समकालीन भारत में शिक्षा UNIT 2 SEMESTER 1 THEORY NOTES महिला एवं आधुनिक शिक्षा Education DU. SOL.DU NEP COURSES
0Eklavya Snatakनवंबर 19, 2024
ब्रिटिश शासन भारत के लिए अभिशाप और वरदान दोनों साबित हुआ। उपनिवेशवाद ने भारतीयों को उनकी संस्कृति और भूमि से वंचित किया, लेकिन साथ ही पश्चिमी वैज्ञानिक शिक्षा और नई विचारधारा लाई। ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली ने पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती दिए बिना कर्मचारियों को तैयार करने और समाज पर नियंत्रण बनाए रखने का कार्य किया। 19वीं सदी में महिला सुधार आंदोलनों ने महिलाओं के जीवन में बदलाव लाने, उन्हें शिक्षा और सार्वजनिक जीवन में भागीदारी के अवसर प्रदान करने का प्रयास किया। इन सुधारों से महिलाओं को पारंपरिक जीवन-शैली से मुक्ति मिली और उनके विकास के लिए समितियों और आयोगों की स्थापना हुई।
महिला शिक्षा पर समितियाँ और आयोग
दुर्गाबाई देशमुख समिति (1959): महिलाओं के लिए समान पाठ्यक्रम और शिक्षा पर विशेष ध्यान देने की सिफारिश। 1974 में रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें महिलाओं की कम साक्षरता दर, घटती संख्या और उच्च मृत्यु दर पर चर्चा की गई।
हंसा मेहता समिति (1964) और कोठारी शिक्षा आयोग (1964-66):समान पाठ्यक्रम की सिफारिश की, जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) और प्रोग्राम ऑफ ऐक्शन (1992) तक जारी रही।
राममूर्ति समीक्षा समिति (1990): बंचित और ग्रामीण महिलाओं के लिए शैक्षिक अवसरों के पुनर्वितरण की आवश्यकता पर बल। ईंधन, पानी, शिशु देखभाल जैसी सहायक सेवाओं और शैक्षिक संस्थानों में 50% लड़कियों की भागीदारी सुनिश्चित करने की सिफारिश।
महिला सशक्तीकरण की राष्ट्रीय नीति (2001): महिलाओं के राजनीतिक, आर्थिक, और सामाजिक अधिकारों की रक्षा। भेदभाव खत्म करने और महिलाओं को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं, और रोजगार के अवसर प्रदान करने पर जोर।
1980 और 1990 के दशक में शोध और महिला अध्ययन: महिलाओं की स्थिति का गहन विश्लेषण और जागरूकता बढ़ाने पर जोर। ग्रामीण और वंचित महिलाओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए राष्ट्रीय लिंग एजेंडा तैयार किया गया।
बेगम रुकैया सुल्ताना
औपनिवेशिक भारत के इतिहास में बेगम रुकैया (1880-1932) का नाम महिलाओं की स्वतंत्रता और शिक्षा के क्षेत्र में उनकी अभूतपूर्व भूमिका के लिए हमेशा याद किया जाता है। वे मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा के प्रति समर्पित थीं और उन्हें सशक्त बनाने के लिए शिक्षा को सबसे बड़ा हथियार मानती थीं।
1. जीवन परिचय
बेगम रुकैया का जन्म 1880 में बंगाल के रंगपुर जिले के पेरबोध गांव में हुआ। सामाजिक व धार्मिक मान्यताओं के चलते उन्हें बचपन से पर्दे में रहना पड़ा। लेकिन शिक्षा के प्रति उनके जुनून ने उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित किया। उनके भाई ने उन्हें बांग्ला और अंग्रेजी पढ़ाई। मात्र 16 वर्ष की उम्र में उनकी शादी 40 वर्षीय विधुर से हुई, जो प्रगतिशील विचारों के थे। पति की मृत्यु के बाद रुकैया ने महिलाओं की शिक्षा को अपना मिशन बना लिया और लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना की।
