भारत का इतिहास प्राचीन काल से 300 ce .तक UNIT 5 SEMESTER 1 THEORY NOTES द्वितीय शहरीकरण, भौतिक और सामाजिक परिवर्तन, बौद्ध धर्म और जैन धर्म DU. SOL.DU NEP COURSES

 

भारत का इतिहास प्राचीन काल से 300 ce .तक UNIT 5 SEMESTER 1 THEORY NOTES द्वितीय शहरीकरण, भौतिक और सामाजिक परिवर्तन, बौद्ध धर्म और जैन धर्म DU. SOL.DU NEP COURSES


ईसा पूर्व की छठी सदी में विभिन्न देशों में आध्यात्मिक और बौद्धिक परिवर्तन हो रहे थे। भारत में महावीर और बुद्ध ने धर्म सुधारने की कोशिश की, यूनान में सुकरात ने नैतिकता और सत्य पर विचार किए, चीन में कन्फ्यूशियस ने समाजिक व्यवस्था पर ध्यान केंद्रित किया, और बेबिलोन में ईसाई धर्म के अनुयायी अपने विश्वासों को फैलाते थे। यह समय सत्य की खोज और जीवन के उद्देश्य को समझने के प्रयासों से भरा था।

उत्तर भारत की सामाजिक - आर्थिक स्थिति

समाज

वैदिकोत्तर काल में समाज चार वर्णों में विभाजित था: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इस व्यवस्था में प्रत्येक वर्ण के कर्तव्यों का निर्धारण जन्म के आधार पर किया गया था:

  • ब्राह्मण : धार्मिक और शैक्षिक प्रभुत्व रखते थे, उन्हें विशेष अधिकार जैसे दान प्राप्त करना और करों से छूट मिलती थी। समाज में वे सम्मानित होते थे।
  • क्षत्रिय : शासन और रक्षा का मुख्य कर्तव्य था। वे शासक वर्ग के रूप में उभरे थे, लेकिन वे ब्राह्मणों के धर्मिक प्रभुत्व के खिलाफ थे और समाज में समता की माँग कर रहे थे।
  • वैश्य : कृषि, व्यापार और पशुपालन में लगे थे और करों का मुख्य भार इन्हीं पर था। वे आर्थिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।
  • शूद्र : ऊपरी तीन वर्णों की सेवा करने का कर्तव्य था और उन्हें निम्न दर्जे का माना जाता था, स्वतंत्र अधिकार और संपत्ति के अवसर कम थे।
  • वर्ण व्यवस्था के खिलाफ असंतोष बढ़ने के कारण जैन और बौद्ध धर्म का उदय हुआ, जो समानता, अहिंसा और व्यक्तिगत मुक्ति का प्रचार करते थे। इन धर्मों के संस्थापक महावीर और गौतम बुद्ध क्षत्रिय वर्ग से थे, जिन्होंने ब्राह्मणों की धार्मिक श्रेष्ठता पर सवाल उठाए।


अर्थव्यवस्था

पूर्वोत्तर भारत में कृषिमूलक अर्थव्यवस्था के विकास और धर्मों के उद्भव के बीच गहरा संबंध था। वैदिक धर्म का विस्तार उत्तर वैदिक काल में कृषि आधारित तकनीकों के प्रसार के साथ हुआ, जिससे समाज में बदलाव आए।

  • कृषि और उत्पादन में परिवर्तन: नई कृषि प्रणाली में बैलों और पालतू पशुओं की भूमिका महत्वपूर्ण थी। लोहे के उपकरणों का उपयोग खेती को आसान और उत्पादन में वृद्धि की ओर ले गया। शतपथ ब्राह्मण में जंगलों की सफाई और लोहे के उपयोग से भूमि को कृषि योग्य बनाने का उल्लेख है।
  • व्यापार, मुद्रा और नगरीकरण का विकास: लोहे के उपकरणों ने शिल्पों और उद्योगों में भी उपयोग बढ़ाया, जिससे नगरों का विकास हुआ। मुद्रा के उपयोग से व्यापार में वृद्धि हुई और वैश्य वर्ग का समाज में महत्व बढ़ा। व्यापार ने वैश्यों को संपन्न और प्रतिष्ठित बनाया, और वे जातिगत भेदभाव से मुक्त धर्मों की ओर आकर्षित हुए।
  • सामाजिक संरचना में बदलाव: वैदिक धर्म और ब्राह्मणवाद पर प्रश्न उठने लगे, क्षत्रिय वर्ग ने विरोध किया। व्यापारिक वर्ग ने उन धर्मों का समर्थन किया जो उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार की संभावना प्रदान करते थे।
  • बौद्ध और जैन धर्म का उदय: बौद्ध और जैन धर्म ने अहिंसा और सामाजिक समानता का प्रचार किया, जो वैश्यों के लिए आकर्षक था। इन धर्मों ने वैश्यों को सामाजिक भेदभाव से मुक्ति दिलाने का अवसर प्रदान किया।
  • निजी संपत्ति और भौतिकता के प्रति असंतोष: नई आर्थिक व्यवस्था में संपत्ति का संचय बढ़ा, जिससे सामाजिक असमानता में वृद्धि हुई। भौतिक सुख-सुविधाओं के प्रति असंतोष ने जैन और बौद्ध धर्म को बढ़ावा दिया, जो सरल और संयमित जीवन का समर्थन करते थे।


विभिन्न धार्मिक संप्रदायों का उद्भव

ईसा पूर्व छठी शताब्दी में गंगा क्षेत्र में धार्मिक आंदोलन के परिणामस्वरूप कई धार्मिक संप्रदायों का उदय हुआ, जिनमें जैन और बौद्ध धर्म प्रमुख थे। ये धार्मिक आंदोलन समाज और धर्म की जटिलताओं के खिलाफ थे और व्यापक सामाजिक परिवर्तनों का परिणाम थे।

