भारत का इतिहास प्राचीन काल से 300 ce .तक UNIT-3 SEMESTER-1 THEORY NOTES हड़प्पा सभ्यता : प्रारंभिक शहरीकरण, नगर नियोजन, अर्थव्यवस्था, सांस्कृतिक पैटर्न एवं पतन DU. SOL.DU NEP COURSES

भारत का इतिहास प्राचीन काल से 300 ce .तक UNIT-3 SEMESTER-1 THEORY NOTES हड़प्पा सभ्यता : प्रारंभिक शहरीकरण, नगर नियोजन, अर्थव्यवस्था, सांस्कृतिक पैटर्न एवं पतन DU. SOL.DU NEP COURSES


 

सिंधु सभ्यता ( हड़प्पा सभ्यता )

सिंधु सभ्यता, जिसे हड़प्पा सभ्यता भी कहा जाता है, तीसरी और दूसरी सहस्राब्दी के प्रारंभ में सिंधु और उसकी सहायक नदियों के आसपास विकसित हुई एक नगरीय और साक्षर संस्कृति थी। इसके प्रमुख स्थल हड़प्पा (जो रावी नदी के सूखे तल के किनारे स्थित है) और मोहनजोदड़ो (जो सिंधु नदी के 570 किलोमीटर दूर स्थित है) हैं। यह सभ्यता भौगोलिक रूप से केवल सिंधु क्षेत्र तक सीमित नहीं थी, बल्कि यह पूर्व और दक्षिण-पूर्व में नदी तटीय निम्न भूमि, उत्तर में उच्च भूमि क्षेत्रों, और दक्षिण-पश्चिम तथा दक्षिण-पूर्व के तटीय कटिबंधों तक फैली हुई थी। हड़प्पा सभ्यता ने अपनी समयावधि में एक सुसंगत नगरीय जीवनशैली, उन्नत स्थापत्य कला, और व्यापारिक नेटवर्क का विकास किया था।

सिंधु सभ्यता का स्वरूप

सिंधु सभ्यता को एक विशिष्ट और उन्नत सभ्यता माना जाता है, जिसके कुछ मुख्य तत्त्व इसे भारतीय उपमहाद्वीप की अन्य समकालीन संस्कृतियों और पश्चिम एशिया तथा मिस्र के कांस्य युग से अलग बनाते हैं। इसके प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं :-

  • साक्षरता : सिंधु सभ्यता अपने समय की एकमात्र साक्षर सभ्यता थी। अब तक 4000 से अधिक सिंधु अभिलेख प्राप्त हुए हैं। हालाँकि इस लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है, लेकिन इसके उपयोग की संभावना वाणिज्यिक, व्यक्तिगत पहचान और नागरिक उद्देश्यों के लिए रही होगी।
  • अधिवास पद्धति : नगर और कस्बों पर आधारित अधिवास प्रणाली इस सभ्यता की खास विशेषता थी। नगर-केंद्रों का विशेष महत्व था, जहाँ बड़ी संरचनाएँ बनाई गईं जो श्रम और संसाधनों की जरूरत को दर्शाती हैं। प्रमुख नगरों में मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, गंवरीवाला (चोलिस्तान), धौलावीरा (कच्छ), और राखीगढ़ी (हरियाणा) शामिल हैं, जो सभ्यता के व्यापक प्रसार और सामाजिक-संरचना का संकेत देते हैं।
  • शिल्प और निर्माण कला : नगरों से प्राप्त जेवर, मूर्तियाँ और मोहरें यह दिखाती हैं कि यहाँ शिल्प-उत्पादन नगरवासियों की माँग के अनुरूप था। इन वस्तुओं की एकरूपता यह बताती है कि एक व्यवस्थित शिल्प उत्पादन प्रणाली थी जो विशेष रूप से शहरी माँगों को पूरा करती थी।
  • योजना निर्माण : नगरों की संरचना, योजनाबद्ध निर्माण, और विस्तृत लिपिबद्ध कार्य के प्रमाण से यह संकेत मिलता है कि सभ्यता में एक प्रभावी प्रशासकीय संगठन मौजूद था। इसके तहत अलग-अलग आकार और स्वरूप वाले नागर और ग्राम्य अधिवास परस्पर जुड़े हुए थे।
  • राजकीय समाज की उपस्थिति : सिंधु सभ्यता के अधिकांश पुरातात्त्विक साक्ष्य एक राजकीय समाज की ओर संकेत करते हैं। हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि यह सभ्यता एक ही साम्राज्य के अंतर्गत थी या कई नगर-राज्य थे। नगरों की संरचना से यह भी संभावना है कि ये नगर-राज्य के रूप में कार्यरत रहे हों, जहाँ कुलीन वर्ग, व्यापारी और शिल्पकार प्रमुख भूमिका निभाते थे।


