ईसा पूर्व की छठी सदी में विभिन्न देशों में आध्यात्मिक और बौद्धिक परिवर्तन हो रहे थे। भारत में महावीर और बुद्ध ने धर्म सुधारने की कोशिश की, यूनान में सुकरात ने नैतिकता और सत्य पर विचार किए, चीन में कन्फ्यूशियस ने समाजिक व्यवस्था पर ध्यान केंद्रित किया, और बेबिलोन में ईसाई धर्म के अनुयायी अपने विश्वासों को फैलाते थे। यह समय सत्य की खोज और जीवन के उद्देश्य को समझने के प्रयासों से भरा था।
उत्तर भारत की सामाजिक - आर्थिक स्थिति
समाज
वैदिकोत्तर काल में समाज चार वर्णों में विभाजित था: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इस व्यवस्था में प्रत्येक वर्ण के कर्तव्यों का निर्धारण जन्म के आधार पर किया गया था:
- ब्राह्मण : धार्मिक और शैक्षिक प्रभुत्व रखते थे, उन्हें विशेष अधिकार जैसे दान प्राप्त करना और करों से छूट मिलती थी। समाज में वे सम्मानित होते थे।
- क्षत्रिय : शासन और रक्षा का मुख्य कर्तव्य था। वे शासक वर्ग के रूप में उभरे थे, लेकिन वे ब्राह्मणों के धर्मिक प्रभुत्व के खिलाफ थे और समाज में समता की माँग कर रहे थे।
- वैश्य : कृषि, व्यापार और पशुपालन में लगे थे और करों का मुख्य भार इन्हीं पर था। वे आर्थिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।
- शूद्र : ऊपरी तीन वर्णों की सेवा करने का कर्तव्य था और उन्हें निम्न दर्जे का माना जाता था, स्वतंत्र अधिकार और संपत्ति के अवसर कम थे।
- वर्ण व्यवस्था के खिलाफ असंतोष बढ़ने के कारण जैन और बौद्ध धर्म का उदय हुआ, जो समानता, अहिंसा और व्यक्तिगत मुक्ति का प्रचार करते थे। इन धर्मों के संस्थापक महावीर और गौतम बुद्ध क्षत्रिय वर्ग से थे, जिन्होंने ब्राह्मणों की धार्मिक श्रेष्ठता पर सवाल उठाए।
अर्थव्यवस्था
पूर्वोत्तर भारत में कृषिमूलक अर्थव्यवस्था के विकास और धर्मों के उद्भव के बीच गहरा संबंध था। वैदिक धर्म का विस्तार उत्तर वैदिक काल में कृषि आधारित तकनीकों के प्रसार के साथ हुआ, जिससे समाज में बदलाव आए।
- कृषि और उत्पादन में परिवर्तन: नई कृषि प्रणाली में बैलों और पालतू पशुओं की भूमिका महत्वपूर्ण थी। लोहे के उपकरणों का उपयोग खेती को आसान और उत्पादन में वृद्धि की ओर ले गया। शतपथ ब्राह्मण में जंगलों की सफाई और लोहे के उपयोग से भूमि को कृषि योग्य बनाने का उल्लेख है।
- व्यापार, मुद्रा और नगरीकरण का विकास: लोहे के उपकरणों ने शिल्पों और उद्योगों में भी उपयोग बढ़ाया, जिससे नगरों का विकास हुआ। मुद्रा के उपयोग से व्यापार में वृद्धि हुई और वैश्य वर्ग का समाज में महत्व बढ़ा। व्यापार ने वैश्यों को संपन्न और प्रतिष्ठित बनाया, और वे जातिगत भेदभाव से मुक्त धर्मों की ओर आकर्षित हुए।
- सामाजिक संरचना में बदलाव: वैदिक धर्म और ब्राह्मणवाद पर प्रश्न उठने लगे, क्षत्रिय वर्ग ने विरोध किया। व्यापारिक वर्ग ने उन धर्मों का समर्थन किया जो उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार की संभावना प्रदान करते थे।
- बौद्ध और जैन धर्म का उदय: बौद्ध और जैन धर्म ने अहिंसा और सामाजिक समानता का प्रचार किया, जो वैश्यों के लिए आकर्षक था। इन धर्मों ने वैश्यों को सामाजिक भेदभाव से मुक्ति दिलाने का अवसर प्रदान किया।
- निजी संपत्ति और भौतिकता के प्रति असंतोष: नई आर्थिक व्यवस्था में संपत्ति का संचय बढ़ा, जिससे सामाजिक असमानता में वृद्धि हुई। भौतिक सुख-सुविधाओं के प्रति असंतोष ने जैन और बौद्ध धर्म को बढ़ावा दिया, जो सरल और संयमित जीवन का समर्थन करते थे।
