प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय राजनीतिक विचार UNIT 3 CHAPTER 4 SEMESTER 3 THEORY NOTES बृहस्पति शासन-कला, न्याय और अंतर-राज्य संबंध POLITICAL DU. SOL.DU NEP COURSES

 

प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय राजनीतिक विचार UNIT 3 CHAPTER 4 SEMESTER 3 THEORY NOTES  बृहस्पति शासन-कला, न्याय और अंतर-राज्य संबंध POLITICAL DU. SOL.DU NEP COURSES


परिचय

वैदिक परंपराओं में बृहस्पति को देवताओं के गुरु और धर्म के प्रतीक के रूप में माना गया है। वे देवताओं के पुरोहित, ज्ञान के देवता, और इंद्र के सलाहकार थे। उनका उल्लेख महाभारत और पुराणों में ऋषि अंगिरस या अग्नि के पुत्र के रूप में हुआ है। बृहस्पति राजनीति के महान प्रशिक्षक माने गए, जिनकी रचनाओं में बृहस्पति सूत्र और बृहस्पति स्मृति प्रमुख हैं। उनकी शिक्षाएँ अराजकता, मानव अहंकार, और तृष्णा के कारण सामाजिक पतन की चिंता व्यक्त करती हैं। उनका मानना था कि स्वर्ण युग में समाज सहयोग और सद्भाव से चलता था, लेकिन मत्स्य न्याय (शक्तिशाली का कमजोर पर शासन) के कारण राजा की आवश्यकता स्पष्ट हुई। उनकी रचनाएँ राज्य और सामाजिक व्यवस्था की अहमियत को रेखांकित करती हैं।


शासन-कला 

बृहस्पति के अनुसार, अधिकार के बिना आदेश संभव नहीं है, और इसकी अनुपस्थिति अराजकता को जन्म देती है। शक्तिशाली कमजोर का शोषण करता है, पारिवारिक रिश्ते और दायित्व खत्म हो जाते हैं, और समाज में संघर्ष और प्राकृतिक आपदाएँ बढ़ जाती हैं।राज्य की संरचना पर बृहस्पति वैज्ञानिक और भौतिकवादी दृष्टिकोण अपनाते हैं। उनके अनुसार, राज्य का गठन व्यावहारिक और आदर्श दोनों कारणों से होता है, और इसका उद्देश्य एक उच्च लक्ष्य प्राप्त करना है। बृहस्पति राज्य को एक जीवित प्रणाली मानते हैं, जिसकी संरचना और कार्यप्रणाली सात अंगों या तत्वों के सामूहिक प्रयासों पर आधारित है। यह सप्तांग सिद्धांत मनु और कौटिल्य के विचारों से भी मेल खाता है।

इन सात प्रकृति में से कुछ को बृहस्पति द्वारा पूर्ण रूप से स्पष्ट किया गया है।

1. राजा 

  • राजा की भूमिका: बृहस्पति के अनुसार, राजा का चुनाव समाज की सुरक्षा और आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए सर्वोत्तम व्यक्ति से होना चाहिए। राजा को अपनी दैवीय उत्पत्ति के कारण अत्यधिक शक्ति प्राप्त होती है और उसे समाज में व्यवस्था बनाए रखने का जिम्मा सौंपा जाता है।
  • राजा की दैवीय उत्पत्ति: बृहस्पति का मानना था कि राजा भगवान द्वारा बनाए गए थे और उन्हें समाज में शांति बनाए रखने और असामाजिक तत्वों को दंडित करने का अधिकार प्राप्त था। राजा के आदेशों के खिलाफ किसी भी प्रकार की अवज्ञा को ईश्वर के खिलाफ माना गया।
  • राजा के कर्तव्य: राजा को समाज की भलाई के लिए कार्य करना चाहिए, जैसे कि न्याय का पालन, प्रेम और दान का प्रचार, तथा लोगों की संपत्ति की रक्षा करना। राजा को स्वयं के बजाय लोगों की भलाई के लिए काम करना चाहिए।
  • राजा का चयन: बृहस्पति के अनुसार, राजा का चयन महत्वपूर्ण होता है, हालांकि वह वंशानुगत राजशाही के पक्षधर थे और इसे सर्वोत्तम समझते थे। वे मानते थे कि राजा को समाज में व्यवस्था बनाए रखने के लिए चुना जाता है, लेकिन चुनाव प्रक्रिया को कम महत्त्व दिया गया था।