2. शिक्षा दर्शन
रुकैया ने शिक्षा को केवल डिग्री प्राप्ति या नौकरी के साधन तक सीमित नहीं माना। वे शिक्षा को जीवन के शारीरिक, मानसिक और नैतिक विकास का माध्यम मानती थीं। उनका उद्देश्य था महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाना और उन्हें समाज में समान दर्जा दिलाना। उन्होंने परंपरागत और आधुनिक शिक्षा का संतुलन बनाकर एक पाठ्यक्रम तैयार किया, जिसमें धार्मिक, वैज्ञानिक, व्यावसायिक और सामाजिक विषय शामिल थे।
3. पाठ्यक्रम और शिक्षण पद्धति
रुकैया के स्कूल में अंग्रेजी, कुरान, गणित, विज्ञान, भूगोल, गृह विज्ञान, नर्सिंग, सिलाई, संगीत, और शारीरिक शिक्षा जैसे विषय पढ़ाए जाते थे। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि शिक्षा में पारंपरिक और आधुनिक दृष्टिकोण का समावेश हो। शिक्षा में शिक्षक-विद्यार्थी संबंध पर विशेष ध्यान दिया गया। रुकैया का मानना था कि शिक्षक का चरित्र और नैतिकता बच्चों के समग्र विकास के लिए महत्वपूर्ण है।
4. महिला सशक्तिकरण के लिए लेखन
बेगम रुकैया का साहित्य उनके विचारों का आईना है। उनके प्रसिद्ध लेखन में शामिल हैं:
मोतीचूर (दो भाग, 1904 और 1922)
सुल्तानाज़ ड्रीम (1908)
पद्मराग (1924)
गॉड गिब्स, मैन रॉब्स (1927)
उनकी पुस्तक "सुल्तानाज़ ड्रीम" महिलाओं के स्वतंत्र समाज की परिकल्पना है, जहां महिलाएं बाधा और पर्दे से मुक्त होकर जीती हैं।
5. शिक्षा का पूर्व और पश्चिम का समन्वय
रुकैया ने भारतीय शिक्षा प्रणाली में पूर्वी ज्ञान और पश्चिमी नवाचार का संतुलन लाने पर जोर दिया। उन्होंने माना कि भारतीय परंपराओं और पश्चिमी विचारों का मिश्रण ही भारतीय महिलाओं को सशक्त बनाएगा।
पंडिता रमाबाई
पंडिता रमाबाई (1858-1922) आधुनिक भारत की एक प्रख्यात समाज सुधारक, महिला अधिकार कार्यकर्ता और शिक्षाविद थीं। उनका जीवन संघर्ष, सामाजिक बदलाव और महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक प्रेरणादायक गाथा है।
1. प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
पंडिता रमाबाई का जन्म एक प्रगतिशील ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता अनंत शास्त्री डोंगरे संस्कृत के विद्वान थे और उन्होंने रमाबाई को संस्कृत और धार्मिक शास्त्रों की शिक्षा दी। किशोरावस्था में माता-पिता की मृत्यु और फिर भाई की असमय मृत्यु के बाद रमाबाई ने जीवन की कठोर वास्तविकताओं का सामना किया।
उन्होंने संस्कृत के गहन ज्ञान और समाज सुधार की वकालत करते हुए देशभर में यात्रा की। कलकत्ता में, उन्हें उनकी विद्वता के लिए "पंडिता" और "सरस्वती" की उपाधि से सम्मानित किया गया।
2. पितृसत्ता और धर्म का विरोध
रमाबाई ने पितृसत्ता के खिलाफ अपने जीवन और कार्यों से विरोध प्रकट किया। उन्होंने अपने जीवन में जातिगत और लैंगिक असमानता को चुनौती दी। उनके अंतर्जातीय विवाह और विधवा जीवन ने सामाजिक मान्यताओं को खंडित किया।
ईसाई धर्म अपनाने के बाद भी वे पुरुष प्रधान चर्च व्यवस्था के प्रति असहमत रहीं। उन्होंने स्पष्ट कहा कि उनके पिता और पति ने कभी भी उनकी स्वतंत्रता पर रोक नहीं लगाई, इसलिए पुरुषों के साथ पढ़ाने या कार्य करने में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए।
3. शैक्षिक योगदान
रमाबाई ने महिला शिक्षा को अपना मिशन बना लिया और कई महत्वपूर्ण संस्थाओं की स्थापना की:
आर्य महिला समाज (1881): महिलाओं की आर्थिक और सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए।
शारदा सदन: विधवाओं और अनाथ बच्चों के लिए शिक्षा और पुनर्वास केंद्र।
मुक्ति मिशन (1889): युवा विधवाओं को शिक्षित करने और उन्हें औद्योगिक प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए।
इन संस्थानों ने न केवल शिक्षा प्रदान की, बल्कि महिलाओं को आत्मनिर्भर बनने के लिए आवश्यक कौशल भी सिखाए।
4. शिक्षा का व्यापक दृष्टिकोण
पंडिता रमाबाई ने शिक्षा को केवल साक्षरता तक सीमित नहीं माना, बल्कि इसे एक ऐसा माध्यम माना जो मानसिक और सामाजिक बदलाव ला सके।
उनके पाठ्यक्रम में शामिल विषय:
विज्ञान, गणित, वनस्पति विज्ञान
शारीरिक शिक्षा, बागवानी
हस्तकला, बुनाई, सिलाई
औद्योगिक प्रशिक्षण जैसे बढ़ईगिरी, मुद्रण
उनका उद्देश्य छात्रों को आत्मनिर्भर और समाज के प्रति जागरूक बनाना था।
5. जातिवाद और सामाजिक बदलाव
रमाबाई ने जातिवाद को भारतीय समाज की सबसे बड़ी समस्या माना। उनका मानना था कि यह शारीरिक और बौद्धिक दीवार खड़ी करता है और लोकतांत्रिक विकास में बाधा उत्पन्न करता है। उन्होंने अपने शैक्षिक प्रयासों से जातिगत भेदभाव को मिटाने की पहल की। उनकी संस्थाओं में सभी जातियों के लोगों को समान रूप से अवसर दिया जाता था।
6. विरासत और सम्मान
पंडिता रमाबाई को उनके योगदान के लिए 1919 में "केसर-ए-हिंद" पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार उनकी राष्ट्रीय छवि और महिला शिक्षा के प्रति उनके प्रयासों का प्रमाण है। हालाँकि, उनके ईसाई धर्म से जुड़े विवादों ने उनके प्रयासों को आलोचना का शिकार बनाया, फिर भी उनकी विरासत आज भी समाज में बदलाव और महिला सशक्तिकरण की प्रेरणा देती है।
महात्मा ज्योतिबा फुले
महात्मा ज्योतिबा फुले (1827-1890) भारतीय समाज के एक महान समाज सुधारक, शिक्षाविद्, और लेखक थे। उन्होंने दलितों, महिलाओं, और शोषित वर्गों की शिक्षा और उत्थान के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनका जीवन और विचार जाति, लिंग और सामाजिक असमानताओं के खिलाफ संघर्ष का प्रतीक हैं।
1. प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
ज्योतिबा फुले का जन्म 1827 में पुणे के माली समुदाय (शूद्र जाति) में हुआ। उनके पिता एक साधारण माली थे। बचपन से ही जाति आधारित भेदभाव का सामना करने वाले फुले ने महसूस किया कि शिक्षा के अभाव के कारण दलित और शूद्र समाज अन्याय का शिकार है।
एक ब्राह्मण मित्र की शादी में निमंत्रण मिलने के बाद वहां अपमानित होने की घटना ने उनके जीवन को बदल दिया। इस अनुभव ने उन्हें जातिगत अन्याय और शिक्षा के महत्व को समझने के लिए प्रेरित किया।
2. महिला और दलित शिक्षा में योगदान
फुले ने 1848 में पुणे में पहले कन्या विद्यालय की स्थापना की। उच्च जाति का कोई भी शिक्षक लड़कियों को पढ़ाने के लिए तैयार नहीं था, इसलिए उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को शिक्षित किया और उन्हें भारत की पहली महिला शिक्षिका बनाया।
3. अन्य प्रमुख प्रयास
शूद्र और अछूत जाति के बच्चों के लिए स्कूल चलाना।
विधवा पुनर्विवाह का समर्थन और कन्या भ्रूण हत्या का विरोध।
सभी जातियों के लिए अपने घर का कुआँ खोलकर छुआछूत के खिलाफ अभियान।