सिंधु सभ्यता की मुख्य विशेषताएँ

सिंधु सभ्यता ने अपने समय की समकालीन कांस्ययुगीन सभ्यताओं जैसे मेसोपोटामिया की सुमेरी सभ्यता और मिस्र के साम्राज्य से कई समानताएँ रखने के बावजूद अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। इसके प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित हैं :-

  • विस्तृत भूभाग : सिंधु सभ्यता दस लाख वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र में फैली थी, जो इसे अपने समय की सबसे बड़ी नगरीय संस्कृति वाली सभ्यता बनाती है।
  • धार्मिक और शाही संरचनाओं का अभाव : अन्य सभ्यताओं की तरह यहाँ भव्य धार्मिक पूजा स्थल, विशाल समाधि स्थल और राजाओं के लिए महल नहीं बनाए गए। इसके स्थान पर नागरिक सुविधाओं पर अधिक ध्यान दिया गया।
  • सुव्यवस्थित नगरीय ढाँचा : सिंधु सभ्यता के नगरों में नागरिकों के लिए कई सुविधाएँ उपलब्ध थीं, जैसे:-

1. बड़े स्नानगृहों और कमरे वाले मकान

2. सड़कों और गलियों का सुव्यवस्थित नेटवर्क

3. जल निकासी की बेहतरीन व्यवस्था

4. जलापूर्ति के लिए एक अद्वितीय प्रणाली

  • जल प्रबंधन : धौलावीरा में बने बाँध, जलाशय और भूमिगत नालियों के नेटवर्क इस सभ्यता की जल प्रबंधन क्षमता को दर्शाते हैं। मोहनजोदड़ो में हर तीसरे घर में बेलनाकार कुएँ थे, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यहाँ के निवासी पानी की सुविधाओं के मामले में समृद्ध थे। इसके विपरीत, मिस्र और मेसोपोटामिया में लोग नदी से बाल्टी में पानी लाने पर निर्भर थे।


सिंधु सभ्यता : पृष्ठभूमि और उद्भव

  • सिंधु सभ्यता का उद्भव भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमी भाग में हुआ, जो दिल्ली-अरावली-खंभात के अक्ष के पश्चिम में स्थित था। ईसा पूर्व लगभग 7,000 वर्ष पहले, इस क्षेत्र में कृषक समुदायों का विकास हुआ, जो बाद में नगर-केंद्रों के रूप में विकसित हुए। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जैसे प्रमुख स्थलों के साथ-साथ, सिंधु सभ्यता का विस्तार सिंधु नदी और उसकी सहायक नदियों के इर्द-गिर्द, पूर्व में नदी तटीय निम्न भूमि और उत्तर में उच्च भूमि क्षेत्रों तक था।
  • सिंधु सभ्यता के विकास को समझने के लिए यह जरूरी है कि हम इस क्षेत्र की पूर्ववर्तिता को देखें। ईसा पूर्व चौथी सहस्राब्दी के प्रारंभ में हकरा मृदमांड संस्कृति का विकास हुआ, जो चोलिस्तान क्षेत्र में विशेष रूप से व्याप्त थी। इसके बाद, अमरी संस्कृति का उदय हुआ, जो विशेष रूप से सिंधु सभ्यता से जुड़ी योजनाबद्ध बस्तियों और आर्किटेक्चर के प्रारंभिक रूपों को दर्शाती है। कोटदीजी संस्कृति के साथ सिंधु-हकरा क्षेत्रों में समान सांस्कृतिक तत्व दिखते हैं, जिसमें सिंधु सभ्यता की विशिष्ट विशेषताएँ जैसे नगर योजना, जल निकासी प्रणाली और मानकीकरण की झलक मिलती है।
  • इस विकास के आधार पर, सिंधु सभ्यता का उद्भव स्वदेशी था और यह पश्चिम एशिया के प्रभाव से नहीं आया था, जैसा कि कुछ इतिहासकारों ने माना है। इसके बजाय, यह स्थानीय पाषाण-कॉस्य संस्कृतियों की पुरोगामी अवस्था के रूप में विकसित हुई।