विभिन्न धार्मिक संप्रदायों का उद्भव
ईसा पूर्व छठी शताब्दी में गंगा क्षेत्र में धार्मिक आंदोलन के परिणामस्वरूप कई धार्मिक संप्रदायों का उदय हुआ, जिनमें जैन और बौद्ध धर्म प्रमुख थे। ये धार्मिक आंदोलन समाज और धर्म की जटिलताओं के खिलाफ थे और व्यापक सामाजिक परिवर्तनों का परिणाम थे।
- धार्मिक आंदोलन की शुरुआत: ईसा पूर्व छठी शताब्दी में गंगा क्षेत्र में धार्मिक आंदोलन ने जोर पकड़ा। इस काल में लगभग 62 धार्मिक संप्रदाय अस्तित्व में आए, जो वैदिक धर्म की जटिलताओं को चुनौती दे रहे थे।
- बौद्ध और जैन धर्मों का उदय: बौद्ध और जैन धर्मों का उदय वैदिक धर्म के प्रतीकात्मक अनुष्ठानों, यज्ञों और वर्ण व्यवस्था से असंतोष के कारण हुआ। महावीर और गौतम बुद्ध ने सरल जीवन और सामाजिक सुधारों का प्रचार किया।
- वैदिक धर्म के प्रति प्रतिक्रिया: ब्राह्मणों की धन-लोलुपता, जटिल यज्ञों की अनावश्यकता, और वर्ण व्यवस्था के कारण समाज में असंतोष बढ़ा। खासकर क्षत्रिय वर्ग अपनी सामाजिक स्थिति को लेकर जागरूक हुआ।
- महावीर और गौतम बुद्ध के विचार: महावीर और बुद्ध ने जन्म आधारित जातिवाद, यज्ञ और पुरोहितों की श्रेष्ठता पर प्रहार किया। उनके अनुसार, कर्म ही महत्वपूर्ण था और सभी जातियाँ निर्वाण प्राप्त कर सकती थीं। बौद्ध ग्रंथों में ब्राह्मणवाद को चुनौती दी गई, और समाज में समानता का संदेश दिया गया।
- इस प्रकार, बौद्ध और जैन धर्मों ने समाज में सुधार की दिशा में एक नए दृष्टिकोण की शुरुआत की, जिससे भारतीय समाज में महत्वपूर्ण बदलाव आए।
जैन धर्म
महावीर और जैन धर्म का उदय
1. महावीर का जीवन
- महावीर जैन धर्म के अंतिम और प्रमुख तीर्थंकर थे, जिनका जन्म ई.पू. 540 में वैशाली के पास एक क्षत्रिय परिवार में हुआ था। 30 वर्ष की उम्र में गृह त्यागकर संन्यास लिया और 13 वर्षों की साधना के बाद अर्हत (विजेता) की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने कोसल, मगध, मिथिला, और चंपा में धर्म का प्रचार किया। महावीर का देहांत ई.पू. 468 में हुआ।
2. जैन धर्म के सिद्धांत
- अहिंसा: किसी भी प्रकार की हिंसा न करना।
- सत्य: सत्य का पालन करना।
- अस्तेय: चोरी न करना।
- अपरिग्रह: संपत्ति का त्याग करना।
- महावीर ने ब्रह्मचर्य को भी जोड़ा और रात्रि में भोजन न करने का नियम भी शामिल किया।
3. त्रिरत्न (तीन रत्न)
- सम्यक दर्शन: सत्य का सच्चा ज्ञान।
- सम्यक ज्ञान: सच्चे ज्ञान का बोध।
- सम्यक आचरण: उचित आचरण का पालन।
- इन तीनों से आत्मा की शुद्धि और मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।
4. जैन धर्म में ईश्वर का स्थान
जैन धर्म में ईश्वर की कोई भूमिका नहीं है। सृष्टि के सृजन में कोई सृष्टिकर्ता की भूमिका को नकारा जाता है।व्यक्ति अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है और आत्मा की शुद्धि से ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। आत्मा सभी प्राणियों, पेड़-पौधों और निर्जीव पदार्थों में भी विद्यमान है।
जैन संप्रदाय और उनका विकास
जैन धर्म के विकास के क्रम में यह दो प्रमुख संप्रदायों में विभाजित हो गया: श्वेतांबर (श्वेत वस्त्र धारण करने वाले) और दिगंबर (निर्वस्त्र रहने वाले)। यद्यपि दोनों संप्रदाय तीर्थंकरों के उपदेशों को मानते थे, लेकिन उनके बीच व्यवहार और विश्वास के मामलों में अंतर था।
