प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय राजनीतिक विचार UNIT 10 CHAPTER 11 SEMESTER 3 THEORY NOTES कबीर और गुरु नानक : समन्वयवाद POLITICAL DU. SOL.DU NEP COURSES

प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय राजनीतिक विचार UNIT 10  CHAPTER 11  SEMESTER 3 THEORY NOTES कबीर और गुरु नानक : समन्वयवाद POLITICAL DU. SOL.DU NEP COURSES


परिचय 

भारत एक प्राचीन सभ्यता है, जो अपनी विविधता और सांस्कृतिक समृद्धि के लिए जानी जाती है। यह भूमि सदियों से विभिन्न धर्मों, परंपराओं और संस्कृतियों का केंद्र रही है। यहाँ की विशेषता धार्मिक बहुलवाद और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व है, हालांकि, यह हमेशा एक आसान यात्रा नहीं रही। विभिन्न समयों में धार्मिक और सांस्कृतिक संघर्ष देखने को मिले हैं, लेकिन इसके बावजूद भारत ने समन्वयवाद की परंपरा को बनाए रखा है।मध्यकालीन भारत में भक्ति और सूफी आंदोलनों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए सामाजिक भेदभाव और धार्मिक रूढ़िवाद के विरुद्ध खड़े होकर समानता और मानवता का संदेश दिया। इन आंदोलनों ने भारतीय समाज में समन्वयवाद को गहराई से स्थापित किया। प्रस्तुत अध्याय में संत कबीर दास और गुरु नानक जैसे प्रमुख भक्ति संतों की समन्वयवाद में भूमिका पर प्रकाश डाला गया है। इससे पहले, समन्वयवाद की अवधारणा और उसके विकास के कारकों को समझना आवश्यक है।

 समन्वयवाद की अवधारणा 

समन्वयवाद का अर्थ:समन्वयवाद (Syncretism) विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों, और परंपराओं का संयोजन है, जो एक नई सांस्कृतिक या धार्मिक एकता का निर्माण करता है। यह विभिन्न विचार प्रणालियों, मान्यताओं और प्रथाओं को समाहित कर, शांति और सह-अस्तित्व को बढ़ावा देता है।

  • मुख्य विशेषताएँ: सामान्य समुदाय का निर्माण भौगोलिक या सामाजिक समूह के माध्यम से होता है, जिसमें विभिन्न संस्कृतियों का समावेश सांस्कृतिक सहभागिता को दर्शाता है। ऐसे समुदायों में विभिन्न उपसमूहों के बीच विचारों का आदान-प्रदान होता है, जिससे परस्पर प्रभाव पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप, संस्कृतियों और विचारों का सम्मिश्रण होता है, जो एक अद्वितीय जीवन शैली का निर्माण करता है।
  • मध्यकालीन भारत में समन्वयवाद के उदाहरण: मध्यकालीन भारत में समन्वयवाद के अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं, जो उस समय की विविध सांस्कृतिक परंपराओं के मेल का प्रतीक हैं। साहित्य में, महाकाव्यों और उपनिषदों का फारसी में अनुवाद सांस्कृतिक समन्वय का अद्भुत उदाहरण है। वास्तुकला में, हिंदू और फारसी शैलियों का मिश्रण मुगल स्थापत्य कला में स्पष्ट रूप से झलकता है। कला के क्षेत्र में, कांगड़ा चित्रकला शैली हिंदू और फारसी परंपराओं के मेल को प्रदर्शित करती है। धार्मिक स्थलों में, मंदिर और दरगाह जैसे स्थल विभिन्न आस्थाओं को एक साथ लाने का कार्य करते हैं। संगीत में, सूफी और भक्ति परंपराओं का समन्वय कबीर और गुरु नानक की कविताओं में दिखाई देता है। ये सभी उदाहरण मध्यकालीन भारत में विविधता में एकता और समन्वय को दर्शाते हैं।
  • धार्मिक समन्वयवाद के लाभ: धार्मिक समन्वयवाद के अनेक लाभ हैं। यह सांस्कृतिक विविधता का सम्मान करता है और शांति व सह-अस्तित्व को बढ़ावा देता है। इससे नई परंपराओं और विचारों का उद्भव होता है और धार्मिक सीमाओं का अतिक्रमण संभव होता है। इसके परिणामस्वरूप, समाज में सामाजिक एकता और भाईचारे की भावना का विकास होता है।
  • भक्ति और सूफी आंदोलनों का योगदान: 13वीं से 16वीं शताब्दी के भक्ति और सूफी आंदोलनों ने समाज में समानता और सद्भाव का संदेश दिया। इन आंदोलनों की विशेषताएँ थीं: जाति और लिंग आधारित भेदभाव का विरोध, ईश्वर की एकता और भक्ति पर जोर, स्थानीय भाषाओं में उपदेश, और सामाजिक असमानता की आलोचना। इन विचारों ने धर्म, जाति, और वर्ग की बाधाओं को तोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।