सिंधु सभ्यता का कालक्रम 

सिंधु सभ्यता का विकास और अंत अलग-अलग समय पर विभिन्न क्षेत्रों में हुआ। 

  • प्रारंभिक उद्भव : यह सभ्यता ईसा पूर्व 2600 के आसपास पूर्ण रूप से विद्यमान थी, और इसका मेसोपोटामिया से संबंध स्थापित हो चुका था। इसके प्रारंभिक केंद्र सिंध की निम्न भूमि, चोलिस्तान, और संभवतः कच्छ क्षेत्र में परिपक्व हुए। बाद में  हड़प्पा, कालीबंगन, और बनावली जैसे नगर थोड़े समय बाद विकसित हुए और सभ्यता का विस्तार हुआ।
  • विभिन्न क्षेत्रों में पतन : मोहनजोदड़ो का पतन लगभग ईसा पूर्व 2200 में शुरू हुआ और 2100 ईसा पूर्व तक यह नगर समाप्त हो गया। अन्य क्षेत्रों में यह सभ्यता लगभग 2000 ईसा पूर्व तक विद्यमान रही और कुछ स्थलों पर यह 1800 ईसा पूर्व तक बनी रही।


भौगोलिक वितरण

सिंधु सभ्यता का भौगोलिक वितरण बहुत ही व्यापक और विविध था। 

  • सिंध और लरकाना क्षेत्र : सिंध की निम्न भूमि में स्थित मोहनजोदड़ो, कृषि और जलस्रोतों के लिए प्रमुख था। मंछार झील के आसपास मछुआरों की बस्तियाँ थीं। पास के सुक्कुर-रोढ़ी पहाड़ियों में चकमक पत्थर के खदानों के पास श्रमिकों की बस्तियाँ पाई गईं।
  • बलूचिस्तान और तटीय क्षेत्र : बलूचिस्तान में सिंधु सभ्यता की बस्तियाँ कई स्थानों पर थीं। तटीय क्षेत्र सुत्कागेंडोर और सोत्का-कोह समुद्री व्यापार के महत्वपूर्ण स्थल थे, जो फारस की खाड़ी और मेसोपोटामिया से जुड़े थे। मुख्य भूमि के रास्तों से जुड़े ये स्थल महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र थे और अयस्क और रत्न जैसे तांबा, शीशा, लाजवर्द और फिरोजा की आपूर्ति में सहायक थे।
  • पंजाब का दोआब क्षेत्र : पंजाब में हड़प्पा नगर रावी और व्यास नदियों के बीच स्थित था। दोआब क्षेत्रों में हड़प्पा सभ्यता के कई स्थल थे। चोलिस्तान के क्षेत्र में 174 हड़प्पा स्थल पाए गए, जो राजस्थान से तांबा आयात करते थे और शिल्प उत्पादन का बड़ा केंद्र थे।
  • सिंधु-गंगा का कछारी भूखंड : सतलज और यमुना के बीच के कछारी क्षेत्रों में घग्गर नदी के किनारे कालीबंगन, बनवाली, और राखीगढ़ी जैसे प्रांतीय केंद्र थे।राखीगढ़ी हरियाणा में सबसे बड़ा नगर था, जो हड़प्पा की तुलना में भी बड़ा माना गया है।
  • गुजरात, कच्छ और खंभात : कच्छ के रण का प्रमुख स्थल धौलावीरा था, जो ज्वारीय पंक के विस्तृत मैदान में स्थित था।
  • सौराष्ट्र में लोथल  एक प्रमुख पत्तन नगर था और खंभात की खाड़ी के किनारे स्थित भगतराव सिंधु सभ्यता का दक्षिणतम स्थल था।