  • धार्मिक आंदोलन की शुरुआत: ईसा पूर्व छठी शताब्दी में गंगा क्षेत्र में धार्मिक आंदोलन ने जोर पकड़ा। इस काल में लगभग 62 धार्मिक संप्रदाय अस्तित्व में आए, जो वैदिक धर्म की जटिलताओं को चुनौती दे रहे थे।
  • बौद्ध और जैन धर्मों का उदय: बौद्ध और जैन धर्मों का उदय वैदिक धर्म के प्रतीकात्मक अनुष्ठानों, यज्ञों और वर्ण व्यवस्था से असंतोष के कारण हुआ। महावीर और गौतम बुद्ध ने सरल जीवन और सामाजिक सुधारों का प्रचार किया।
  • वैदिक धर्म के प्रति प्रतिक्रिया: ब्राह्मणों की धन-लोलुपता, जटिल यज्ञों की अनावश्यकता, और वर्ण व्यवस्था के कारण समाज में असंतोष बढ़ा। खासकर क्षत्रिय वर्ग अपनी सामाजिक स्थिति को लेकर जागरूक हुआ।
  • महावीर और गौतम बुद्ध के विचार: महावीर और बुद्ध ने जन्म आधारित जातिवाद, यज्ञ और पुरोहितों की श्रेष्ठता पर प्रहार किया। उनके अनुसार, कर्म ही महत्वपूर्ण था और सभी जातियाँ निर्वाण प्राप्त कर सकती थीं। बौद्ध ग्रंथों में ब्राह्मणवाद को चुनौती दी गई, और समाज में समानता का संदेश दिया गया।
  • इस प्रकार, बौद्ध और जैन धर्मों ने समाज में सुधार की दिशा में एक नए दृष्टिकोण की शुरुआत की, जिससे भारतीय समाज में महत्वपूर्ण बदलाव आए।


   जैन धर्म  

महावीर और जैन धर्म का उदय

1. महावीर का जीवन

  • महावीर जैन धर्म के अंतिम और प्रमुख तीर्थंकर थे, जिनका जन्म ई.पू. 540 में वैशाली के पास एक क्षत्रिय परिवार में हुआ था। 30 वर्ष की उम्र में गृह त्यागकर संन्यास लिया और 13 वर्षों की साधना के बाद अर्हत (विजेता) की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने कोसल, मगध, मिथिला, और चंपा में धर्म का प्रचार किया। महावीर का देहांत ई.पू. 468 में हुआ।

2. जैन धर्म के सिद्धांत

  • अहिंसा: किसी भी प्रकार की हिंसा न करना।
  • सत्य: सत्य का पालन करना।
  • अस्तेय: चोरी न करना।
  • अपरिग्रह: संपत्ति का त्याग करना।
  • महावीर ने ब्रह्मचर्य को भी जोड़ा और रात्रि में भोजन न करने का नियम भी शामिल किया।

3. त्रिरत्न (तीन रत्न)

  • सम्यक दर्शन: सत्य का सच्चा ज्ञान।
  • सम्यक ज्ञान: सच्चे ज्ञान का बोध।
  • सम्यक आचरण: उचित आचरण का पालन।
  • इन तीनों से आत्मा की शुद्धि और मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।

4. जैन धर्म में ईश्वर का स्थान

जैन धर्म में ईश्वर की कोई भूमिका नहीं है। सृष्टि के सृजन में कोई सृष्टिकर्ता की भूमिका को नकारा जाता है।व्यक्ति अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है और आत्मा की शुद्धि से ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। आत्मा सभी प्राणियों, पेड़-पौधों और निर्जीव पदार्थों में भी विद्यमान है।


जैन संप्रदाय और उनका विकास

जैन धर्म के विकास के क्रम में यह दो प्रमुख संप्रदायों में विभाजित हो गया: श्वेतांबर (श्वेत वस्त्र धारण करने वाले) और दिगंबर (निर्वस्त्र रहने वाले)। यद्यपि दोनों संप्रदाय तीर्थंकरों के उपदेशों को मानते थे, लेकिन उनके बीच व्यवहार और विश्वास के मामलों में अंतर था। 

  • दिगंबर संप्रदाय कठोर और शुद्धतावादी था, जबकि श्वेतांबर मानवीय कमजोरियों के प्रति सहनशील था।
  • श्वेतांबर और दिगंबर संप्रदायों के मतभेद श्वेतांबर संप्रदाय मानता है कि पार्श्वनाथ नग्नता का उपदेश नहीं देते थे, जबकि महावीर इसे अनुयायियों के लिए अनिवार्य मानते थे। 
  • जैन ग्रंथों के रूप में 12 अंग श्वेतांबर संप्रदाय द्वारा मान्य हैं, जबकि दिगंबर संप्रदाय इन्हें स्वीकार नहीं करता। महावीर के उपदेशों को 14 ग्रंथों (पूर्व साहित्य) में रखा गया था।

1. जैन धर्म का साहित्यिक विकास और प्रसार

  • अर्धमागधी भाषा का उपयोग: जैन साहित्य को अर्धमागधी में लिखा गया, जिससे साधारण जनता के बीच इसे समझना और अपनाना सरल हुआ।
  • प्राकृत भाषा का प्रचलन: जैन धर्म में प्राकृत भाषा के प्रयोग ने इसे समाज के विभिन्न वर्गों में लोकप्रिय बनाया।