 संत कबीरदास 

संत कबीरदास 15वीं शताब्दी के भक्ति आंदोलन के प्रमुख रहस्यवादी संत थे। उनका जन्म वाराणसी में हुआ माना जाता है, और वे बुनकर समुदाय से संबंधित थे। उन्होंने धार्मिक सुधारों और सामाजिक समानता का संदेश दिया। उनके विचारों में हिंदू और मुस्लिम परंपराओं का अद्भुत समन्वय था।

1. मुख्य विचार और योगदान

  • धार्मिक समानता: कबीर ने हिंदू-मुस्लिम मतभेदों को नकारते हुए एक ईश्वर की भक्ति पर बल दिया।
  • आडंबर और कर्मकांड का विरोध: मूर्तिपूजा, पवित्र स्थलों की यात्रा, और धार्मिक अनुष्ठानों की उन्होंने कड़ी आलोचना की।
  • प्रेम और करुणा का संदेश: उन्होंने मानवता, प्रेम और भाईचारे को सर्वोच्च धर्म माना।
  • निर्गुण भक्ति: कबीर निर्गुण पंथ के संत थे और निराकार ईश्वर की आराधना करते थे।
  • समन्वयवाद: कबीर ने सूफी और हिंदू परंपराओं के विचारों को मिलाकर एक समन्वित दर्शन प्रस्तुत किया।

2. शिक्षा और प्रभाव: कबीर के गुरु रामानंद थे, जिनसे उन्होंने भक्ति, नैतिकता और अहिंसा के सिद्धांत सीखे। उन्होंने सामाजिक असमानताओं, जाति-व्यवस्था और धार्मिक पाखंडों का विरोध किया। उनके भजन और दोहे आज भी "बीजक," "आदि ग्रंथ," और "कबीर ग्रंथावली" में संरक्षित हैं।

3. कबीर का संदेश: कबीर ने लोगों से आग्रह किया कि वे आत्मज्ञान के लिए भीतर झाँकें और ईश्वर को अपने भीतर खोजें। उनका मानना था कि सभी धर्म और ग्रंथ प्रेम और एकता का संदेश देते हैं। उनका कहना था:

"चाहे गीता बांचिये, या पढ़िए कुरान,

मेरा तेरा प्यार ही हर पुस्तक का ज्ञान।"

4. प्रभाव और विरासत: कबीर की शिक्षाएँ हिंदू-मुस्लिम दोनों समुदायों के बीच समान रूप से लोकप्रिय रहीं। उन्होंने धर्म और जाति की बाधाओं को तोड़ते हुए समन्वयवादी संस्कृति की नींव रखी। डॉ. अम्बेडकर, रवींद्रनाथ टैगोर, और हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे महान विचारकों ने उनके योगदान को सराहा।कबीर की विचारधारा आज भी समाज में समानता, भाईचारे और शांति के लिए प्रेरणा देती है।


सभी मनुष्यों की समानता का उपदेश

संत कबीर ने ईश्वर की एकता पर बल देते हुए मनुष्यों के बीच असमानता का कड़ा विरोध किया। उन्होंने जाति, धर्म, और सामाजिक भेदभाव जैसी तर्कहीन प्रथाओं की निंदा की और सभी के लिए समानता और भाईचारे का संदेश दिया। सूफीवाद के प्रभाव से प्रेरित होकर, कबीर ने हिंदू जाति व्यवस्था और धार्मिक कर्मकांडों का विरोध किया। उनके दोहे उनकी समानता और समरसता की विचारधारा को दर्शाते हैं।