  • राजा की जिम्मेदारियाँ: 

1. बाहरी आक्रमणों से रक्षा

2. चोरी और डकैती से सुरक्षा

3. अधिक शक्तिशाली लोगों से रक्षा

  • राजा के कर्तव्यों में विविधता: राजा को व्यापार, वाणिज्य और कृषि को बढ़ावा देना चाहिए। उसे समाज के उच्च और निम्न वर्ग के बीच सामंजस्य बनाए रखना चाहिए और अपने राज्य में शांति व समृद्धि लानी चाहिए।
  • राजा के पद की महत्ता: बृहस्पति का मानना था कि राजा को अपनी शक्ति का सही उपयोग करना चाहिए और समाज में अच्छे शासन के लिए काम करना चाहिए। वह इस बात पर जोर देते थे कि एक अच्छा राजा स्वर्ग में जाएगा, जबकि एक बुरा राजा नरक में जाएगा।

2. मंत्रिपरिषद

  • राजा और मंत्रिपरिषद का संबंध: बृहस्पति के अनुसार, राजा अकेले शासन नहीं कर सकता। उसे एक सक्षम मंत्रिपरिषद की जरूरत होती है, जो उसके आदेशों को पूरा करे।
  • मंत्रिपरिषद का चयन: बृहस्पति ने मंत्रिपरिषद के सदस्य चुनने में योग्यता को महत्वपूर्ण माना। सदस्य केवल उनके गुण और क्षमता के आधार पर चुने जाने चाहिए, न कि जाति या परिवार के आधार पर।
  • वर्ण व्यवस्था और योग्यता: बृहस्पति के अनुसार, मंत्रिपरिषद में केवल उच्च वर्ण के लोग ही हो सकते हैं। निचले वर्ण के लोग इस पद के लिए योग्य नहीं होते।
  • राजनीति और अवसर की समानता: बृहस्पति योग्यता के आधार पर चयन के पक्षधर थे, लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि सभी को समान अवसर मिले। उन्होंने कहा कि उच्च वर्ण के लोग ही इस पद के लिए उपयुक्त होते हैं।
  • राजा और मंत्रिपरिषद का सहयोग: बृहस्पति के अनुसार, राजा को अपने मंत्रियों के साथ मिलकर राज्य चलाना चाहिए, ताकि राज्य का संचालन सही तरीके से हो सके।

3. राष्ट्र 

  • राष्ट्र का स्थान: बृहस्पति के अनुसार, राष्ट्र राज्य का तीसरा घटक है, जिसमें पहले स्थान पर राजा और दूसरे स्थान पर मंत्रिपरिषद है।
  • आर्थिक दृष्टिकोण: बृहस्पति राष्ट्र को एक एकीकृत आर्थिक प्रणाली मानते हैं। उनका मानना है कि राष्ट्र को ठोस आर्थिक नीति के बिना अस्तित्व में नहीं लाया जा सकता।
  • राष्ट्र की अखंडता: बृहस्पति राज्य की पूर्णता में विश्वास करते हैं और राष्ट्र की भूमि की अखंडता पर बल देते हैं।
  • कल्याणकारी राज्य: बृहस्पति और व्यास दोनों का कल्याणकारी राज्य की अवधारणा समान है, जिसमें राज्य का मुख्य उद्देश्य समाज की सुरक्षा और कल्याण है।
  • राज्य और विद्रोह: बृहस्पति राज्य के निर्माण के कारणों और विद्रोह के बीच स्पष्ट अंतर नहीं कर पाते। वह एक अच्छे नेता के पक्षधर हैं, लेकिन बुरा नेता होने पर किसी भी विद्रोह का समर्थन नहीं करते।
  • समाज में परिवर्तन: महाभारत में शक्तिहीन लोग राज्य की धुरी के रूप में कार्य करते हैं, जबकि बृहस्पति के विचारों में वे अनुपस्थित हैं, जो भारतीय समाज में परिवर्तन को दर्शाता है।