सिंधु सभ्यता की अधिवासीय पद्धति

सिंधु सभ्यता में नगर और ग्रामीण दोनों प्रकार के स्थलों का समावेश था, जिनकी कार्यक्षमता और आकार में विविधता थी। मुख्य अधिवासीय प्रकार इस प्रकार थे:

  • विशाल नगर-केंद्र : सिंधु सभ्यता में मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, धौलावीरा, और राखीगढ़ी जैसे बड़े नगर थे। इनमें से राखीगढ़ी (हरियाणा) सबसे बड़ा था, जो लगभग 550 हेक्टेयर में फैला था। इन नगरों में सार्वजनिक और
  • आवासीय क्षेत्रों का स्पष्ट विभाजन था : मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में दो टीलों का निर्माण हुआ, जहाँ सार्वजनिक और आवासीय क्षेत्रों को अलग किया गया। धौलावीरा में नगर को तीन भागों में बाँटा गया था : किला, निचला नगर, और कस्बा, और जल प्रबंधन के लिए विशाल जलाशय और बांध बनाए गए थे।
  • प्रांतीय केंद्र : सिंधु सभ्यता के प्रमुख नगरों के अलावा, छोटे प्रांतीय केंद्र भी थे, जैसे कालीबंगन, लोथल, कोटदीजी, बनवाली, और अमरी। ये केंद्र योजनाबद्ध रूप से बने थे और मुख्य नगरों से मिलती-जुलती संरचनाओं वाले थे कालीबंगन में अग्नि वेदियाँ पाई गईं, और लोथल में व्यापारिक गतिविधियों के लिए नदी से जुड़ा जलमार्ग था।
  • लघु-नगरीय स्थल : छोटे नगरीय स्थल, जैसे अल्लाहदीनो (सिंध) और कुंटासी (गुजरात), भी सिंधु सभ्यता का हिस्सा थे। ये स्थल आकार में छोटे होते हुए भी शिल्प और औद्योगिक गतिविधियों के लिए महत्वपूर्ण थे।
  • ग्रामीण और अर्द्ध-यायावरीय अधिवास : नगरों के आसपास गाँव और अर्द्ध-यायावरीय अधिवास भी थे, जो नगरों को कृषि उत्पाद और अन्य आवश्यक वस्तुएँ प्रदान करते थे। उदाहरण के रूप में कानेवाल (गुजरात) में गहरे सांस्कृतिक निक्षेप और कुटीरों की संरचनाएँ पाई गईं, जो स्थायी ग्रामीण अधिवासों को दर्शाती हैं।
  • अधिवास का प्रकार और आकार : सिंधु सभ्यता के स्थलों को ग्राम्य और नगरीय के आधार पर वर्गीकृत करना चुनौतीपूर्ण था। उदाहरण के लिए, चोलिस्तान में बड़े स्थल यायावरीय थे, जबकि कुंटासी जैसे छोटे स्थल नगरीय अधिवास माने जाते थे।


सिंधु सभ्यता की जीवन-निर्वाह

सिंधु सभ्यता की जीवन-निर्वाह पद्धति में कृषि, पशुपालन, आखेट और वनस्पति-संचयन का संतुलित मिश्रण था, जो इस सभ्यता के नगरीय केंद्रों के आर्थिक पोषण का आधार बनता था। इसके प्रमुख बिंदु निम्नलिखित हैं:

  • कृषि और हल का उपयोग : सिंधु सभ्यता के लोग हल का उपयोग करते थे। चोलिस्तान के सिंधु स्थलों और बनावली में पक्की मिट्टी से बने हल पाए गए हैं, और कालीबंगन की खुदाई में हल से जोते गए खेतों के निशान मिले हैं। मिश्रित फसल की प्रणाली भी अपनाई जाती थी, जिससे एक ही खेत में दो फसलें उगाई जा सकती थीं। उदाहरणस्वरूप, कालीबंगन में सरसों और कुलथी की फसल एक साथ उगाई जाती थी। सिंधु क्षेत्र में गेहूँ और जौ जैसी फसलें प्रमुख थीं, जबकि गुजरात में चावल और ज्वार-बाजरा जैसी फसलों की खेती की जाती थी।
  • फसल और कृषि विविधता : सिंधु सभ्यता में विभिन्न प्रकार की फसलें उगाई जाती थीं, जिनमें गेहूँ, जौ, मटर, मसूर, तिल, सन, रुई और शिंब शामिल थे। विशेष रूप से, रुई (कपास) की खेती सिंध में सिंचाई की मदद से की जाती थी।गुजरात के हड़प्पा स्थल पर चावल और मडुआ के प्रमाण मिले हैं, जिससे सिद्ध होता है कि वहां भी कृषि विविधता थी।
  • पशुपालन : मवेशियों का माँस सिंधु लोगों का प्रिय आहार था। मवेशियों और भैंसों की हड्डियाँ सभी स्थलों पर मिली हैं, जिससे सिद्ध होता है कि मांस के अलावा कृषि कार्यों में भी इनका उपयोग किया जाता था। मटन भी एक लोकप्रिय आहार था, और लगभग सभी स्थलों पर भेड़-बकरियों की अस्थियाँ पाई गई हैं।गुजरात के शिकारपुर में पाए गए अवशेष दर्शाते हैं कि मवेशियों और भैंसों का उपयोग उनके जीवन के तीन से आठ वर्ष तक किया जाता था, इसके बाद उनका वध किया जाता था।
  • वन्य पशुओं का आखेट : आखेट भी एक महत्वपूर्ण गतिविधि थी, और हड़प्पा स्थलों पर जंगली पशुओं की अस्थियाँ बड़ी मात्रा में पाई गई हैं। इसमें जंगली भैंस, हिरण, जंगली सूअर, गर्दभ और खरगोश शामिल थे।
  • मछली और समुद्री जीव : मछली और समुद्री मोलस्क (मॉलस्क) भी उनके आहार का हिस्सा थे। सिंधु क्षेत्र में मछली की हड्डियाँ और समुद्री जीवों के अवशेष प्रायः मिले हैं।
  • वनस्पति-संचयन : सिंधु सभ्यता के लोग जंगली काष्ठफल और घासों का भी उपभोग करते थे। गुजरात के सुरकोटदा में मिले बीजों में बड़ी मात्रा में काष्ठफल और घासों के बीज शामिल थे।


सिंधु सभ्यता की शिल्पगत उत्पादन प्रणाली

सिंधु सभ्यता की शिल्पगत उत्पादन प्रणाली एक विकसित और विविधतापूर्ण थी, जो विभिन्न प्रकार के शिल्प-उत्पादों के निर्माण और उनके वितरण में परिलक्षित होती है। इस सभ्यता में कारीगरों ने जटिल तकनीकों का प्रयोग करते हुए विभिन्न प्रकार की कच्ची सामग्रियों का उपयोग किया और गुणवत्ता के उच्चतम मानकों को बनाए रखा।