- दिगंबर संप्रदाय कठोर और शुद्धतावादी था, जबकि श्वेतांबर मानवीय कमजोरियों के प्रति सहनशील था।
- श्वेतांबर और दिगंबर संप्रदायों के मतभेद श्वेतांबर संप्रदाय मानता है कि पार्श्वनाथ नग्नता का उपदेश नहीं देते थे, जबकि महावीर इसे अनुयायियों के लिए अनिवार्य मानते थे।
- जैन ग्रंथों के रूप में 12 अंग श्वेतांबर संप्रदाय द्वारा मान्य हैं, जबकि दिगंबर संप्रदाय इन्हें स्वीकार नहीं करता। महावीर के उपदेशों को 14 ग्रंथों (पूर्व साहित्य) में रखा गया था।
1. जैन धर्म का साहित्यिक विकास और प्रसार
- अर्धमागधी भाषा का उपयोग: जैन साहित्य को अर्धमागधी में लिखा गया, जिससे साधारण जनता के बीच इसे समझना और अपनाना सरल हुआ।
- प्राकृत भाषा का प्रचलन: जैन धर्म में प्राकृत भाषा के प्रयोग ने इसे समाज के विभिन्न वर्गों में लोकप्रिय बनाया।
2. राजनीतिक समर्थन और केंद्र
- राजाओं का समर्थन: मगध के राजाओं ने इस धर्म का समर्थन किया। मथुरा और उज्जैन जैसे स्थान जैन धर्म के प्रमुख केंद्र बन गए।
- सम्मेलन और विभाजन: पाटलिपुत्र के सम्मेलन में श्वेतांबर साहित्य को महत्त्व दिया गया, जबकि दिगंबर इसे नकारते रहे, जिससे दोनों संप्रदायों में मतभेद और अधिक गहराते गए।
3. जैन धर्म का प्रभाव और योगदान
- जैन धर्म ने भारतीय साहित्य, कला और भवन निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। मथुरा, ग्वालियर, जूनागढ़, चित्तौड़, आबू, मैसूर, और उड़ीसा में जैन धर्म के अद्भुत मंदिर और मूर्तियाँ आज भी इसकी सांस्कृतिक धरोहर का प्रमाण हैं।
4. जैन धर्म का पतन और कारण
- गुप्त, चोल, चालुक्य, और राजपूत शासकों का जैन धर्म के प्रति रुझान न होना तथा हिंदू धर्म का पुनरुत्थान जैन धर्म के प्रभाव में कमी का कारण बने। महावीर के देहांत के बाद प्रसिद्ध धार्मिक प्रचारकों की कमी के कारण भी जैन धर्म का विस्तार सीमित हो गया।
बौद्ध धर्म
गौतम बुद्ध: जीवन, ज्ञान और बौद्ध धर्म का प्रसार
गौतम बुद्ध, जिनका मूल नाम सिद्धार्थ था, का जन्म 566 ईसा पूर्व में शाक्य राजघराने में कपिलवस्तु (वर्तमान नेपाल के दक्षिणी भाग) में हुआ था। वे महावीर के समकालीन थे और उनकी शिक्षाओं को पालि त्रिपिटक में संकलित किया गया है। सिद्धार्थ का जीवन प्रारंभ में वैभव और सुख से भरा था, लेकिन उनके मन में वैराग्य की भावना गहराई से बैठी थी।
- वैराग्य और ज्ञान की खोज: सिद्धार्थ के मन में वैराग्य की भावना तब जागृत हुई जब उन्होंने नगर भ्रमण के दौरान वृद्ध, रोगी, और मृत व्यक्ति को देखा। इसके बाद एक संन्यासी को प्रसन्न मुद्रा में देखकर उन्होंने सांसारिक दुखों से मुक्ति पाने का संकल्प लिया। 29 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ ने गृहस्थ जीवन त्यागकर संन्यास ले लिया और सत्य की खोज में निकल पड़े। कई गुरुओं (जैसे अलार कलाम और रूद्रक रामपुत्र) से शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी असंतुष्ट रहे। घोर तपस्या भी उन्हें ज्ञान नहीं दे पाई।
- बुद्धत्व की प्राप्ति : अंततः 35 वर्ष की आयु में बोधगया में एक पीपल वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई, और वे 'बुद्ध' कहलाए। इस ज्ञान के बाद उन्होंने अपने जीवन को लोगों को दुखों से मुक्त करने के लिए समर्पित कर दिया।
