ब्रिटिश शासन भारत के लिए अभिशाप और वरदान दोनों साबित हुआ। उपनिवेशवाद ने भारतीयों को उनकी संस्कृति और भूमि से वंचित किया, लेकिन साथ ही पश्चिमी वैज्ञानिक शिक्षा और नई विचारधारा लाई। ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली ने पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती दिए बिना कर्मचारियों को तैयार करने और समाज पर नियंत्रण बनाए रखने का कार्य किया। 19वीं सदी में महिला सुधार आंदोलनों ने महिलाओं के जीवन में बदलाव लाने, उन्हें शिक्षा और सार्वजनिक जीवन में भागीदारी के अवसर प्रदान करने का प्रयास किया। इन सुधारों से महिलाओं को पारंपरिक जीवन-शैली से मुक्ति मिली और उनके विकास के लिए समितियों और आयोगों की स्थापना हुई।
महिला शिक्षा पर समितियाँ और आयोग
- दुर्गाबाई देशमुख समिति (1959): महिलाओं के लिए समान पाठ्यक्रम और शिक्षा पर विशेष ध्यान देने की सिफारिश। 1974 में रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें महिलाओं की कम साक्षरता दर, घटती संख्या और उच्च मृत्यु दर पर चर्चा की गई।
- हंसा मेहता समिति (1964) और कोठारी शिक्षा आयोग (1964-66): समान पाठ्यक्रम की सिफारिश की, जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) और प्रोग्राम ऑफ ऐक्शन (1992) तक जारी रही।
- राममूर्ति समीक्षा समिति (1990): बंचित और ग्रामीण महिलाओं के लिए शैक्षिक अवसरों के पुनर्वितरण की आवश्यकता पर बल। ईंधन, पानी, शिशु देखभाल जैसी सहायक सेवाओं और शैक्षिक संस्थानों में 50% लड़कियों की भागीदारी सुनिश्चित करने की सिफारिश।
- महिला सशक्तीकरण की राष्ट्रीय नीति (2001): महिलाओं के राजनीतिक, आर्थिक, और सामाजिक अधिकारों की रक्षा। भेदभाव खत्म करने और महिलाओं को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं, और रोजगार के अवसर प्रदान करने पर जोर।
- 1980 और 1990 के दशक में शोध और महिला अध्ययन: महिलाओं की स्थिति का गहन विश्लेषण और जागरूकता बढ़ाने पर जोर। ग्रामीण और वंचित महिलाओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए राष्ट्रीय लिंग एजेंडा तैयार किया गया।
बेगम रुकैया सुल्ताना
औपनिवेशिक भारत के इतिहास में बेगम रुकैया (1880-1932) का नाम महिलाओं की स्वतंत्रता और शिक्षा के क्षेत्र में उनकी अभूतपूर्व भूमिका के लिए हमेशा याद किया जाता है। वे मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा के प्रति समर्पित थीं और उन्हें सशक्त बनाने के लिए शिक्षा को सबसे बड़ा हथियार मानती थीं।
1. जीवन परिचय
- बेगम रुकैया का जन्म 1880 में बंगाल के रंगपुर जिले के पेरबोध गांव में हुआ। सामाजिक व धार्मिक मान्यताओं के चलते उन्हें बचपन से पर्दे में रहना पड़ा। लेकिन शिक्षा के प्रति उनके जुनून ने उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित किया। उनके भाई ने उन्हें बांग्ला और अंग्रेजी पढ़ाई। मात्र 16 वर्ष की उम्र में उनकी शादी 40 वर्षीय विधुर से हुई, जो प्रगतिशील विचारों के थे। पति की मृत्यु के बाद रुकैया ने महिलाओं की शिक्षा को अपना मिशन बना लिया और लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना की।
2. शिक्षा दर्शन
- रुकैया ने शिक्षा को केवल डिग्री प्राप्ति या नौकरी के साधन तक सीमित नहीं माना। वे शिक्षा को जीवन के शारीरिक, मानसिक और नैतिक विकास का माध्यम मानती थीं। उनका उद्देश्य था महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाना और उन्हें समाज में समान दर्जा दिलाना। उन्होंने परंपरागत और आधुनिक शिक्षा का संतुलन बनाकर एक पाठ्यक्रम तैयार किया, जिसमें धार्मिक, वैज्ञानिक, व्यावसायिक और सामाजिक विषय शामिल थे।
3. पाठ्यक्रम और शिक्षण पद्धति
- रुकैया के स्कूल में अंग्रेजी, कुरान, गणित, विज्ञान, भूगोल, गृह विज्ञान, नर्सिंग, सिलाई, संगीत, और शारीरिक शिक्षा जैसे विषय पढ़ाए जाते थे। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि शिक्षा में पारंपरिक और आधुनिक दृष्टिकोण का समावेश हो। शिक्षा में शिक्षक-विद्यार्थी संबंध पर विशेष ध्यान दिया गया। रुकैया का मानना था कि शिक्षक का चरित्र और नैतिकता बच्चों के समग्र विकास के लिए महत्वपूर्ण है।
4. महिला सशक्तिकरण के लिए लेखन
बेगम रुकैया का साहित्य उनके विचारों का आईना है। उनके प्रसिद्ध लेखन में शामिल हैं:
- मोतीचूर (दो भाग, 1904 और 1922)
- सुल्तानाज़ ड्रीम (1908)
- पद्मराग (1924)
- गॉड गिब्स, मैन रॉब्स (1927)
उनकी पुस्तक "सुल्तानाज़ ड्रीम" महिलाओं के स्वतंत्र समाज की परिकल्पना है, जहां महिलाएं बाधा और पर्दे से मुक्त होकर जीती हैं।
5. शिक्षा का पूर्व और पश्चिम का समन्वय
- रुकैया ने भारतीय शिक्षा प्रणाली में पूर्वी ज्ञान और पश्चिमी नवाचार का संतुलन लाने पर जोर दिया। उन्होंने माना कि भारतीय परंपराओं और पश्चिमी विचारों का मिश्रण ही भारतीय महिलाओं को सशक्त बनाएगा।