  • धातु का व्यापक उपयोग : सिंधु सभ्यता मुख्यत में कांस्य और तांबा आधारित संस्कृति थी, जिसमें शुद्ध तांबे और कांस्य के साथ-साथ तांबा-शीशा और तांबा-निकल मिश्रणों का भी प्रयोग किया गया। तांबे से बने उपकरण और आभूषण जैसे जेवर व्यापक रूप से निर्मित और उपयोग किए जाते थे, जो उस समय के समाज में उच्च स्तर के धातुकर्म को दर्शाते हैं।
  • सिंधु की मोहरें : सिंधु की वर्गाकार और आयताकार मोहरें, जिन पर एकशृंगी जैसे जानवरों के चित्र उत्कीर्ण थे, व्यापार और पहचान के प्रतीक थीं। मोहरों का उपयोग वाणिज्यिक और निजी पहचान के लिए किया जाता था, और उनके निर्माण में कारीगरों का उच्च स्तर का कौशल दिखाई देता है। नगरों के परित्याग के बाद, ये मोहरें धीरे-धीरे समाप्त हो गईं।
  • पत्थर की मूर्तियाँ : सिंधु सभ्यता में पत्थर की नक्काशी का महत्त्व था, जिसमें मनुष्यों और जानवरों की मूर्तियाँ भी शामिल थीं। एक प्रसिद्ध मूर्ति "पुरोहित राजा" की है, जिसे धार्मिक और राजनीतिक महत्ता के लिए बनाया गया था।
  • मनके और आभूषण : सिंधु में मनके विशेष रूप से लोकप्रिय थे, जैसे कि लंबे पीपा वाले कार्नेसियन मनके। इनके निर्माण में महीन कारीगरी की आवश्यकता होती थी, जिसमें 6-13 सेंटीमीटर लंबे मनके का छेदन करने में कई दिन लगते थे। इस प्रकार के मनके चन्हुदड़ो में बनाए जाते थे और नगरों के परित्याग के बाद इन विशेष वस्त्र-प्रसाधनों का निर्माण भी समाप्त हो गया।
  • शिल्प उत्पादन का मानकीकरण : शिल्प उत्पाद जैसे कि सीपी के कड़े गुजरात के नागवाड़ा और नागेश्वर तथा सिंध के चन्हुदड़ो में बनाए जाते थे। इनकी चौड़ाई 5 से 7 मिलीमीटर तक सीमित रहती थी और आरी की धार भी मानकीकृत 0.4 से 0.6 मिलीमीटर तक होती थी। निर्माण तकनीकी में मानकीकरण का यह स्तर यह दर्शाता है कि शिल्प के नियमों और डिजाइनों को सभी स्थानों पर एक समान रखा गया था।
  • कच्चे माल की दूरी से प्राप्ति : सिंधु सभ्यता में निर्माण के लिए कई बार उन कच्ची सामग्रियों का उपयोग किया जाता था, जो स्थानीय रूप से उपलब्ध नहीं थीं। उदाहरण के लिए, मोहनजोदड़ो में टर्बिनेला पाइरम नामक समुद्री मोलस्क का उपयोग शिल्प-निर्माण में होता था, जिसे सिंध और बलूचिस्तान के तटीय क्षेत्रों से लाया जाता था। इसी प्रकार, हड़प्पा में तांबा आधारित शिल्प निर्माण के साक्ष्य भट्टियों और धातु की मैल के रूप में मिले हैं, जबकि हड़प्पा क्षेत्र में धातु खनिजों का अभाव था।


सिंधु सभ्यता का व्यापारिक ढांचा

सिंधु सभ्यता का व्यापारिक ढांचा बेहद संगठित और विस्तृत था, जिसने उनके शिल्प उत्पादन को स्थिरता और विकास की दिशा दी। सिंधु सभ्यता के लोग स्थानीय और दूरस्थ दोनों क्षेत्रों से कच्ची सामग्रियों और संसाधनों को संकलित करने में कुशल थे। इस व्यापक व्यापारिक नेटवर्क ने उनके समाज की आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा किया और सिंधु की संस्कृति को एक सुदृढ़ सामाजिक ढांचा प्रदान किया।