2. राजनीतिक समर्थन और केंद्र

  • राजाओं का समर्थन: मगध के राजाओं ने इस धर्म का समर्थन किया। मथुरा और उज्जैन जैसे स्थान जैन धर्म के प्रमुख केंद्र बन गए।
  • सम्मेलन और विभाजन: पाटलिपुत्र के सम्मेलन में श्वेतांबर साहित्य को महत्त्व दिया गया, जबकि दिगंबर इसे नकारते रहे, जिससे दोनों संप्रदायों में मतभेद और अधिक गहराते गए।

3. जैन धर्म का प्रभाव और योगदान

  • जैन धर्म ने भारतीय साहित्य, कला और भवन निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। मथुरा, ग्वालियर, जूनागढ़, चित्तौड़, आबू, मैसूर, और उड़ीसा में जैन धर्म के अद्भुत मंदिर और मूर्तियाँ आज भी इसकी सांस्कृतिक धरोहर का प्रमाण हैं।

4. जैन धर्म का पतन और कारण

  • गुप्त, चोल, चालुक्य, और राजपूत शासकों का जैन धर्म के प्रति रुझान न होना तथा हिंदू धर्म का पुनरुत्थान जैन धर्म के प्रभाव में कमी का कारण बने। महावीर के देहांत के बाद प्रसिद्ध धार्मिक प्रचारकों की कमी के कारण भी जैन धर्म का विस्तार सीमित हो गया।



  बौद्ध धर्म 

गौतम बुद्ध: जीवन, ज्ञान और बौद्ध धर्म का प्रसार

गौतम बुद्ध, जिनका मूल नाम सिद्धार्थ था, का जन्म 566 ईसा पूर्व में शाक्य राजघराने में कपिलवस्तु (वर्तमान नेपाल के दक्षिणी भाग) में हुआ था। वे महावीर के समकालीन थे और उनकी शिक्षाओं को पालि त्रिपिटक में संकलित किया गया है। सिद्धार्थ का जीवन प्रारंभ में वैभव और सुख से भरा था, लेकिन उनके मन में वैराग्य की भावना गहराई से बैठी थी।

  • वैराग्य और ज्ञान की खोज: सिद्धार्थ के मन में वैराग्य की भावना तब जागृत हुई जब उन्होंने नगर भ्रमण के दौरान वृद्ध, रोगी, और मृत व्यक्ति को देखा। इसके बाद एक संन्यासी को प्रसन्न मुद्रा में देखकर उन्होंने सांसारिक दुखों से मुक्ति पाने का संकल्प लिया। 29 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ ने गृहस्थ जीवन त्यागकर संन्यास ले लिया और सत्य की खोज में निकल पड़े। कई गुरुओं (जैसे अलार कलाम और रूद्रक रामपुत्र) से शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी असंतुष्ट रहे। घोर तपस्या भी उन्हें ज्ञान नहीं दे पाई।
  • बुद्धत्व की प्राप्ति : अंततः 35 वर्ष की आयु में बोधगया में एक पीपल वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई, और वे 'बुद्ध' कहलाए। इस ज्ञान के बाद उन्होंने अपने जीवन को लोगों को दुखों से मुक्त करने के लिए समर्पित कर दिया।
  • प्रथम उपदेश: ज्ञान प्राप्ति के बाद, बुद्ध ने अपना पहला उपदेश सारनाथ में अपने पाँच पूर्व शिष्यों को दिया। इस घटना को बौद्ध धर्म में धर्मचक्र प्रवर्तन के नाम से जाना जाता है।
  • शिक्षाएँ और बौद्ध धर्म का प्रसार: बुद्ध की शिक्षाओं ने बौद्ध धर्म और दर्शन की नींव रखी। उनके उपदेशों का लक्ष्य संसार के दुखों से मुक्ति पाना था। बुद्ध ने चार आर्य सत्य और अष्टांगिक मार्ग का उपदेश दिया, जिससे दुखों से छुटकारा मिल सकता है।
  • बुद्ध का प्रभाव और बौद्ध धर्म का वैश्विक प्रसार: गौतम बुद्ध का निधन 80 वर्ष की आयु में, संभवतः 486 ईसा पूर्व में हुआ। उनके निधन के बाद उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनके उपदेशों को विभिन्न देशों में फैलाया।बुद्ध की शिक्षाएँ धीरे-धीरे श्रीलंका, बर्मा, सीरिया, तिब्बत, चीन, कोरिया, जापान आदि देशों में फैल गईं, जहाँ यह एक महत्वपूर्ण धर्म और दार्शनिक प्रणाली बन गई।


बौद्ध दर्शन

बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य इसके मूल सिद्धांत हैं। ये हैं: दुःख, दुःख का कारण , दुःख का निवारण , और दुःख निवारण का मार्ग । इन चार आर्य सत्यों का उद्देश्य जीवन के दुखों को समझना और उनसे मुक्ति पाना है।

1. चार आर्य सत्य

  • दुःख: बुद्ध ने संसार को दुखमय माना, जिसमें जन्म, जरा (वृद्धावस्था), व्याधि (रोग), और मरण जैसी स्थितियाँ शामिल हैं।
  • दुःख का कारण (दुःख समुदय): सभी दुखों का कारण तृष्णा (लालसा) है, जो इच्छाओं और भोग के प्रति हमारी आसक्ति को जन्म देती है।
  • दुःख का निवारण (दुःख निरोध): दुखों का निवारण तभी संभव है जब तृष्णा को समाप्त कर दिया जाए।
  • दुःख निवारण का मार्ग (दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा): अष्टांगिक मार्ग को अपनाकर दुखों का निवारण संभव है।

2. अष्टांगिक मार्ग

बुद्ध ने दुख निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग का सुझाव दिया। यह आठ मार्ग हैं:

  • सम्यक दृष्टि: सत्य की सही समझ।
  • सम्यक संकल्प: अहिंसा, परोपकार, और इच्छाओं का त्याग।
  • सम्यक वाणी: प्रिय, सत्य और विनम्र वाणी।
  • सम्यक कर्म: हिंसा, चोरी, और असंयम से दूर रहना।
  • सम्यक आजीव: शुद्ध उपायों से आजीविका प्राप्त करना।
  • सम्यक व्यायाम: विवेकपूर्ण प्रयास करना।
  • सम्यक स्मृति: शरीर, मन, और भावनाओं की पूर्ण जानकारी।
  • सम्यक समाधि: मन की एकाग्रता और मानसिक शांति।

3. प्रतीत्यसमुत्पाद (संपूर्णता का नियम)

  • बुद्ध ने जीवन के दुखों को कारण-कार्य संबंध से जोड़ा जिसे प्रतीत्यसमुत्पाद कहा गया। जीवन के विभिन्न दुखों का कारण एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है, जैसे तृष्णा, आसक्ति और अज्ञान। इस चक्र की 12 कड़ियाँ (द्वादशं निदान) दुखों के क्रमिक कारणों को समझाती हैं, जो अविद्या (अज्ञान) से शुरू होकर जन्म और दुख में बदलती हैं।

4. बौद्ध धर्म में अनात्मवाद और अनीश्वरवाद

  • बौद्ध धर्म में अनात्मवाद है, अर्थात बुद्ध ने आत्मा की स्थायी सत्ता में विश्वास नहीं किया। पुनर्जन्म का अर्थ है कि कर्म-फल के आधार पर नए जीवन का प्रारंभ होता है, लेकिन इसमें आत्मा का शाश्वत अस्तित्व नहीं माना गया।
  • बुद्ध का मत था कि सृष्टि में ईश्वर की कोई भूमिका नहीं है। संसार का निर्माण और दुखों का जन्म प्राकृतिक कारणों से होता है।

5. मध्य मार्ग और निर्वाण

  • बुद्ध ने जीवन में मध्य मार्ग (मध्यम प्रतिपदा) का पालन करने का उपदेश दिया। उन्होंने अत्यधिक विलासपूर्ण जीवन और अत्यधिक कष्ट सहन करने की प्रवृत्तियों को अस्वीकार किया।
  • अष्टांगिक मार्ग के पालन से निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है, जो जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति और दुखों का अंत है।

6. कर्म और पुनर्जन्म

  • बुद्ध ने कर्म सिद्धांत को मान्यता दी और कहा कि वर्तमान जीवन हमारे भूतकालीन कर्मों का परिणाम है। पुनर्जन्म कर्मों के प्रभाव से होता है, लेकिन भाग्य का निर्माण मनुष्य के कर्मों पर निर्भर करता है।


बौद्ध धर्म की लोकप्रियता के कारण

बौद्ध धर्म के कुछ विशेष कारणों से यह समाज में लोकप्रिय हुआ :-

  • साधारण भाषा का प्रयोग: बुद्ध ने अपने उपदेश पाली भाषा में दिए, जिससे आम जनता इसे समझ सकी।
  • वर्ण-व्यवस्था की निंदा: बौद्ध धर्म ने वर्ण-व्यवस्था का विरोध किया, जिससे निम्न वर्गों ने इसे अपनाया।
  • स्त्रियों को संघ में प्रवेश: इसने धर्म को अधिक उदार और लोकतांत्रिक बनाया।
  • बुद्ध का व्यक्तित्व और उपदेश की प्रणाली: बुद्ध का सरल और करुणामय व्यक्तित्व लोगों को आकर्षित करता था।
  • राजाओं और गणराज्यों का समर्थन: मगध, कोसल, और कौशांबी जैसे राज्यों ने इसे अपनाया, जिससे इसका प्रसार तेज़ हुआ।


बौद्ध संप्रदाय: हीनयान और महायान

बौद्ध धर्म में दो प्रमुख संप्रदाय बने:-

  • हीनयान: यह संप्रदाय बुद्ध के मूल उपदेशों पर आधारित था और निर्वाण को चरम लक्ष्य मानता था। यह संप्रदाय बुद्ध को साधारण मनुष्य के रूप में देखता था जिन्होंने अपने प्रयासों से निर्वाण प्राप्त किया।
  • महायान: इस संप्रदाय ने बुद्ध को भगवान का अवतार माना और समाज सुधार को अंतिम लक्ष्य मानता था। महायान के अनुसार निर्वाण को परमात्मा से मिलन माना जाता है।


बौद्ध धर्म के पतन के कारण

बौद्ध धर्म का पतन विभिन्न कारणों से हुआ :-

  • भिक्षुओं की अनैतिकता: समय के साथ विहारों में भिक्षुओं के अनैतिक आचरण ने धर्म की छवि को खराब किया।
  • विहारों की अपार संपत्ति: विहारों में अत्यधिक संपत्ति संग्रह से भी इसके अनुयायियों का विश्वास कम हुआ।
  • संस्कृत भाषा का प्रयोग: संस्कृत को अपनाने से यह धर्म आम जनता से दूर होता गया।
  • हिंदू धर्म का पुनरुत्थान: हिंदू धर्म में सुधार और ईश्वरवाद ने लोगों को वापस हिंदू धर्म की ओर आकर्षित किया।
  • राजनैतिक कारण: नए राजवंशों और राज्यों ने अहिंसा का त्याग कर नए विचारों को अपनाया, जिससे बौद्ध धर्म का प्रभाव कम हो गया।