विधवाओं और अनाथ बच्चों के लिए शरण गृहों की स्थापना।
4. सत्यशोधक समाज की स्थापना
24 सितंबर 1873 को फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की। इस संगठन का उद्देश्य जातिवाद, छुआछूत और सामाजिक असमानताओं का विरोध करना था। सत्यशोधक समाज ने तर्कसंगत सोच और मूर्तिपूजा विरोधी विचारधारा को बढ़ावा दिया।
5. शिक्षा दर्शन
महात्मा फुले का मानना था कि शिक्षा ही समाज में क्रांति और सुधार का सबसे प्रभावी माध्यम है। उन्होंने कहा, "शिक्षा मानव अधिकार है, और यह हर व्यक्ति को मिलनी चाहिए।"
उनके शिक्षा दर्शन की मुख्य विशेषताएँ:-
सर्वव्यापी और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा: उन्होंने प्राथमिक शिक्षा को हर वर्ग और जाति के लिए अनिवार्य बनाने पर जोर दिया।
मानवीय मूल्यों का विकास: शिक्षा का उद्देश्य केवल जानकारी देना नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और समानता को बढ़ावा देना होना चाहिए।
प्रशिक्षण आधारित शिक्षा: व्यावसायिक प्रशिक्षण को शिक्षा का हिस्सा बनाकर आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देना।
प्राथमिकता ग्रामीण शिक्षा: शहरी और ग्रामीण पाठ्यक्रम में भिन्नता होनी चाहिए, ताकि दोनों की जरूरतें पूरी हो सकें।
प्रभावी शिक्षक प्रणाली: शिक्षकों को प्रशिक्षित और पर्याप्त वेतन प्राप्त होना चाहिए।
6. प्रकाशित रचनाएँ और साहित्यिक योगदान
फुले ने कई ग्रंथ और कविताएँ लिखीं, जिनमें उनकी विचारधारा और सामाजिक चिंतन स्पष्ट झलकता है। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं:
गुलामगिरी (1873): यह पुस्तक शूद्रों और अछूतों के शोषण की कहानी है।
तृतीय रत्न
सत्यशोधक समाजोक्त मंगलाष्टक
पोवाड़ा: छत्रपति शिवाजी
भोंसले पंखा
मानव महम्मद (अभंग)
7. आज के संदर्भ में फुले के विचारों की प्रासंगिकता
जाति और लिंग भेदभाव: भारत में आज भी जाति और लिंग आधारित असमानताएँ मौजूद हैं। फुले के विचार हमें समानता की दिशा में प्रेरित करते हैं।
ग्रामीण शिक्षा: फुले का ग्रामीण शिक्षा पर जोर आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि भारत के अधिकांश गाँव शिक्षा और बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं।
महिला सशक्तिकरण: फुले ने महिलाओं को शिक्षा देकर सशक्त बनाने की शुरुआत की, जो आज भी एक प्रेरणा है।
सामाजिक न्याय: उन्होंने सामाजिक न्याय को शिक्षा के माध्यम से स्थापित करने की बात की, जो आज के लोकतांत्रिक समाज की नींव है।
सावित्रीबाई फुले
सावित्रीबाई फुले (1831-1897) भारत में महिला शिक्षा की पहली मशालवाहक और सामाजिक सुधार की अद्वितीय प्रतीक थीं। उनका जीवन संघर्ष, साहस और सेवा की कहानी है। वे महिलाओं और दलितों के लिए शिक्षा और समानता के अधिकार की प्रबल समर्थक थीं।
1. संक्षिप्त जीवन रेखा
सावित्रीबाई फुले का जन्म 1831 में सतारा जिले के नायगांव में एक गरीब कृषक परिवार में हुआ था। 1840 में मात्र 9 वर्ष की उम्र में उनका विवाह ज्योतिबा फुले से हुआ। विवाह के बाद ज्योतिबा फुले ने सावित्रीबाई को शिक्षित करना शुरू किया। 1848 में सावित्रीबाई फुले ने पुणे में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोलकर महिला शिक्षा की दिशा में क्रांतिकारी कदम उठाया। 1854 में उन्होंने विधवाओं के बच्चों के लिए एक आश्रय गृह की स्थापना की। 1855 में सावित्रीबाई और ज्योतिबा फुले ने कृषकों और मजदूरों को शिक्षित करने का कार्य आरंभ किया।