  • व्यापार का संगठन और नेटवर्क : सिंधु सभ्यता के व्यापारी राजस्थान से अफगानिस्तान तक आवश्यक कच्ची सामग्रियों को संकलित करते थे। उदाहरण के लिए, कुल्ली क्षेत्र के ताम्र-पाषाण स्थलों में सिंधु की एकशृंगी मोहरें और मृदभांड पाए गए, जो आपसी संपर्क का प्रमाण हैं। इसी प्रकार, राजस्थान के गणेश्वर-जोधपुरा के स्थलों पर हड़प्पा के मृदभांडों और उपकरणों की शैलीगत समानताओं से पता चलता है कि इन दोनों संस्कृतियों में वस्तुओं और डिजाइनों का आदान-प्रदान होता था।
  • खाद्य और शिल्प वस्त्रों का व्यापार : सिंधु सभ्यता में भोजन भी व्यापार का एक भाग था। हड़प्पा जैसे स्थल, जो समुद्र से दूर थे, वहाँ समुद्री कैटफिश की उपस्थिति से पता चलता है कि खाद्य वस्तुओं का भी व्यापार होता था। शिल्प उत्पादों का भी व्यापार हुआ करता था। नागेश्वर जैसे छोटे केंद्र मोहनजोदड़ो को सीपी से बनी वस्तुएँ प्रदान करते थे, और मोहनजोदड़ो भी सिंध की रोढ़ी पहाड़ियों से चर्ट प्राप्त करता था।
  • विशिष्ट शिल्प वस्तुओं का आदान-प्रदान : मोहनजोदड़ो में निर्मित शिलामाण्ड के कड़े हड़प्पा में पाए गए, जो लगभग 570 किलोमीटर दूर है। इस व्यापारिक संबंध के पीछे का सामाजिक तंत्र पूरी तरह स्पष्ट नहीं है, लेकिन यह व्यापारिक आदान-प्रदान के साथ-साथ सांस्कृतिक और सामाजिक रिश्तों का भी सूचक हो सकता है।
  • अंतरराष्ट्रीय संपर्क : सिंधु सभ्यता का व्यापक संपर्क अफगानिस्तान, ईरान, फारस की खाड़ी, तुर्कमेनिस्तान और मेसोपोटामिया के क्षेत्रों से था। इन स्थानों से कार्नेलियन, सीपी, हाथी दाँत, तथा विभिन्न आभूषण और मोहरें सिंधु सभ्यता के संपर्क और व्यापारिक रिश्तों का सबूत हैं। सिंधु सभ्यता की मोहरें और अन्य विशेषताएँ, जैसे हाथी दाँत के सामान और लैंगिक मूर्तियाँ, बाहर के बाजारों में भी भेजी जाती थीं और स्थानीय संस्कृति पर सिंधु सभ्यता का प्रभाव भी देखा गया है।
  • स्थानीय संसाधनों पर निर्भरता : सिंधु सभ्यता ने अपने व्यापार में बलूचिस्तान के पूर्वी क्षेत्र से तांबे और कार्नेलियन जैसी सामग्रियाँ जुटाई, लेकिन उनकी निर्भरता मुख्य रूप से स्थानीय संसाधनों पर थी। उनके मुख्य शिल्प केंद्रों के निकट ही कई आवश्यक कच्ची सामग्रियाँ उपलब्ध थीं। सिंधु सभ्यता से पूर्व की संस्कृतियाँ भी इन संसाधनों का उपयोग करती थीं, और हड़प्पा सभ्यता के अंत के बाद भी यह प्रवृत्ति दिखी।


सिंधु सभ्यता के धार्मिक विश्वास

सिंधु सभ्यता के धार्मिक विश्वासों को समझना एक चुनौती है, क्योंकि इस सभ्यता का लेखन अभी तक पूरी तरह समझा नहीं जा सका है। सिंधु सभ्यता के धार्मिक दृष्टिकोण के मुख्य संकेत उनके भौतिक अवशेषों, मूर्तियों, चित्रणों, और पवित्र उद्देश्यों के लिए पृथक रखे गए क्षेत्रों से ही प्राप्त होते हैं।