भारतीय संस्कृति में बौद्ध धर्म का योगदान

बौद्ध धर्म ने भारतीय संस्कृति में कई सकारात्मक योगदान दिए:-

  • सरल और लोकप्रिय धर्म: बौद्ध धर्म ने कर्मकांडों और बलिदानों की निंदा कर सरल और सुलभ धर्म का प्रचार किया।
  • शिक्षा और साहित्य: संघ शिक्षा के केंद्र बने, और तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालय बौद्ध शिक्षा का केंद्र बन गए।
  • वास्तुकला और मूर्तिकला: साँची, सारनाथ, नालंदा, और अमरावती के स्तूप भारतीय वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने हैं। गांधार और मथुरा शैली में बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण हुआ, जो भारतीय मूर्तिकला की महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं।
  • धार्मिक सहिष्णुता: बौद्ध धर्म ने सहिष्णुता और करुणा का प्रचार किया, जिससे समाज में सामाजिक समानता की भावना को बढ़ावा मिला।
  • अजंता की गुफाओं का चित्रकला: अजंता की गुफाओं के भित्ति चित्र विश्वप्रसिद्ध हैं और भारतीय चित्रकला की अमूल्य धरोहर मानी जाती हैं।


  भौतिक स्थितियाँ और जनपदों का गठन  

अब जन जातियाँ स्थायी रूप से एक स्थान पर बसने लगीं और इन स्थाई कृषि बस्तियों को जनपद कहा गया। जनपद का नाम प्रमुख क्षत्रिय वंशों के नाम पर रखा गया, जैसे कुरु और पांचाल। लोहे के औजारों से जंगल साफ किए गए और जमीन को कृषि योग्य बनाया गया, जिससे मध्य गंगा घाटी जैसे क्षेत्रों में धान की खेती का विस्तार हुआ।उत्पादन में वृद्धि और कृषि अधिशेष की उपलब्धता के साथ, वस्तु विनिमय प्रणाली की जगह मुद्रा प्रणाली ने ली। इससे व्यापार और आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ीं।

1. महाजनपदों और राज्यों का उदय

  • छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक सोलह महाजनपद उभर कर आए, जिनमें मगध, कोसल, और वत्स जैसे राज्य प्रमुख थे। इन राज्यों में प्रमुखता से कृषि और व्यापार को बढ़ावा मिला, जिससे आर्थिक और राजनीतिक शक्ति का केंद्रीकरण हुआ।

2. समाज और आर्थिक संरचना

  • नए नगरों के निर्माण और शहरीकरण के साथ, समाज में व्यवसायों का विभाजन हुआ। शहरी और ग्रामीण केन्द्रों में एक अंतर स्थापित हुआ। शहरी लोग व्यवसाय और व्यापार में लगे थे, जबकि ग्रामीण लोग कृषि में। इस समय सेठी जैसे मध्यस्थ वर्ग उभरे, जो व्यापार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे और आर्थिक रूप से भी प्रभावशाली थे। वे बड़े जमींदार भी बने और शहरी व ग्रामीण समाज में सामंजस्य स्थापित करने में सहायक हुए।किसानों से कर वसूलने की व्यवस्था शुरू हुई, जिससे राजाओं की आर्थिक शक्ति बढ़ी और राज्य के प्रशासन का विस्तार हुआ।

3. सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रभाव

  • प्रादेशिक राज्यों के गठन से सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तनों में तेजी आई। वैदिक और गैर-वैदिक जनजातियों के निकट आने से सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी बढ़ा, जो नए प्रादेशिक संगठनों के निर्माण में सहायक साबित हुआ।


जनपद और महाजनपद : प्रारंभिक भारतीय राजनीतिक संरचनाएँ

जनपद और महाजनपद संबंधी जानकारी हमें वैदिक और बौद्ध साहित्य से प्राप्त होती है। इनसे छठी शताब्दी ईसा पूर्व के भारत में राजनीतिक, सामाजिक, और आर्थिक संरचनाओं का पता चलता है।

जनपद

जनपद शब्द का अर्थ "लोगों के रहने का स्थान" है। वैदिक काल के बाद लोग खानाबदोश जीवन छोड़कर एक जगह पर स्थायी रूप से बसने लगे, और कृषि उनकी मुख्य आजीविका बन गई। इस स्थायित्व ने जनपदों का निर्माण किया।

  • भौगोलिक और सामाजिक स्थायित्व: जनपद स्थायी अधिवास थे, जहाँ लोग अपने रीति-रिवाजों और भाषा के साथ स्थायी रूप से बसे। विभिन्न जनपदों के अपने रीति-रिवाज और सांस्कृतिक पहचान थी।
  • आर्थिक संरचना: जनपदों की कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था के कारण नियमित कर प्रणाली और सेना का निर्माण संभव हुआ। यह स्थिति बाद में बड़े राज्यों के गठन में सहायक हुई।
  • पाणिनि का विवरण: पाणिनि ने ईसा पूर्व 450 तक के 40 जनपदों का उल्लेख किया, जो अफगानिस्तान से लेकर मध्य एशिया तक फैले थे।

महाजनपद

छठी शताब्दी ईसा पूर्व में जनपदों के सामाजिक और राजनीतिक संगठन में परिवर्तनों के कारण कुछ जनपदों का विकास महाजनपद के रूप में हुआ।

  • बड़े राज्यों का गठन: महाजनपद उन जनपदों का समूह थे, जो एकजुट होकर बड़े क्षेत्रीय राज्यों का निर्माण करते थे। जैसे, कोशल महाजनपद में शाक्य और काशी जनपदों का विलय हुआ, और मगध महाजनपद में अंग, वज्जि आदि का समावेश हुआ।
  • प्रमुख महाजनपद: बौद्ध ग्रंथों में सोलह महाजनपदों का उल्लेख है, जिनमें मगध, कोशल, वत्स और अवंति प्रमुख थे।
  • राजनीतिक व्यवस्था: पहले राजा एक कबीले का प्रमुख होता था, लेकिन महाजनपदों के गठन के साथ राजा का शासन एक भौगोलिक क्षेत्र पर फैल गया। राजा कर वसूलते थे और स्वतंत्र रूप से सेना का संचालन करते थे।
  • सामाजिक विभाजन: जनपदों के सामजिक संगठन में गृहपति और किसान वर्ग का उत्थान हुआ। गृहपति या प्रमुख व्यक्ति अपने अधिशेष का उपयोग व्यापार और आर्थिक शक्ति बढ़ाने में करने लगे।