- प्रथम उपदेश: ज्ञान प्राप्ति के बाद, बुद्ध ने अपना पहला उपदेश सारनाथ में अपने पाँच पूर्व शिष्यों को दिया। इस घटना को बौद्ध धर्म में धर्मचक्र प्रवर्तन के नाम से जाना जाता है।
- शिक्षाएँ और बौद्ध धर्म का प्रसार: बुद्ध की शिक्षाओं ने बौद्ध धर्म और दर्शन की नींव रखी। उनके उपदेशों का लक्ष्य संसार के दुखों से मुक्ति पाना था। बुद्ध ने चार आर्य सत्य और अष्टांगिक मार्ग का उपदेश दिया, जिससे दुखों से छुटकारा मिल सकता है।
- बुद्ध का प्रभाव और बौद्ध धर्म का वैश्विक प्रसार: गौतम बुद्ध का निधन 80 वर्ष की आयु में, संभवतः 486 ईसा पूर्व में हुआ। उनके निधन के बाद उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनके उपदेशों को विभिन्न देशों में फैलाया।बुद्ध की शिक्षाएँ धीरे-धीरे श्रीलंका, बर्मा, सीरिया, तिब्बत, चीन, कोरिया, जापान आदि देशों में फैल गईं, जहाँ यह एक महत्वपूर्ण धर्म और दार्शनिक प्रणाली बन गई।
बौद्ध दर्शन
बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य इसके मूल सिद्धांत हैं। ये हैं: दुःख, दुःख का कारण , दुःख का निवारण , और दुःख निवारण का मार्ग । इन चार आर्य सत्यों का उद्देश्य जीवन के दुखों को समझना और उनसे मुक्ति पाना है।
1. चार आर्य सत्य
- दुःख: बुद्ध ने संसार को दुखमय माना, जिसमें जन्म, जरा (वृद्धावस्था), व्याधि (रोग), और मरण जैसी स्थितियाँ शामिल हैं।
- दुःख का कारण (दुःख समुदय): सभी दुखों का कारण तृष्णा (लालसा) है, जो इच्छाओं और भोग के प्रति हमारी आसक्ति को जन्म देती है।
- दुःख का निवारण (दुःख निरोध): दुखों का निवारण तभी संभव है जब तृष्णा को समाप्त कर दिया जाए।
- दुःख निवारण का मार्ग (दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा): अष्टांगिक मार्ग को अपनाकर दुखों का निवारण संभव है।
2. अष्टांगिक मार्ग
बुद्ध ने दुख निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग का सुझाव दिया। यह आठ मार्ग हैं:
- सम्यक दृष्टि: सत्य की सही समझ।
- सम्यक संकल्प: अहिंसा, परोपकार, और इच्छाओं का त्याग।
- सम्यक वाणी: प्रिय, सत्य और विनम्र वाणी।
- सम्यक कर्म: हिंसा, चोरी, और असंयम से दूर रहना।
- सम्यक आजीव: शुद्ध उपायों से आजीविका प्राप्त करना।
- सम्यक व्यायाम: विवेकपूर्ण प्रयास करना।
- सम्यक स्मृति: शरीर, मन, और भावनाओं की पूर्ण जानकारी।
- सम्यक समाधि: मन की एकाग्रता और मानसिक शांति।
3. प्रतीत्यसमुत्पाद (संपूर्णता का नियम)
- बुद्ध ने जीवन के दुखों को कारण-कार्य संबंध से जोड़ा जिसे प्रतीत्यसमुत्पाद कहा गया। जीवन के विभिन्न दुखों का कारण एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है, जैसे तृष्णा, आसक्ति और अज्ञान। इस चक्र की 12 कड़ियाँ (द्वादशं निदान) दुखों के क्रमिक कारणों को समझाती हैं, जो अविद्या (अज्ञान) से शुरू होकर जन्म और दुख में बदलती हैं।
4. बौद्ध धर्म में अनात्मवाद और अनीश्वरवाद
- बौद्ध धर्म में अनात्मवाद है, अर्थात बुद्ध ने आत्मा की स्थायी सत्ता में विश्वास नहीं किया। पुनर्जन्म का अर्थ है कि कर्म-फल के आधार पर नए जीवन का प्रारंभ होता है, लेकिन इसमें आत्मा का शाश्वत अस्तित्व नहीं माना गया।
- बुद्ध का मत था कि सृष्टि में ईश्वर की कोई भूमिका नहीं है। संसार का निर्माण और दुखों का जन्म प्राकृतिक कारणों से होता है।
5. मध्य मार्ग और निर्वाण
