प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय राजनीतिक विचार UNIT 1 CHAPTER 2 SEMESTER 3 THEORY NOTES भारत की सांस्कृतिक और क्षेत्रीय अवधारणा, भारतीय राजनीतिक चिंतन की विशिष्ट विशेषताएँ POLITICAL DU. SOL.DU NEP COURSES

प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय राजनीतिक विचार UNIT 1 CHAPTER 2 SEMESTER 3 THEORY NOTES भारत की सांस्कृतिक और क्षेत्रीय अवधारणा, भारतीय राजनीतिक चिंतन की विशिष्ट विशेषताएँ POLITICAL DU. SOL.DU NEP COURSES


भारत के राजनीतिक चिंतन की शुरुआत वैदिक युग से होती है, जहाँ सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराएँ प्रमुख रहीं। इस काल में ब्राह्मणवादी और श्रमण परंपराएँ उभरीं, जिनके इर्द-गिर्द समाज और राजनीति का विकास हुआ। आगे चलकर इस्लाम और समधर्मी परंपराएँ भी जुड़ीं। इन परंपराओं में 'धर्म' केंद्र बिंदु रहा, जिसे पश्चिमी दृष्टिकोण से पूरी तरह समझा नहीं जा सका।


 वैदिक काल में धर्म की अवधारणा 

वैदिक काल में धर्म को जीवन का मुख्य नियम और मार्गदर्शक माना गया। धर्म का मतलब था उचित कर्तव्यों का पालन और सत्य व पुण्य के मार्ग पर चलना। इसे नैतिक और प्राकृतिक नियम के रूप में देखा जाता था, जो सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने में मदद करता था।

  • सामाजिक व्यवस्था और वर्ण प्रणाली: इस काल में समाज चार वर्णों—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र—में बंटा था। यह बंटवारा कर्म और जीविका पर आधारित था। कोई भी व्यक्ति अपने ज्ञान और योग्यता के अनुसार अपना वर्ण बदल सकता था। उदाहरण के लिए, भृगु ऋषि के वंशज रथ बनाने में कुशल बढ़ई थे।
  • ग्राम व्यवस्था: ग्राम स्वावलंबी होते थे और अपनी जरूरत की सभी चीजें वहीं उपलब्ध होती थीं।
  • देवताओं की पूजा और ऋत:इंद्र, वरुण, अग्नि, सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी, विष्णु आदि देवताओं की पूजा की जाती थी। वरुण को नैतिक नियमों के संरक्षक और शांतिप्रिय देवता माना गया। उनके नियम "ऋत" कहलाते थे, जिनका पालन देवताओं को भी करना पड़ता था।


उत्तर-वैदिक काल में धर्म और दंड की अवधारणा

  • धर्म की अवधारणा: उत्तर-वैदिक काल को ब्राह्मणवादी काल भी कहा जाता है। इस काल में वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित हो गई थी और कर्म आधारित नहीं रही। ऋत का महत्त्व खत्म हो चुका था, और धर्म को कर्तव्यों के रूप में परिभाषित किया गया। धर्म के नियम ब्राह्मण ग्रंथों, वेदों, उपनिषदों और महाकाव्यों में लिखे गए। इस समय रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों ने धर्म को लोकप्रिय बनाया।
  • कौटिल्य ने धर्म को चार वर्णों और आश्रमों के कर्तव्यों से जोड़ा।

1. ब्राह्मण: यज्ञ, दान लेना-देना, धर्म का अध्ययन।

2. क्षत्रिय: पढ़ाई, यज्ञ, बल व शस्त्र से रक्षा।

3. वैश्य: कृषि, पशुपालन, व्यापार।

4. शूद्र: सेवा, गायन, शिल्प आदि।

  • मनुस्मृति का योगदान: मनुस्मृति में धर्म को समाज का अनुशासन सूत्र बताया गया। मनु के अनुसार धर्म व्यक्ति, समाज, और राज्य की नैतिकता का आधार है।
  • दंड की अवधारणा: धर्म और दंड एक-दूसरे पर निर्भर थे। दंड का अर्थ अनुशासन और विवशता है। धर्म के पालन के लिए दंड का भय आवश्यक था। यदि कोई व्यक्ति अपने धर्म या कर्तव्यों का पालन नहीं करता, तो उसे दंड दिया जाता। यह दंड समाज में अनुशासन और कर्तव्यों का पालन सुनिश्चित करता था।