4. कोष और खज़ाना 

  • कोष का महत्त्व: बृहस्पति के अनुसार, धन के बिना राज्य का अस्तित्व नहीं हो सकता। यह राज्य के स्थिरीकरण, व्यापार को बढ़ावा देने, और राज्य के प्रति वफादारी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  • धन की रक्षा और उपयोग: राजा को धन की रक्षा करनी चाहिए, उसे बढ़ाना चाहिए, और उचित उद्देश्यों के लिए उपयोग करना चाहिए। अगर धन सुरक्षित नहीं है, तो राज्य में शत्रुओं का शासन हो सकता है।
  • स्नातक कर प्रणाली: बृहस्पति ने करों की प्रणाली पर विचार किया और स्नातक करों (graduated taxes) की पेशकश की, ताकि आय के स्रोतों को सूखने से रोका जा सके और राज्य की संपत्ति बढ़ सके।
  • कोष की देखरेख: खज़ाने की देखरेख के लिए एक धनाध्यक्ष को नियुक्त किया जाता था, जो आय और व्यय के खातों का विवरण रखता था।
  • धन का वितरण: बृहस्पति का मानना था कि किसी व्यक्ति द्वारा प्राप्त लाभ को उसके परिवार और दोस्तों के बीच बांटना चाहिए, ताकि धन समाज में अधिक समान रूप से वितरित हो और प्रत्येक व्यक्ति को ज़रूरी चीज़ें मिल सकें।
  • तीन गुण: बृहस्पति मानते हैं कि मंत्र-गुण, अर्थ-गुण और सहाय-गुण तीन महत्वपूर्ण तत्त्व हैं, जिनके संयोजन से राष्ट्र प्रणाली का प्रभावी संचालन संभव होता है। अच्छा राजा वह है जो इन गुणों को प्रदर्शित करता है और अपने लोगों का सम्मान करता है।
  • राज्य की वित्तीय नीति: बृहस्पति का कहना है कि राज्य की बजटीय नीति तभी सफल हो सकती है, जब उसे लागू करने की सही योजना बनाई जाए। राज्य के मानदंडों और अनुष्ठानों के अनुसार प्रशासन को चलाना चाहिए ताकि जनता की वित्तीय स्थिति और कल्याण में सुधार हो सके।

 5. वार्ता 

  • चार विचारधाराएँ: बृहस्पति ने आन्वीक्षिकी, वेदत्रयी, वर्त और दंड नीति को महत्वपूर्ण माना। इन विचारधाराओं में शोध और उचित समय पर विचार करने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है, विशेषकर नक्षत्र, दिन, और तिथियों के महत्त्वपूर्ण विश्लेषण पर।
  • शिक्षा के विषय: बृहस्पति ने ज्योतिष, गणित, सामुद्रिक और नक्षत्र विद्या को विशेष महत्त्व दिया, जिन्हें अन्य शिक्षा के रूपों की तुलना में प्रमुख स्थान प्राप्त था।
  • आर्थिक निर्णयों पर नैतिक प्रभाव: बृहस्पति के आर्थिक निर्णयों को नैतिक उपदेशों ने प्रभावित किया। उनका मानना था कि अत्यधिक कर लगाने से विकास कार्यों में रुकावट आती है और अंततः यह राष्ट्र के पतन का कारण बन सकता है।
  • राज्य की आर्थिक वृद्धि: बृहस्पति ने राज्य के खजाने को बढ़ाने के पक्ष में विचार किया, भले ही इसके लिए युद्ध या प्राकृतिक आपदाओं जैसे संकटों का सामना करना पड़े। उन्हें यह ज्ञात था कि यदि राजा खजाना नहीं बढ़ाता, तो शत्रु उसे अपमानित कर सकते हैं।
  • निष्पक्ष कर प्रणाली: बृहस्पति ने निष्पक्ष कर प्रणाली की महत्त्वपूर्णता को स्वीकार किया। वह उच्च करों का विरोध करते थे, लेकिन उन्होंने यह भी माना कि राज्य की सामान्य आर्थिक वृद्धि केवल उचित करों से ही संभव है, जो खजाने को भरते हैं।
  • राजा के उत्तराधिकारियों पर आपत्ति: बृहस्पति ने राजा के उत्तराधिकारियों द्वारा आर्थिक प्रबंधन और कर संग्रह में भाग लेने पर आपत्ति जताई, यह उनका मानना था कि इसे सही तरीके से प्रबंधित किया जाना चाहिए।