  • पवित्र जल का उपयोग : मोहनजोदड़ो में विशाल स्नानागार इसका महत्वपूर्ण उदाहरण है, जो एक आयताकार कुंड है और संभवतः पवित्र जल से संबंधित अनुष्ठानों के लिए प्रयोग होता था। इसके चारों ओर संकेंद्रित क्षेत्र और सड़कें थीं, जो इसे धार्मिक शोभायात्राओं का केंद्र बनाती हैं। कालीबंगन में भी ऐसे स्नान के स्थान और अर्पण के गड्डे मिले हैं, जो धार्मिक स्वच्छता का प्रतीक हैं।
  • नारी मूर्तियों और प्रजनन प्रतीकों का उपयोग : नारी मूर्तियाँ धार्मिक आस्था का हिस्सा थीं, हालांकि ये उतनी आम नहीं थीं। मोहनजोदड़ो में पक्की मिट्टी की केवल 475 मूर्तियाँ नारी को दर्शाती हैं। पुरुष प्रजनन प्रतीक भी दिखाई देते हैं, जैसे कि शिव-पशुपति की मोहर और लैंगिक पत्थर। कालीबंगन से प्राप्त अंडाकार चौरस स्थान में स्थित टेराकोटा की मूर्तियाँ प्रजनन प्रतीकों की महत्ता को दर्शाती हैं।
  • प्रकृति पूजा : सिंधु सभ्यता में प्रकृति पूजा का प्रभाव दिखता है। मोहरों पर पेड़ और पशु चित्रण, जैसे कि पीपल के पेड़ पर बैठा हुआ मानव या अंशतः मानव व अंशतः पशु वाली आकृतियाँ, एक शमानी (shamanistic) धार्मिक परंपरा का संकेत देती हैं।
  • मंदिरों और पूजा स्थलों का अभाव : सिंधु सभ्यता में मिस्र या मेसोपोटामिया की तरह भव्य मंदिर या पूजा स्थल नहीं पाए गए हैं। यह दर्शाता है कि उनका धर्म अधिक सामुदायिक और व्यक्तिगत था, जो मुख्य रूप से प्रतीकों और शिल्प में प्रकट होता है।
  • पशुपति और पशु प्रतीक : पशुपति की छवि और अन्य जानवरों की आकृतियाँ संकेत देती हैं कि संभवतः पशुओं को पवित्र माना जाता था और उन्हें धार्मिक आस्था से जोड़ा गया था।


सिंधु सभ्यता का पतन

सिंधु सभ्यता का पतन और अंत कई जटिल कारकों के कारण हुआ। सिंधु नगरों का ह्रास विभिन्न तरीकों से सामने आया। जैसे मोहनजोदड़ो में कमजोर संरचनाएं और घटिया ईंटें उपयोग में लाई जाने लगीं, वहीं धौलावीरा का भी धीरे-धीरे परित्याग हुआ। इसी तरह, कालीबंगन और बनावली का परित्याग अचानक हुआ। इसका कारण एकल घटना नहीं बल्कि कई घटनाओं का मिश्रण था, और इनके महत्त्व पर आज भी इतिहासकारों के बीच बहस जारी है।

पतन के संभावित कारण

  • आर्य आक्रमण का सिद्धांत : पहले माना जाता था कि आर्यों के आक्रमण से सिंधु सभ्यता का पतन हुआ। लेकिन बाद के शोधों ने इस विचार को चुनौती दी, क्योंकि आर्यों द्वारा नगरों पर आक्रमण और सामूहिक हत्याकांड का पुरातात्त्विक प्रमाण पर्याप्त नहीं है।
  • पर्यावरणीय कारक और जलवायु परिवर्तन : सिंधु क्षेत्र में जलवायु और नदियों का परिवर्तन भी प्रमुख कारण माना गया है। कई स्थलों पर बाढ़ से क्षति के प्रमाण मिले हैं, जिससे नगरों में गाद जमा हुई। विशेष रूप से घग्गर-हकरा नदी के प्रवाह में कमी ने वहां के क्षेत्रों को शुष्क बना दिया, जिससे कृषि और जल-आधारित गतिविधियों पर प्रभाव पड़ा।
  • मानवजनित कारक : सिंधु सभ्यता में संसाधनों की अत्यधिक खपत और पर्यावरण पर दबाव ने भी इसमें भूमिका निभाई। नगरों की बढ़ती मांग और चारा, ईंधन आदि की जरूरतें संतुलन से बाहर हो गईं, जिससे सभ्यता पर दबाव बढ़ा।
  • विविध सामाजिक-आर्थिक कारक : सिंधु सभ्यता की जटिल नगरीय प्रणाली विभिन्न उप-प्रणालियों के संतुलन पर आधारित थी। जैसे-जैसे संतुलन टूटता गया, सभ्यता का पतन भी बढ़ता गया। इसके बाद के काल में सिंधु सभ्यता के अवशेष संस्कृति में बने रहे, लेकिन वे पूर्ववर्ती रूप से काफी भिन्न थे।









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