1.जाति-पांति का विरोध: कबीर का संदेश था कि जाति और पंथ से परे होकर, केवल ईश्वर की भक्ति ही सच्चा धर्म है। उनका प्रसिद्ध दोहा,

"जाति पांति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई,"

सभी मनुष्यों की समानता को रेखांकित करता है।

2.धार्मिक और सामाजिक कुरीतियों का विरोध: कबीर ने पशु बलि, मूर्ति पूजा, उपवास, तीर्थ यात्रा, और धार्मिक नेताओं के एकाधिकार जैसी प्रथाओं की कड़ी आलोचना की। उन्होंने सती प्रथा और बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराइयों का भी विरोध किया। उनका मानना था कि ईश्वर सभी के हृदय में निवास करता है और उसे कर्मकांडों से नहीं, बल्कि आत्म-समर्पण से पाया जा सकता है।

3.ईश्वर की खोज भीतर: कबीर ने मनुष्य के भीतर ईश्वर को खोजने पर जोर दिया। उनका दोहा,

"जैसे तिल में तेल है, ज्यों चकमक में आग, तेरा साईं तुझ में है, तू जाग सके तो जाग,"

इस विचार को स्पष्ट रूप से प्रकट करता है कि ईश्वर को बाहर नहीं, बल्कि अपने भीतर ढूँढा जाना चाहिए।

4.अंधविश्वास का विरोध और मगहर का उदाहरण: कबीर ने अंधविश्वास और रूढ़ियों के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने मगहर जाकर यह साबित किया कि ईश्वर का न्याय स्थान से प्रभावित नहीं होता। मगहर में मृत्यु को अपशगुन मानने वाली धारणा का खंडन करते हुए, कबीर ने वहाँ अपने अंतिम दिन बिताए और सामाजिक अंधविश्वासों को तोड़ने का उदाहरण प्रस्तुत किया।कबीर का जीवन और उनके उपदेश सभी मनुष्यों की समानता, सामाजिक समानता, और आध्यात्मिकता के उच्च आदर्शों को प्रोत्साहित करते हैं।


कबीर और मानवता का धर्म

संत कबीर ने मानवता को सच्चा धर्म माना और एकेश्वरवाद के माध्यम से हिंदू-मुस्लिम एकता का समर्थन किया। उनके अनुसार, धर्म का उद्देश्य लोगों के बीच दयालुता, सहानुभूति, और भाईचारे को बढ़ावा देना है। उन्होंने कहा कि सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान हैं और धर्मों के नाम का अंतर केवल बाहरी है।

1. धार्मिक पूर्वाग्रहों का विरोध: कबीर ने हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मों की कठोर धार्मिक प्रथाओं और पूर्वाग्रहों को नकारते हुए कहा कि कर्मकांड और धार्मिक आदेशों से अधिक महत्वपूर्ण आत्मा की पवित्रता और मानव जाति की सेवा है। उन्होंने वेदों और कुरान की पवित्रता को सर्वोपरि मानने से इनकार किया और ब्राह्मणों व मौलवियों के धार्मिक प्रभुत्व की आलोचना की।

2. प्रेम और विनम्रता का संदेश: कबीर ने मानवता के धर्म को प्रेम और दया के संदेश के साथ जोड़ा। उनके दोहे,

"बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर,

पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर,"

में उन्होंने विनम्रता और दूसरों की भलाई के महत्व को रेखांकित किया।

एक अन्य दोहे,

"पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय,"

में उन्होंने प्रेम को ज्ञान और मानवता का मूल आधार बताया।

3. संगठित धर्म का अस्वीकरण: कबीर ने संगठित धर्म की सीमाओं को नकारते हुए मानवतावादी दृष्टिकोण पर बल दिया। उनके अनुसार, धर्म का सार दूसरों की सेवा, प्रेम, और एकता में निहित है। उन्होंने कहा कि धर्म का उद्देश्य आत्मा को शुद्ध करना और मानव जाति के कल्याण के लिए काम करना है।


सांसारिक कर्तव्यों के पालन हेतु कबीर का दृष्टिकोण

संत कबीर ने संन्यास या संसार के त्याग की कड़ी आलोचना की। उनका मानना था कि मुक्ति केवल एकाकी जीवन जीने में नहीं, बल्कि सांसारिक कर्तव्यों को निभाने में है। उन्होंने जीवन को एक युद्ध के मैदान के रूप में देखा, जहाँ हर व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का सामना करना चाहिए और उनसे बचने का प्रयास नहीं करना चाहिए।