 6. न्याय और न्यायिक प्रणाली 

  • न्याय का महत्त्व: बृहस्पति के अनुसार, न्याय का राजा के भविष्य पर गहरा असर पड़ता है। वह मानते हैं कि न्याय हमेशा कानून और शास्त्रों के अनुसार होना चाहिए, और कोई भी व्यक्ति, चाहे वह राजा का परिवार हो, कानून की अवज्ञा करने पर सजा से बच नहीं सकता।
  • न्यायिक प्रणाली: बृहस्पति एक जटिल न्यायिक प्रणाली का समर्थन करते हैं, जिसमें न्यायाधीशों को नैतिक, सम्मानित और उच्च परिवारों से होना चाहिए। निर्णय सर्वसम्मति पर आधारित होने चाहिए और उन्हें तथ्यों के आधार पर किया जाना चाहिए।
  • विकेन्द्रीकृत न्याय: बृहस्पति ने विकेन्द्रीकृत न्याय व्यवस्था को स्वीकार किया, जिसमें निचले न्यायालय नए मामलों की सुनवाई कर सकते हैं, लेकिन उनके निर्णय शीर्ष न्यायालय द्वारा समीक्षा किए जा सकते हैं।
  • न्याय का उद्देश्य: बृहस्पति का मानना है कि न्याय का उद्देश्य सच्चाई का पता लगाना, अपराधियों को दंडित करना और समाज में अपराध को रोकना है। वह चाहते हैं कि अदालतें स्थानीय रीति-रिवाजों और परंपराओं का सम्मान करें।
  • राजा का आदेश: बृहस्पति के समय राजा का आदेश कानून का अंतिम स्रोत बन गया। राजा न केवल कानूनों को लागू करता था, बल्कि वह समाज के विभिन्न पहलुओं में हस्तक्षेप करने का अधिकार भी रखता था।
  • आनुपातिक दंड: बृहस्पति ने आनुपातिक दंड की प्रणाली को स्वीकार किया, जिसमें दंड व्यक्ति के वर्ण और स्थिति के आधार पर निर्धारित किया जाता है। उदाहरण के लिए, ब्राह्मणों को मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता, जबकि अन्य वर्णों को ज्यादा कठोर सजा मिल सकती है।
  • चार प्रकार के दंड: बृहस्पति ने प्रतिशोध के चार रूपों की व्याख्या की - चेतावनी, अपमान, दंड और मृत्युदंड। राजा के दरबार को अंतिम दो दंडों का अधिकार था, जबकि अन्य न्यायालय केवल पहले दो पर निर्णय ले सकते थे।
  • सामाजिक प्रभाव: बृहस्पति का मानना था कि दंड प्रणाली का असर सबसे निचले वर्णों पर सबसे ज्यादा होगा। वह अपराध की रोकथाम और सुधार पर जोर देते थे, और इसके लिए कई उपायों का सुझाव देते थे।

7. न्यायालयों का पदानुक्रम और न्यायिक प्रणाली

  • पदानुक्रम: बृहस्पति स्मृति के अनुसार, प्राचीन भारत में न्यायालयों का एक स्पष्ट पदानुक्रम था:

1. पारिवारिक न्यायालय सबसे निचली श्रेणी में था, जो छोटे विवादों को हल करता था।

2. मुख्य न्यायाधीश (प्रादिविवाका) के पास उच्च न्यायालय का दर्जा था, और वे उच्च स्तर के मामलों को देखते थे।

3. राजा का न्यायालय सबसे ऊपर था, जो सबसे गंभीर और महत्वपूर्ण मामलों का निर्णय करता था।

  • न्याय के स्रोत: राजा को न्याय का मुख्य स्रोत माना गया था। राजा से यह अपेक्षित था कि वह कानून का पालन करते हुए, न्यायिक मामलों का सावधानीपूर्वक निर्णय करें। न्याय के मामलों में राजा को निष्पक्ष और बिना किसी पूर्वाग्रह के कार्य करना था।
  • न्यायिक आचार संहिता: राजा को न्याय देते समय एक कठोर आचार संहिता का पालन करना होता था। उन्हें शालीन पोशाक पहनकर न्यायालय में उपस्थित होना चाहिए था, जिससे उनके व्यक्तित्व में गरिमा बनी रहती थी। निर्णय लेने से पहले राजा को अपने मुख्य न्यायाधीश, न्यायाधीशों, मंत्रिपरिषद और ब्राह्मणों से सलाह लेनी होती थी, ताकि निर्णय सामूहिक और निष्पक्ष हो। राजा का न्याय हमेशा निष्पक्ष और सार्वजनिक रूप से होना चाहिए था, ताकि किसी भी पक्षकार को भय का अनुभव न हो और वे न्यायालय में अपनी बात स्वतंत्रता से रख सकें।
  • न्यायिक प्रक्रिया: न्यायालयों के निर्णयों का प्रभाव आरोही क्रम में होता था, अर्थात उच्च न्यायालय का निर्णय निचली अदालत के निर्णय को प्रतिस्थापित करता था। न्याय का उद्देश्य सच्चाई की खोज और न्यायपूर्ण दंड था।राजा को यह शपथ लेनी होती थी कि वह बिना किसी पक्षपाती भावना के न्याय करेगा और उसे निष्पक्ष रहकर विवस्वान (यमराज) की तरह कार्य करना होता था।
  • सामाजिक और पारिवारिक न्याय: बृहस्पति ने पारिवारिक न्याय का भी महत्त्व बताया। संयुक्त परिवार में छोटे-छोटे विवादों को चतुराई और सहानुभूति से हल करने की आवश्यकता होती थी, और इस प्रकार पारिवारिक न्यायालयों को एक महत्वपूर्ण स्थान मिला।
  • वर्तमान न्यायिक प्रणाली का प्रभाव: बृहस्पति के न्यायिक सिद्धांतों का प्रभाव आज की भारतीय न्याय व्यवस्था पर देखा जा सकता है। जैसे कि ग्राम अदालत, सिविल जज, जिला न्यायालय, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय का पदानुक्रम, जो राजा के न्यायालय के समान है।