1868 में उन्होंने सामाजिक भेदभाव को चुनौती देते हुए अछूतों के लिए अपने घर का कुआँ खोल दिया। 1877 के अकाल के दौरान, उन्होंने जरूरतमंदों की मदद के लिए 52 भोजन केंद्र स्थापित किए। 1897 में प्लेग महामारी के दौरान मरीजों की सेवा करते हुए उनका निधन हो गया। सावित्रीबाई फुले का जीवन सामाजिक सुधार और मानव सेवा के लिए समर्पित रहा।
2. साहित्यिक योगदान
सावित्रीबाई फुले ने काव्य और लेखन के माध्यम से समाज में चेतना जागृत करने का कार्य किया। उनके साहित्यिक कार्य उनके क्रांतिकारी विचारों का परिचायक हैं:
काव्यफुले (1854)
बावनकाशी सुबोध रवाकर (1892)
सावित्रीबाई के ज्योतिबा को पत्र
ज्योतिबा के भाषणों का संपादन
उनकी रचनाएँ मराठी काव्य के नवोत्थान की मिसाल हैं और शिक्षा, सामाजिक समानता, और महिला अधिकारों को बढ़ावा देती हैं।
3. शैक्षिक दर्शन
सावित्रीबाई फुले का मानना था कि शिक्षा केवल पढ़ाई-लिखाई तक सीमित नहीं है; यह मानसिक, नैतिक, और व्यावसायिक विकास का माध्यम है।
मुख्य विशेषताएँ:
1. शिक्षा का सार्वभौमिक अधिकार:
सावित्रीबाई ने महिलाओं और दलितों के लिए शिक्षा को प्राथमिकता दी।
उन्होंने शिक्षा को रोटी, कपड़ा, और मकान जितना ही महत्वपूर्ण माना।
2. व्यावहारिक और व्यवसायिक शिक्षा
उनके पाठ्यक्रम में हस्तकला, व्यापार, और औद्योगिक कौशल शामिल थे।
उनका उद्देश्य बच्चों को आत्मनिर्भर बनाना था।
3. धर्मनिरपेक्ष शिक्षा:
उन्होंने जाति और धर्म की सीमाओं को तोड़कर सभी के लिए समान शिक्षा के द्वार खोले।
4. छात्र पोषण और प्रोत्साहन:
वे बच्चों के पोषण और उनकी शिक्षा को जारी रखने पर विशेष ध्यान देती थीं।
छात्रवृत्तियाँ देकर बच्चों को प्रोत्साहित करने की परंपरा शुरू की।
5. काव्य और लेखन के माध्यम से शिक्षा:
उनके काव्य संग्रह ‘काव्यफुले’ और ‘बावनकाशी’ शिक्षा के महत्व और अंग्रेजी भाषा के उपयोग पर बल देते हैं।
4. सामाजिक सुधार और महिला सशक्तिकरण
महिलाओं और दलितों की शिक्षा :सावित्रीबाई फुले भारत की पहली महिला शिक्षिका बनीं और उन्होंने महिलाओं और दलितों को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया।
विधवा पुनर्विवाह और कन्या भ्रूण हत्या का विरोध:उन्होंने ‘बालहत्या प्रतिबंधक गृह’ नामक संस्था की स्थापना की।
जाति व्यवस्था और पितृसत्ता का विरोध: उन्होंने अपने घर का कुआँ अछूतों के लिए खोलकर जातिगत भेदभाव को चुनौती दी।
प्लेग महामारी में सेवा: महामारी के दौरान मरीजों की सेवा करते हुए उन्होंने अपने प्राण न्योछावर कर दिए।
5. आज के संदर्भ में प्रासंगिकता
महिला शिक्षा और सशक्तिकरण: आज भी भारत में महिला शिक्षा को लेकर चुनौतियाँ हैं। सावित्रीबाई के प्रयास और विचार प्रेरणा के स्रोत हैं।
जातिगत भेदभाव का विरोध: उनके सामाजिक सुधार के कार्य आज भी भारत के लिए मार्गदर्शक हैं।
व्यावसायिक और व्यावहारिक शिक्षा: उन्होंने जिस व्यावसायिक शिक्षा पर बल दिया, वह आज के कौशल विकास अभियानों का आधार बन सकता है।
शिक्षा के माध्यम से सामाजिक सुधार:शिक्षा को सामाजिक बदलाव का माध्यम मानने का उनका दृष्टिकोण आज के समय में भी उतना ही प्रासंगिक है।