  • त्याग की निंदा: कबीर ने संन्यास की आड़ में जीवन से पलायन को गलत ठहराया। उनका तर्क था कि त्याग करने से व्यक्ति अपने कर्तव्यों से दूर भागता है, जो आत्म-धोखे का रूप है। उन्होंने युवाओं को संसार से मोहभंग करने के बजाय अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए प्रेरित किया।
  • संसार में रहते हुए मुक्ति: कबीर ने कहा कि मुक्ति की कामना जीवन जीते हुए, अपने साथियों के प्रति दया और जिम्मेदारी का पालन करते हुए की जानी चाहिए। उनका विश्वास था कि पुनर्जन्म और कर्म के सिद्धांत सत्य हैं और जीवन को शुद्धता, सच्चाई, दया, आत्म-अनुशासन, और ईश्वर के प्रति आत्म-समर्पण के साथ जीना चाहिए।
  • हिंदू और इस्लाम की एकता: कबीर ने सांसारिक कर्तव्यों और भक्ति के माध्यम से हिंदू और इस्लाम की मौलिक एकता को उजागर किया। उनके अनुसार, सच्चा धर्म किसी भी कर्मकांड या त्याग में नहीं, बल्कि ईश्वर के प्रति भक्ति और मानवता के प्रति अपने दायित्वों को निभाने में है।


सांसारिक कर्तव्यों के पालन हेतु कबीर का दृष्टिकोण

संत कबीर ने संन्यास या संसार के त्याग की कड़ी आलोचना की। उनका मानना था कि मुक्ति केवल एकाकी जीवन जीने में नहीं, बल्कि सांसारिक कर्तव्यों को निभाने में है। उन्होंने जीवन को एक युद्ध के मैदान के रूप में देखा, जहाँ हर व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का सामना करना चाहिए और उनसे बचने का प्रयास नहीं करना चाहिए।

  • त्याग की निंदा: कबीर ने संन्यास की आड़ में जीवन से पलायन को गलत ठहराया। उनका तर्क था कि त्याग करने से व्यक्ति अपने कर्तव्यों से दूर भागता है, जो आत्म-धोखे का रूप है। उन्होंने युवाओं को संसार से मोहभंग करने के बजाय अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए प्रेरित किया।
  • संसार में रहते हुए मुक्ति: कबीर ने कहा कि मुक्ति की कामना जीवन जीते हुए, अपने साथियों के प्रति दया और जिम्मेदारी का पालन करते हुए की जानी चाहिए। उनका विश्वास था कि पुनर्जन्म और कर्म के सिद्धांत सत्य हैं और जीवन को शुद्धता, सच्चाई, दया, आत्म-अनुशासन, और ईश्वर के प्रति आत्म-समर्पण के साथ जीना चाहिए।
  • हिंदू और इस्लाम की एकता: कबीर ने सांसारिक कर्तव्यों और भक्ति के माध्यम से हिंदू और इस्लाम की मौलिक एकता को उजागर किया। उनके अनुसार, सच्चा धर्म किसी भी कर्मकांड या त्याग में नहीं, बल्कि ईश्वर के प्रति भक्ति और मानवता के प्रति अपने दायित्वों को निभाने में है।


  गुरु नानक  

गुरु नानक सिख धर्म के संस्थापक और भक्ति संत के रूप में विख्यात थे। उन्होंने ईमानदारी से काम करना (कीरत करो), ईश्वर का स्मरण (नाम जपो), और निःस्वार्थ सेवा व संसाधनों को साझा करना (वंड चखो) अपने जीवन का मूल दर्शन बनाया। उन्होंने करुणा, प्रेम, सह-अस्तित्व, और शांति के संदेश के साथ समाज में व्याप्त जाति, धर्म, और लिंग आधारित असमानताओं का विरोध किया।

1. जीवन और दर्शन: 1469 में तलवंडी (अब ननकाना साहिब, पाकिस्तान) में जन्मे गुरु नानक ने हिंदू और मुस्लिम परंपराओं से प्रेरणा लेते हुए धार्मिक भेदभाव और कर्मकांडों की कड़ी आलोचना की। वे एक गृहस्थ जीवन जीते हुए भी आध्यात्मिकता में डूबे रहे। लगभग 30 वर्ष की आयु में उन्हें ईश्वर के साथ सीधा अनुभव हुआ, जिसने उनके जीवन को नया रूप दिया।