राज्य और राजनीति के संदर्भ में धर्मशास्त्र 

1. राज्य का स्वरूप और भूमिका: प्राचीन भारतीय चिंतन में राज्य को एक सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के रूप में देखा गया। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राज्य की उत्पत्ति, प्रकृति, उद्देश्यों और कार्यों का विस्तृत वर्णन मिलता है। राज्य का मुख्य कर्तव्य था कि वह प्रजा को धर्म के मार्ग से विचलित न होने दे और समाज में न्याय और धर्म का पालन सुनिश्चित करे।

2. धर्म और राजनीति का संबंध: वी. के. सरकार के अनुसार, भारत में राजनीति और धर्म का सीधा अधिपत्य नहीं था। धर्मशास्त्र और राजनीति अलग क्षेत्रों में कार्य करते थे, लेकिन इनका आपस में घनिष्ठ संबंध था। कौटिल्य ने सुझाव दिया कि धर्म और राजनीति के मध्य किसी भी संघर्ष में राज्य को धर्मशास्त्र के आधार पर निर्णय लेना चाहिए। धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र दोनों नियमों के स्रोत माने जाते थे, लेकिन धर्मशास्त्र को प्राथमिकता दी जाती थी।

3. नीतिशास्त्र और राजधर्म: राजनीति, धर्म और नीतिशास्त्र का घनिष्ठ संबंध था। नीतिशास्त्र राज्य को उचित और अनुचित कार्यों की पहचान कराता था।

  • राजा का धर्म: प्रजा को धर्म के मार्ग पर चलाना और नैतिकता सुनिश्चित करना।
  • व्यक्ति का धर्म: राज्य के नियमों और कर्तव्यों का पालन करना।
  • मनु ने स्पष्ट किया कि धर्म ही राज्य का अनुशासन सूत्र है। राजा को धर्म का उल्लंघन करने पर दंड का प्रावधान भी था।

4. हिंदू राजनीतिक परंपराओं की विशेषताएँ: प्रो. भीखू पारेख ने हिंदू परंपराओं की कुछ विशेषताएँ बताई:

  • समतावाद: नैतिक समानता का विचार था, लेकिन सामाजिक और राजनीतिक समानता विकसित नहीं हो पाई।
  • बहुलवाद: सामाजिक समूहों की स्वायत्तता को मान्यता दी गई।
  • स्थापित व्यवस्था की स्वीकृति: जाति व्यवस्था और सामाजिक भेदभाव को धर्म से जोड़ा गया।
  • शासकों को मार्गदर्शन: हिंदू लेखकों ने अपने विचार शासकों के लिए नैतिकता और प्रशासन के रूप में प्रस्तुत किए।



 भारतीय राजनीतिक परंपराओं में चार्वाक दर्शन का योगदान 

1. चार्वाक दर्शन: चार्वाक दर्शन भारत का पहला नास्तिक और भौतिकवादी दर्शन है। इसमें ईश्वर, स्वर्ग, और नरक जैसी अवधारणाओं को कोरी कल्पना माना गया। चार्वाक ने जीवन को केवल प्रत्यक्ष प्रमाण और भौतिक वास्तविकताओं के आधार पर परखा।

  • चार्वाक दर्शन ने धार्मिक आडंबरों, मूर्ति पूजा, यज्ञ, और बलि प्रथा का विरोध किया।
  • यह दर्शन तार्किकता और स्वतंत्र विचारों पर आधारित था, जो परंपरागत धार्मिक मान्यताओं को चुनौती देता था।