  • सामाजिक और आर्थिक संरचना : महाजनपदों में गाँव (ग्राम) बुनियादी इकाई थे, और कृषि मुख्य व्यवसाय था। जातक ग्रंथों में कर संग्राहक और कृषि सर्वेक्षक का भी उल्लेख मिलता है। गाँवों में संपन्न परिवारों का उदय हुआ, जिनके पास दास और मजदूर थे। व्यापार में वस्तु-विनिमय प्रणाली प्रचलित थी।

  • महाजनपदों का महत्व: महाजनपदों के गठन से एक नई राजनीतिक व्यवस्था उभरी, जो कृषि, शिल्प और व्यापार की प्रगति पर आधारित थी। इस काल ने भारतीय समाज के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन में महत्वपूर्ण बदलाव लाए, जो बाद के साम्राज्यवादी युग की नींव बने।


गणसंघ

छठी सदी ईसा पूर्व में भारत में कई स्वतंत्र राज्यों का अस्तित्व था, जिनमें राजशाही और गणसंघ दोनों तरह के शासन प्रणाली थीं। गणसंघ या कुलीनतंत्र वह शासन प्रणाली थी जिसमें राजा का पद वंशानुगत नहीं होता था। गणसंघों के बारे में मुख्य जानकारी बौद्ध और जैन ग्रंथों से मिलती है। बौद्ध ग्रंथों में शाक्य, लिच्छवी, मल्ल, विदेह, मोरिय, और कालाम जैसे गणसंघों का उल्लेख मिलता है। ये गणसंघ मुख्यतः हिमालय की तराई, पूर्वी उत्तर प्रदेश, और बिहार में स्थित थे।

1. गणसंघ की विशेषताएँ

  • गणराज्य की संरचना: गणसंघ वंशानुगत राजशाही के विपरीत, एक ऐसी प्रणाली थी जिसमें सर्वोच्च शक्ति आम जनता या उनके द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के पास होती थी। इसमें राज्य प्रमुख का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से होता था, जो इसे राजशाही से अलग बनाता था।
  • संवैधानिक संरचना: ए.एस. अल्तेकर के अनुसार, गणसंघों में शक्ति जनता में नहीं बल्कि "गण" यानी जन समूह में निहित होती थी।

2. गणसंघों का विस्तार और प्रभाव

  • गणसंघ प्रणाली के संदर्भ जैन और बौद्ध ग्रंथों में मिलते हैं, जैसे कि जातक कथाओं में उत्तर प्रदेश और बिहार के गणसंघों का वर्णन है। उत्तर-पश्चिमी और उत्तर-पूर्वी भारत, विशेष रूप से पंजाब, उत्तर प्रदेश और बिहार, गणसंघों के मुख्य केंद्र थे। लिच्छवी और शाक्य गणसंघों का उल्लेख विशेष रूप से मिलता है, लेकिन अन्य गणसंघों के राजनीतिक इतिहास के बारे में सीमित जानकारी उपलब्ध है।

3. राजनीतिक महत्त्व

  • गणसंघों का अस्तित्व उस काल की महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रगति को दर्शाता है। राजशाही के साथ गणसंघों की उपस्थिति ने राजनीतिक व्यवस्था में विविधता और लोकतांत्रिक तत्वों का संकेत दिया। यह गणसंघ प्रणाली जनता को संगठन और निर्णय में भागीदारी का अनुभव प्रदान करती थी, जो भारतीय इतिहास में विशेष स्थान रखती है।


सोलह महाजनपद : छठी सदी ईसा पूर्व के प्रमुख भारतीय राज्य

बौद्ध ग्रंथों और साहित्य में सोलह महाजनपदों का उल्लेख मिलता है, जो उत्तर-पश्चिम पाकिस्तान से लेकर पूर्वी बिहार और उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी तक फैले हुए थे। इन महाजनपदों का विकास छठी सदी ईसा पूर्व में हुआ, जब उत्तरी भारत में कई शक्तिशाली राज्यों का उदय हुआ।

