि मॅन और शेरिंग इसे नकारात्मक मानते हैं। कुछ का मानना है कि ब्राह्मणों ने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए जाति व्यवस्था बनाई। मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था कर्म और गुण पर आधारित बताई गई है, न कि जन्म पर। भगवान श्री कृष्ण ने भी गीता में यही कहा कि वर्ण कर्म और गुण पर आधारित होते हैं, जन्म पर नहीं।
1. वर्णों का कार्य और आचरण