- बुद्ध ने जीवन में मध्य मार्ग (मध्यम प्रतिपदा) का पालन करने का उपदेश दिया। उन्होंने अत्यधिक विलासपूर्ण जीवन और अत्यधिक कष्ट सहन करने की प्रवृत्तियों को अस्वीकार किया।
- अष्टांगिक मार्ग के पालन से निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है, जो जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति और दुखों का अंत है।
6. कर्म और पुनर्जन्म
- बुद्ध ने कर्म सिद्धांत को मान्यता दी और कहा कि वर्तमान जीवन हमारे भूतकालीन कर्मों का परिणाम है। पुनर्जन्म कर्मों के प्रभाव से होता है, लेकिन भाग्य का निर्माण मनुष्य के कर्मों पर निर्भर करता है।
बौद्ध धर्म की लोकप्रियता के कारण
बौद्ध धर्म के कुछ विशेष कारणों से यह समाज में लोकप्रिय हुआ :-
- साधारण भाषा का प्रयोग: बुद्ध ने अपने उपदेश पाली भाषा में दिए, जिससे आम जनता इसे समझ सकी।
- वर्ण-व्यवस्था की निंदा: बौद्ध धर्म ने वर्ण-व्यवस्था का विरोध किया, जिससे निम्न वर्गों ने इसे अपनाया।
- स्त्रियों को संघ में प्रवेश: इसने धर्म को अधिक उदार और लोकतांत्रिक बनाया।
- बुद्ध का व्यक्तित्व और उपदेश की प्रणाली: बुद्ध का सरल और करुणामय व्यक्तित्व लोगों को आकर्षित करता था।
- राजाओं और गणराज्यों का समर्थन: मगध, कोसल, और कौशांबी जैसे राज्यों ने इसे अपनाया, जिससे इसका प्रसार तेज़ हुआ।
बौद्ध संप्रदाय: हीनयान और महायान
बौद्ध धर्म में दो प्रमुख संप्रदाय बने:-
- हीनयान: यह संप्रदाय बुद्ध के मूल उपदेशों पर आधारित था और निर्वाण को चरम लक्ष्य मानता था। यह संप्रदाय बुद्ध को साधारण मनुष्य के रूप में देखता था जिन्होंने अपने प्रयासों से निर्वाण प्राप्त किया।
- महायान: इस संप्रदाय ने बुद्ध को भगवान का अवतार माना और समाज सुधार को अंतिम लक्ष्य मानता था। महायान के अनुसार निर्वाण को परमात्मा से मिलन माना जाता है।
बौद्ध धर्म के पतन के कारण
बौद्ध धर्म का पतन विभिन्न कारणों से हुआ :-
- भिक्षुओं की अनैतिकता: समय के साथ विहारों में भिक्षुओं के अनैतिक आचरण ने धर्म की छवि को खराब किया।
- विहारों की अपार संपत्ति: विहारों में अत्यधिक संपत्ति संग्रह से भी इसके अनुयायियों का विश्वास कम हुआ।
- संस्कृत भाषा का प्रयोग: संस्कृत को अपनाने से यह धर्म आम जनता से दूर होता गया।
- हिंदू धर्म का पुनरुत्थान: हिंदू धर्म में सुधार और ईश्वरवाद ने लोगों को वापस हिंदू धर्म की ओर आकर्षित किया।
- राजनैतिक कारण: नए राजवंशों और राज्यों ने अहिंसा का त्याग कर नए विचारों को अपनाया, जिससे बौद्ध धर्म का प्रभाव कम हो गया।
भारतीय संस्कृति में बौद्ध धर्म का योगदान
बौद्ध धर्म ने भारतीय संस्कृति में कई सकारात्मक योगदान दिए:-
- सरल और लोकप्रिय धर्म: बौद्ध धर्म ने कर्मकांडों और बलिदानों की निंदा कर सरल और सुलभ धर्म का प्रचार किया।
- शिक्षा और साहित्य: संघ शिक्षा के केंद्र बने, और तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालय बौद्ध शिक्षा का केंद्र बन गए।
- वास्तुकला और मूर्तिकला: साँची, सारनाथ, नालंदा, और अमरावती के स्तूप भारतीय वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने हैं। गांधार और मथुरा शैली में बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण हुआ, जो भारतीय मूर्तिकला की महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं।