सोलह महाजनपदों का विवरण:-

  • काशी: इसकी राजधानी वाराणसी थी। यह उपजाऊ भूमि पर स्थित था और वस्त्र निर्माण और घोड़ों के व्यापार में अग्रणी था। हालांकि, गौतम बुद्ध के समय तक यह कोसल राज्य का हिस्सा बन चुका था।
  • कोसल: गोमती नदी के पास स्थित यह राज्य कपिलवस्तु, अयोध्या, और श्रावस्ती जैसे नगरों में विस्तृत था। राजा प्रसेनजीत के शासनकाल में यह राज्य महत्वपूर्ण था और इसे मगध साम्राज्य की चुनौती का सामना करना पड़ा।
  • अंग: इसकी राजधानी चंपा थी, जो गंगा और चंपा नदियों के संगम पर स्थित थी। यह क्षेत्र बाद में मगध साम्राज्य के अधीन आ गया।
  • मगध: वर्तमान पटना और गया जिलों में स्थित, मगध राज्य का प्रभावी शासक बिंबिसार था। यह राज्य कृषि उपज, लौह संसाधनों और व्यापार मार्गों की बदौलत सुदृढ़ हुआ।
  • वज्जि: बिहार के वैशाली में स्थित, यह राज्य लिच्छवि और विदेह जनजातियों के अंतर्गत गणराज्य था। इसका मजबूत संगठन और गणतांत्रिक व्यवस्था इसे अद्वितीय बनाती थी।
  • मल्ल: यह दो हिस्सों में विभाजित था - पावा और कुशीनारा, जो आधुनिक उत्तर प्रदेश में स्थित हैं। मल्ल जनसंघ के रूप में संगठित था और गणराज्य के रूप में शासन करता था।
  • चेदि: इसका विस्तार बुंदेलखंड से मालवा तक था। यहाँ की राजधानी सोथीवती थी, और चेदि के शासक का उल्लेख महाभारत में भी मिलता है।
  • वत्स: यमुना के तट पर स्थित इस महाजनपद की राजधानी कौशाम्बी थी। राजा उदयन का इस राज्य पर शासन था, जो मगध, वत्स, और अवंति के बीच राजनीतिक टकराव का केंद्र बना।
  • कुरु: दिल्ली और मेरठ के पास स्थित इस राज्य की राजधानी हस्तिनापुर और इंद्रप्रस्थ थी। महाभारत के समय से यह राज्य पौराणिक और ऐतिहासिक दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण रहा।
  • पांचाल: यह राज्य आधुनिक बुलंदशहर, अलीगढ़ और बरेली तक फैला हुआ था। इसकी उत्तरी राजधानी अहिच्छत्र और दक्षिणी राजधानी काम्पिल्य थी।
  • मत्स्य: यह आधुनिक राजस्थान के अलवर और जयपुर क्षेत्रों में स्थित था। इसकी राजधानी विराटनगर थी और महाभारत के अनुसार इसे पशुपालन के लिए महत्वपूर्ण माना गया था।
  • सूरसेन: मथुरा में केंद्रित यह राज्य यमुना नदी के किनारे स्थित था। यह यादव वंश के शासकों का गढ़ था और इसका प्रमुख आर्थिक और भौगोलिक महत्त्व था।
  • अश्मक: यह गोदावरी नदी के किनारे स्थित था, और इसकी राजधानी पोतना थी। यह एकमात्र दक्षिणी महाजनपद था।
  • अवंति: आधुनिक मालवा और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में विस्तृत यह राज्य दो भागों में बँटा हुआ था - उत्तरी राजधानी उज्जैन और दक्षिणी राजधानी महिष्मति थी।
  • गांधार: आधुनिक पेशावर और रावलपिंडी के आसपास स्थित, इस राज्य की राजधानी तक्षशिला थी, जो विद्या और व्यापार का महत्वपूर्ण केंद्र था।
  • कांबोज: हजारा और राजौरी के जिलों में फैला यह राज्य उत्तर-पश्चिम भारत का एक प्रमुख केंद्र था, जो पहले राजशाही और बाद में गणराज्य बन गया।

महाजनपदों के महत्व 

  • इन महाजनपदों का विकास कृषि, व्यापार, और राजनीतिक संगठनों के रूप में उभरने से हुआ। इनमें से कुछ गणराज्य प्रणाली को अपनाए हुए थे, जबकि अन्य में राजशाही प्रचलित थी। ये महाजनपद भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। कृषि के विकास और लोहे के उपयोग से यहाँ की अर्थव्यवस्था मजबूत हुई, जिससे इन राज्यों की राजनीतिक शक्ति में वृद्धि हुई।


छठी शताब्दी ईसा पूर्व के उत्तरार्द्ध के चार प्रमुख राज्य

इस अवधि में आर्य-सभ्यता का प्रसार पूर्व दिशा में हुआ और आर्यों की गतिविधि का केंद्र मगध, वत्स, कोसल और अवंति राज्य बन गए। इन राज्यों के साथ वज्जि गणतंत्र भी राजनीतिक और आर्थिक रूप से शक्तिशाली था।

  • अवंति: इसका शक्तिशाली शासक प्रद्योत था, जिससे मगध के राजा अजातशत्रु भी भय खाता था। प्रद्योत की पुत्री वासवदत्ता का विवाह वत्स के राजा उदयन से हुआ था। ईसा पूर्व चौथी सदी में मगध के शासक शिशुनाग ने अवंति के शासकों की शक्ति को समाप्त कर दिया।
  • वत्स: इसका प्रसिद्ध शासक उदयन था, जिसने विवाह संबंधों के माध्यम से अपनी शक्ति बढ़ाई। हालांकि, वह अपना शासन स्थिर नहीं रख सका और उसका राज्य अंततः अवंति में विलीन हो गया।
  • कोसल: भगवान बुद्ध के समय इसका शासक प्रसेनजित था। उसकी बहन कोसलादेवी का विवाह मगध के राजा बिंबिसार से हुआ था, जिससे बिंबिसार को काशी का हिस्सा प्राप्त हुआ। काशी पर अधिकार को लेकर कोसल और मगध के बीच संघर्ष हुआ, जो प्रसेनजित की पुत्री वजिरा का अजातशत्रु से विवाह होने पर समाप्त हुआ।
  • मगध: मगध एक शक्तिशाली राज्य था, जिसके शासक बिंबिसार और अजातशत्रु थे। उन्होंने अपने राज्य का विस्तार किया और आसपास के राज्यों से संबंध बनाए।


  मगध का अभ्युदय और विकास  

मगध का अभ्युदय छठी शताब्दी ईसा पूर्व के बाद तेजी से हुआ और यह राज्य धीरे-धीरे उत्तर भारत की प्रमुख शक्ति बन गया। इसके उत्थान के प्रमुख कारण थे: उसके शासकों की महत्वाकांक्षा, सामरिक स्थिति, कृषि व आर्थिक संपन्नता, और लोहे के उपकरणों का उपयोग। मगध ने अपने प्रभाव और सीमाओं का लगातार विस्तार किया और अपनी स्थिति को स्थिर किया।

1. बिंबिसार का शासन (543-491 ईसा पूर्व)