8. भ्रष्टाचार का प्रतिकार

बृहस्पति के न्यायिक विचारों में भ्रष्टाचार को गंभीर अपराध माना गया था, और इसे समाप्त करने के लिए कठोर दंड का समर्थन किया गया।

  • बेईमान न्यायाधीश: बृहस्पति ने रिश्वत लेने वाले न्यायाधीश को न्याय का उल्लंघन करने वाला और जनता का विश्वास तोड़ने वाला बताया। ऐसे न्यायाधीश को निर्वासन और संपत्ति की जब्ती की सजा दी जानी चाहिए।
  • न्यायिक कदाचार: बृहस्पति के अनुसार, यदि कोई न्यायाधीश मुकदमे के दौरान पक्षों से गोपनीय संपर्क करता है, तो उसे भी भ्रष्टाचार की सजा मिलनी चाहिए। यह न्यायिक प्रक्रिया में निष्पक्षता बनाए रखने के लिए था।
  • स्थानीय परंपराओं का पालन: बृहस्पति ने न्यायालयों से कहा कि वे सिर्फ कानूनी शब्दों पर नहीं, बल्कि समाज की परंपराओं और वास्तविकताओं को ध्यान में रखकर निर्णय लें, ताकि न्याय का उल्लंघन न हो।
  • धोखाधड़ी से बचाव: बृहस्पति ने गवाहों से सच्चाई जानने के लिए कठोर उपाय किए थे, जैसे गवाहों से शपथ लेना और उनकी सच्चाई की जांच करना।
  • गवाहों के लिए नैतिक चेतावनी: गवाहों को किसी पूर्व निर्धारित वाक्यांशों के बजाय नैतिक चेतावनी देकर सच्चाई के प्रति सम्मान उत्पन्न किया जाता था।


 अंतर-राज्य संबंध 

बृहस्पति ने अंतर-राज्यीय संबंधों को राजनीति का महत्वपूर्ण पहलू माना और शासकों को शत्रुओं से निपटने के लिए विविध रणनीतियाँ अपनाने की सलाह दी।

  • राजनयिक और सैन्य रणनीतियाँ: बृहस्पति के अनुसार, शासक को शत्रु की सेनाओं को विभाजित करने के लिए कूटनीतिक और सैन्य उपायों का प्रयोग करना चाहिए। एक शक्तिशाली राजा का क्षेत्र भी शत्रु के आक्रमण से प्रभावित हो सकता है, भले ही वह शत्रु केवल एक घोड़े पर सवार हो।
  • संधि और विश्वास: शत्रु के साथ संधि करने के बावजूद, बृहस्पति ने विश्वास करने में सतर्क रहने की सलाह दी। उनका मानना था कि एक शासक को धर्म विजया पद्धति का पालन करना चाहिए, यानी धर्म के प्रति प्रतिबद्ध रहकर शत्रु को पराजित करना चाहिए।
  • जासूस और राजनयिक की भूमिका: बृहस्पति के अनुसार, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में जासूस और राजनयिक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, क्योंकि ये शासकों को सही निर्णय लेने में मदद करते हैं और दुश्मनों की योजनाओं को जानने में सहायक होते हैं।





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