2. शिक्षाएँ और प्रभाव

  • समानता का संदेश: गुरु नानक ने जाति, धर्म, और वर्ग के आधार पर भेदभाव को खारिज किया।
  • सह-अस्तित्व: उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा दिया और शांति व सद्भाव के लिए कार्य किया।
  • कर्मकांडों का विरोध: उन्होंने धार्मिक अनुष्ठानों और रूढ़ियों की निंदा की, जिनसे गरीब और कमजोर वर्ग शोषित होते थे।
  • भक्ति और संगीत: उनके भजनों में एक परम ईश्वर की स्तुति की गई, जिसे मानव श्रेणियों में परिभाषित नहीं किया जा सकता।

3. हिंदू और मुस्लिम दोनों के लिए आदर्श: गुरु नानक ने मुस्लिम "अल्लाह" और हिंदू "ब्रह्मा" को एक माना। उन्होंने शासकों के अत्याचारों और धार्मिक नेताओं की दमनकारी प्रथाओं का विरोध किया। उनके साथी, भाई बाला (हिंदू) और भाई मरदाना (मुस्लिम), उनके विचारों के प्रतीक थे।

4.विरासत: गुरु नानक ने सिख धर्म की नींव रखी, जिसे उनके नौ उत्तराधिकारी गुरुओं ने आगे बढ़ाया। वे हिंदू और मुस्लिम दोनों के लिए समान रूप से पूजनीय थे, जैसा कि कहावत में कहा गया:

"गुरु नानक शाह फकीर, हिंदू का गुरु, मुसलमान का पीर।"

उनकी शिक्षाएँ आज भी मानवता, समानता, और शांति के आदर्शों को प्रेरित करती हैं।


गुरु नानक के उपदेश

  • एकेश्वरवाद: गुरु नानक ने इक ओंकार (ईश्वर एक है) का प्रचार किया। ईश्वर निराकार, निर्गुण, शाश्वत और सार्वभौमिक है। उन्होंने बहुदेववाद और कर्मकांडों का विरोध करते हुए भक्ति के माध्यम से ईश्वर से संवाद पर बल दिया। उनकी निर्गुण भक्ति सिख धर्म का आधार बनी।
  • सार्वभौमिक भाईचारा और सौहार्द: गुरु नानक ने जाति, धर्म, लिंग, और वर्ग भेदभाव को खारिज कर समानता और न्याय का संदेश दिया। संगत (समूह प्रार्थना), लंगर (सामुदायिक रसोई), और पंगत (समान पंक्ति में बैठकर भोजन) की प्रथाओं से उन्होंने भाईचारा और सह-अस्तित्व को प्रोत्साहित किया।
  • त्याग का अस्वीकार और आध्यात्मिक मुक्ति: उन्होंने त्याग और संन्यास का विरोध करते हुए सांसारिक कर्तव्यों का पालन करते हुए मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताया। गुरु नानक ने प्रेम, करुणा, और सेवा के माध्यम से मानवीय स्थिति को सुधारने की वकालत की।
  • औपचारिकतावाद का विरोध और मानवतावाद: गुरु नानक ने धार्मिक औपचारिकताओं और रूढ़िवाद का विरोध किया। उन्होंने नैतिक और मानवीय मूल्यों को प्राथमिकता देने पर जोर दिया और समानता, न्याय और सेवा को सच्चे धर्म के गुण बताया।
  • अंतर-विश्वास संवाद: गुरु नानक ने विभिन्न धर्मों के बीच संवाद को बढ़ावा दिया। उन्होंने धार्मिक भेदभाव को नकारते हुए शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और एक-दूसरे से सीखने की संस्कृति का प्रसार किया।
  • लैंगिक समानता: गुरु नानक ने महिलाओं के प्रति असमानता और सामाजिक कुरीतियों (सती, बाल विवाह, पर्दा) का विरोध किया। उन्होंने महिलाओं को सम्मान देने और उनके योगदान को सराहने पर बल दिया। उनके अनुसार, पुरुष और महिला दोनों एक ही दिव्य प्रकाश से प्रभावित हैं।


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.