  • बिंबिसार ने मगध को एक सुदृढ़ राज्य में बदल दिया और राज्य के विस्तार के लिए ठोस कदम उठाए। वह हर्यक वंश से था और "श्रेणिक" के नाम से भी जाना जाता था। उसकी राजधानी राजगृह थी, जो पाँच पहाड़ियों से सुरक्षित दुर्ग के रूप में स्थित थी। बिंबिसार ने वैवाहिक संबंधों के माध्यम से अपने राज्य को और सुदृढ़ किया। उसकी पुत्री का विवाह कोसल के शासक से हुआ था, जिससे काशी का एक भाग उसके नियंत्रण में आया। इसके अलावा उसने अंग पर विजय प्राप्त की और इसे अपने साम्राज्य में शामिल किया।

2. अजातशत्रु का शासन (491-459 ईसा पूर्व)

  • अजातशत्रु, बिंबिसार का पुत्र था। उसने अपने शासनकाल में लिच्छवियों के खिलाफ एक लम्बा और निर्णायक युद्ध किया। लिच्छवि संघ, मगध के लिए एक बड़ी चुनौती थी, और अजातशत्रु ने उन्हें पराजित कर उनकी भूमि को अपने राज्य में शामिल किया। इसके अलावा, उसने युद्ध की नई तकनीकों और हथियारों का प्रयोग किया, जिससे उसकी सैन्य शक्ति और बढ़ गई। गौतम बुद्ध के निधन के बाद, अजातशत्रु ने उनके अवशेषों को सम्मानपूर्वक एक स्तूप में प्रतिष्ठापित किया।

3. शिशुनाग वंश का उदय

  • अजातशत्रु के बाद, मगध की सत्ता कमजोर पड़ने लगी और अजातशत्रु के उत्तराधिकारी कमजोर व अलोकप्रिय साबित हुए। इस अवसर का लाभ उठाते हुए, शिशुनाग ने सत्ता पर अधिकार कर लिया और एक नया राजवंश स्थापित किया। शिशुनाग ने मगध का साम्राज्य मध्य प्रदेश और मालवा तक फैलाया। उसने अवंति के शक्तिशाली शासक की सत्ता को समाप्त कर दिया, जिससे मगध साम्राज्य का और अधिक विस्तार हुआ।

4. नंद वंश का उदय

  • ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के मध्य में महापद्मनंद ने शिशुनाग वंश का तख्ता पलट कर नंद वंश की स्थापना की। महापद्मनंद शूद्र जाति से था और उसके उदय को लेकर कई किंवदंतियां प्रचलित हैं। उसने कुरु, पांचाल, कलिंग, अश्मक और अन्य कई राज्यों को पराजित किया और क्षत्रिय राज्यों को सत्ता से उखाड़ फेंका। उसकी शक्ति और सैन्य क्षमता इतनी थी कि उसने संपूर्ण मध्यदेश, मालवा और कुछ दक्षिणी क्षेत्रों को अपने अधीन कर लिया। महापद्मनंद ने कलिंग और गोदावरी तट पर अपनी शक्ति का विस्तार किया, जिससे नंद साम्राज्य अत्यधिक समृद्ध और शक्तिशाली बन गया।

5. धनानंद का शासन 

  • महापद्मनंद के उत्तराधिकारी और नंद वंश के अंतिम शासक धनानंद के पास विशाल सेना और समृद्धि थी। परन्तु उसकी अधार्मिक प्रवृत्ति और लोभी स्वभाव के कारण वह अत्यंत अलोकप्रिय था। उसकी अलोकप्रियता ने चंद्रगुप्त मौर्य और चाणक्य को अवसर दिया, जिन्होंने मगध पर अधिकार करने की योजना बनाई। सिकंदर के लौटने के बाद उत्पन्न राजनीतिक शून्यता का लाभ उठाते हुए चंद्रगुप्त ने धनानंद को सत्ता से बाहर कर मौर्य वंश की स्थापना की।


मगध की सफलता के कारण

मगध के उत्तर भारत का सबसे शक्तिशाली राजतंत्र बनने के कई कारण थे:

  • योग्य शासकों का नेतृत्व: बिंबिसार, अजातशत्रु, और महापद्मनंद जैसे महत्त्वाकांक्षी और सक्षम शासकों ने मगध की शक्ति और विस्तार में योगदान दिया।
  • लाभदायक भौगोलिक स्थिति: मगध की स्थिति गंगा के ऊपरी और निचले मैदानों के बीच थी, जो इसे व्यापार और वाणिज्य का महत्वपूर्ण केंद्र बनाती थी। यह सामरिक दृष्टि से भी अन्य राज्यों की तुलना में सुरक्षित था।
  • समृद्ध संसाधन: मगध में घने वन, खनिज, धातु और उर्वर कृषि भूमि थी, जिससे इसकी अर्थव्यवस्था मजबूत रही। इन संसाधनों ने सेना को सशक्त बनाने और स्थायी प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित करने में मदद की।
  • संगठित प्रशासन और सेना: मगध के शासक कुशल प्रशासनिक पदाधिकारियों और स्थायी सेना पर निर्भर थे, जो राज्य को मजबूत बनाने में सहायक थे।
  • सांस्कृतिक प्रेरणा: मगध के चारणों ने जनता को प्रेरित किया और शासकों ने चक्रवर्ती राज्य की आदर्श अवधारणा को साकार किया, जैसा कि ब्राह्मण ग्रंथों और उपनिषदों में उल्लेखित है।
  • नंद वंश का योगदान: नंदों ने पहली बार उत्तर भारत के विभाजित राज्यों को संगठित किया और एक स्थायी राजनीतिक सत्ता की नींव रखी, जिसे बाद में मौर्यों ने और मजबूत किया।



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