2. बौद्ध और जैन धर्म का प्रभाव

बौद्ध और जैन धर्म चार्वाक के कुछ सिद्धांतों से प्रेरित थे।

  • बौद्ध धर्म: गौतम बुद्ध ने जाति प्रथा, यज्ञ, और पशु बलि का विरोध किया। बौद्ध दर्शन में अहिंसा और सामाजिक न्याय पर बल दिया गया।
  • जैन धर्म: महावीर ने हिंसा के विरोध में अहिंसा का सिद्धांत प्रतिपादित किया। जैन धर्म ने सभी जीवों की रक्षा को कर्तव्य माना।

3. राजत्व की उत्पत्ति पर चार्वाक और बौद्ध दृष्टिकोण

  • चार्वाक और बौद्ध परंपराओं ने राज्य की उत्पत्ति को भौतिक और सामाजिक कारणों से जोड़ा।
  • जातक कथाएँ: राजा को जनसमाज द्वारा चुना जाता था।
  • दीघनिकाय: राज्य का निर्माण लोगों की सहमति से हुआ, जब समाज में नैतिक पतन शुरू हुआ।
  • राज्य का उद्देश्य सामाजिक व्यवस्था बनाए रखना और अपराधों को नियंत्रित करना था।

4. दंड और धर्म का संबंध

  • बौद्ध साहित्य में दंड की भूमिका गौण थी। राज्य को धर्म के माध्यम से समाज में नैतिकता बनाए रखने पर जोर दिया गया।
  • धर्म की अवधारणा ब्राह्मणवादी धर्म से भिन्न थी और यह पुण्य और नैतिकता के पश्चिमी दृष्टिकोण के समान थी।

5. बौद्ध दृष्टिकोण: धर्म और राजनीति का संबंध

  • बौद्ध धर्म ने सामाजिक व्यवस्था को प्राथमिकता दी और राज्य को इसका माध्यम माना।
  • ब्राह्मणवादी परंपरा के विपरीत, बौद्ध धर्म में राजा के नैतिक सिद्धांत सामान्य नागरिकों के समान थे।
  • धार्मिकता (धर्म) को राज्य की आंतरिक और विदेशी नीतियों का मार्गदर्शक बनाया गया।


भारत में इस्लामी राजनीतिक परंपरा 

इस्लामी राजनीतिक परंपरा का विकास

भारत में इस्लामी राजनीतिक परंपरा मध्यकाल में विकसित हुई। मुस्लिम शासक खलीफा से वैधता प्राप्त करने की कोशिश करते थे, लेकिन भारत में उन्हें वास्तविकताओं के साथ समझौता करना पड़ा। इस्लामी राजनीतिक विचार हिंदू परंपराओं से भिन्न थे, लेकिन इनका गहरा प्रभाव भारतीय राजनीति पर पड़ा।

1. मुस्लिम विद्वानों का योगदान

  • बरनी: कट्टर सुन्नी विचारक, जिन्होंने मुस्लिम शासकों को शरीयत के पालन का समर्थक बताया। उनकी रचना तारीख-ए-फिरोजशाही में राज्य की प्रकृति, राजत्व की दिव्यता और राज्य के कर्तव्यों पर विचार व्यक्त किए गए। बरनी के अनुसार, राज्य का उद्देश्य धर्म की रक्षा और गैर-मुसलमानों को जज़िया कर के माध्यम से नियंत्रित करना था।
  • अबुल फज़ल: उदार विचारक, जिन्होंने धार्मिक समभाव और हिंदू-मुस्लिम एकता का समर्थन किया। उनकी रचनाएँ आईन-ए-अकबरी और अकबरनामा में राज्य को शांतिपूर्ण और सहयोगी बताया गया। फज़ल ने धार्मिक उत्पीड़न को व्यर्थ बताते हुए धर्मों के विद्वानों को समान अवसर प्रदान करने की बात की।

2. राज्य की प्रकृति

इस्लामी राज्य दोहरी नीतियों पर आधारित था:

  • मुसलमान प्रजा: उनकी सुरक्षा राज्य का कर्तव्य थी।
  • गैर-मुसलमान प्रजा: उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए जज़िया कर देना पड़ता था।
  • अबुल फज़ल के अनुसार, राजा को समान नीति अपनाकर हिंदू-मुस्लिम एकता सुनिश्चित करनी चाहिए।

3. राजत्व की दिव्यता

  • बरनी: शासक को अल्लाह का प्रतिनिधि माना। बादशाह को शरीयत के आदेशों का पालन करना चाहिए। काफिरों के विनाश और इस्लाम की प्रतिष्ठा बढ़ाने पर जोर दिया।
  • अबुल फज़ल: राजा को "सच्चा शासक" और "स्वार्थी शासक" में विभाजित किया। सच्चे राजा का उद्देश्य प्रजा का कल्याण और उत्पीड़न दूर करना था। 

4. धार्मिक और राजनीतिक विचार

इस्लामी राजनीतिक परंपरा ने धर्म और राजनीति को जोड़ा, लेकिन उनकी प्राथमिकताएँ भिन्न थीं:
  • बरनी ने कट्टर धार्मिक मान्यताओं का समर्थन किया।
  • अबुल फज़ल ने उदार और समावेशी नीतियों पर जोर दिया।



 भारत में समधर्मी राजनीतिक परंपरा: सूफी और भक्ति आंदोलन 

1. सूफी आंदोलन

सूफीवाद, एक विचारधारा और भक्ति परंपरा, मध्य और पश्चिमी एशिया में विकसित हुई। भारत में यह चिश्ती, सुहरावर्दी और नकशबंदी जैसे विभिन्न सिलसिलों (संप्रदायों) के रूप में प्रचलित हुआ।

  • मूल विचार: सूफियों ने ईश्वर के प्रति गहरी भक्ति, साधारण जीवन, और धार्मिक समरसता पर बल दिया।
  • सामाजिक प्रभाव: संतों की समाधियों ने विभिन्न समुदायों को जोड़ा और शांति व सुलह को बढ़ावा दिया।
  • समन्वयवाद: सूफी परंपरा ने धार्मिक विविधता को स्वीकार कर समन्वयवाद को बढ़ावा दिया, जिससे विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच समरसता स्थापित हुई।

2. भक्ति आंदोलन

भक्ति आंदोलन वैष्णव और भगवती परंपराओं से विकसित हुआ। इसका उद्देश्य आत्मा और ईश्वर के पुनर्मिलन को साधना था।

  • मुख्य विचार : ईश्वर की भक्ति के माध्यम से मोक्ष (मुक्ति) प्राप्त करना।
  • रामानंद: उन्होंने निचली जातियों के लिए भक्ति का मार्ग खोला।
  • कबीर: उन्होंने मूर्ति पूजा, जातिवाद, तीर्थयात्रा और कर्मकांड का विरोध किया। उनके भजनों ने सरल जीवन और शुद्ध हृदय को भक्ति का आधार बताया।

  • गुरु नानक: उन्होंने समानता और भाईचारे पर जोर दिया।

3. सूफी और भक्ति आंदोलन का सामाजिक प्रभाव

  • दोनों आंदोलनों ने सामाजिक और धार्मिक सुधार लाने का प्रयास किया। उन्होंने जातिवाद, रूढ़िवाद और धार्मिक कट्टरता का विरोध किया।
  • सिद्धांतिक समानता: सूफीवाद का "वहदत-अल-युजूद" (अस्तित्व की एकता) हिंदू उपनिषदों के अद्वैत वेदांत से मेल खाता है।
  • समतावाद और समरसता: कबीर, गुरु नानक और अन्य संतों ने समतावादी समाज का समर्थन किया।

4. राजनीतिक प्रभाव

  • इन आंदोलनों ने धार्मिक सहिष्णुता और समरसता को बढ़ावा देकर राजनीतिक स्थिरता में योगदान दिया।
  • सूफी और भक्ति संतों ने समाज में ऐसा वातावरण बनाया, जिसने शासकों को धार्मिक नीतियों में सहिष्णुता अपनाने की प्रेरणा दी।

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