- धार्मिक सहिष्णुता: बौद्ध धर्म ने सहिष्णुता और करुणा का प्रचार किया, जिससे समाज में सामाजिक समानता की भावना को बढ़ावा मिला।
- अजंता की गुफाओं का चित्रकला: अजंता की गुफाओं के भित्ति चित्र विश्वप्रसिद्ध हैं और भारतीय चित्रकला की अमूल्य धरोहर मानी जाती हैं।
भौतिक स्थितियाँ और जनपदों का गठन
अब जन जातियाँ स्थायी रूप से एक स्थान पर बसने लगीं और इन स्थाई कृषि बस्तियों को जनपद कहा गया। जनपद का नाम प्रमुख क्षत्रिय वंशों के नाम पर रखा गया, जैसे कुरु और पांचाल। लोहे के औजारों से जंगल साफ किए गए और जमीन को कृषि योग्य बनाया गया, जिससे मध्य गंगा घाटी जैसे क्षेत्रों में धान की खेती का विस्तार हुआ।उत्पादन में वृद्धि और कृषि अधिशेष की उपलब्धता के साथ, वस्तु विनिमय प्रणाली की जगह मुद्रा प्रणाली ने ली। इससे व्यापार और आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ीं।
1. महाजनपदों और राज्यों का उदय
- छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक सोलह महाजनपद उभर कर आए, जिनमें मगध, कोसल, और वत्स जैसे राज्य प्रमुख थे। इन राज्यों में प्रमुखता से कृषि और व्यापार को बढ़ावा मिला, जिससे आर्थिक और राजनीतिक शक्ति का केंद्रीकरण हुआ।
2. समाज और आर्थिक संरचना
- नए नगरों के निर्माण और शहरीकरण के साथ, समाज में व्यवसायों का विभाजन हुआ। शहरी और ग्रामीण केन्द्रों में एक अंतर स्थापित हुआ। शहरी लोग व्यवसाय और व्यापार में लगे थे, जबकि ग्रामीण लोग कृषि में। इस समय सेठी जैसे मध्यस्थ वर्ग उभरे, जो व्यापार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे और आर्थिक रूप से भी प्रभावशाली थे। वे बड़े जमींदार भी बने और शहरी व ग्रामीण समाज में सामंजस्य स्थापित करने में सहायक हुए।किसानों से कर वसूलने की व्यवस्था शुरू हुई, जिससे राजाओं की आर्थिक शक्ति बढ़ी और राज्य के प्रशासन का विस्तार हुआ।
3. सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रभाव
- प्रादेशिक राज्यों के गठन से सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तनों में तेजी आई। वैदिक और गैर-वैदिक जनजातियों के निकट आने से सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी बढ़ा, जो नए प्रादेशिक संगठनों के निर्माण में सहायक साबित हुआ।
जनपद और महाजनपद : प्रारंभिक भारतीय राजनीतिक संरचनाएँ
जनपद और महाजनपद संबंधी जानकारी हमें वैदिक और बौद्ध साहित्य से प्राप्त होती है। इनसे छठी शताब्दी ईसा पूर्व के भारत में राजनीतिक, सामाजिक, और आर्थिक संरचनाओं का पता चलता है।
जनपद
जनपद शब्द का अर्थ "लोगों के रहने का स्थान" है। वैदिक काल के बाद लोग खानाबदोश जीवन छोड़कर एक जगह पर स्थायी रूप से बसने लगे, और कृषि उनकी मुख्य आजीविका बन गई। इस स्थायित्व ने जनपदों का निर्माण किया।
- भौगोलिक और सामाजिक स्थायित्व: जनपद स्थायी अधिवास थे, जहाँ लोग अपने रीति-रिवाजों और भाषा के साथ स्थायी रूप से बसे। विभिन्न जनपदों के अपने रीति-रिवाज और सांस्कृतिक पहचान थी।
- आर्थिक संरचना: जनपदों की कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था के कारण नियमित कर प्रणाली और सेना का निर्माण संभव हुआ। यह स्थिति बाद में बड़े राज्यों के गठन में सहायक हुई।
- पाणिनि का विवरण: पाणिनि ने ईसा पूर्व 450 तक के 40 जनपदों का उल्लेख किया, जो अफगानिस्तान से लेकर मध्य एशिया तक फैले थे।
महाजनपद