परिचय
भारतीय राजनीतिक चिंतन एक समृद्ध और गहन परंपरा है, जो प्राचीन सभ्यता से उपजे मूल्यों, विश्वासों और प्रथाओं पर आधारित है। इसने ईश्वर, मानव जीवन, बाहरी अंतरिक्ष, पृथ्वी और सार्वभौमिक मूल्यों से संबंधित ज्ञान प्रदान कर विश्व में अद्वितीय पहचान बनाई। भारतीय चिंतन परंपरा ने मानवता को मार्गदर्शन देते हुए, संकट के समय संसार को सही दिशा दिखाई है। इस विचार प्रणाली को समझने के लिए ज्ञानमीमांसा का अध्ययन आवश्यक है, जो ज्ञान की उत्पत्ति, सीमा और प्रक्रिया की व्याख्या करता है। यह भारतीय राजनीतिक विचार में तत्त्वमीमांसा और धर्म से जुड़कर, विषय और वस्तु की गहन समझ विकसित करता है।
भारतीय राजनीतिक विचार के मूल आधार
ज्ञान एक अनुभूति है, जो उचित पद्धति से प्राप्त होता है। यह सत्य को प्रकट करता है और उससे उत्पन्न होता है। भारतीय राजनीतिक चिंतन में सत्य और ज्ञान के स्रोत (प्रमाण) महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि यह सत्यापन योग्य और वैध ज्ञान को सुनिश्चित करता है। प्रमाण का उद्देश्य सही और सटीक ज्ञान प्राप्त करना है।
1. प्रमाण के प्रमुख प्रकार
- प्रत्यक्ष: प्रत्यक्ष ज्ञान इंद्रियों के माध्यम से प्राप्त होता है, जैसे किसी वस्तु को देखना या अनुभव करना। यह बाहरी घटनाओं और आंतरिक अनुभूतियों (सुख-दुख) को समझने में मदद करता है।
- अनुमान: अनुमान परोक्ष ज्ञान का साधन है। यह पूर्व ज्ञान और कारण-परिणाम के आधार पर निष्कर्ष निकालने में सहायक है। जैसे धुएँ को देखकर आग का अनुमान लगाना।
- शब्द: यह प्रमाण किसी भरोसेमंद व्यक्ति या ग्रंथों के कथनों से प्राप्त होता है। शास्त्रों और मौखिक जानकारी के माध्यम से इंद्रियों से परे की चीजों को समझा जा सकता है।
- उपमान: उपमान समानता या तुलना के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करता है। जैसे, गाय और जंगली बैल के बीच समानता देखकर पहचान करना।
- अर्थापत्ति: यह दो तथ्यों के बीच विरोधाभास को हल करने के लिए एक तर्कशील निष्कर्ष पर पहुँचता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति दिन में नहीं खाता है, तो निष्कर्ष है कि वह रात में खाता होगा।
- अनुपलब्धि: अनुपलब्धि किसी वस्तु की अनुपस्थिति का ज्ञान प्रदान करती है। जैसे, यदि कमरे में कुर्सी नहीं दिखती, तो यह उसकी अनुपस्थिति का संकेत है।
2. ज्ञानमीमांसा और दर्शन परंपरा
- भारतीय परंपरा में मीमांसा दर्शन ने ज्ञान के विकास में अहम भूमिका निभाई है। कुमारिल ने छह प्रमाण (प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि) स्वीकार किए, जबकि प्रभाकर ने अनुपलब्धि को अस्वीकार किया।
3. भारतीय राजनीतिक चिंतन की नींव
भारतीय परंपरा में पुरुषार्थ, कर्म सिद्धांत और मुक्ति के लक्ष्य जैसे नैतिक दर्शन महत्त्वपूर्ण हैं। विचारधाराएँ दो वर्गों में विभाजित हैं:
- रूढ़िवादी (आस्तिक): वेदों को स्वीकार करने वाले, जैसे न्याय दर्शन।
- विधर्मी (नास्तिक): वेदों को अस्वीकार करने वाले, जैसे चार्वाक दर्शन।
न्याय दर्शन की परंपरा
न्याय दर्शन के संस्थापक ऋषि गौतम माने जाते हैं। संस्कृत में "न्याय" का अर्थ है न्याय देना, समानता, नियम और निर्णय। इसे तर्कशास्त्र या न्याय विद्या भी कहा जाता है। न्याय दर्शन का उद्देश्य सही ज्ञान के माध्यम से मानव पीड़ा का अंत करना है, क्योंकि यह मानता है कि अज्ञानता पीड़ा का मूल कारण है।
1. न्याय दर्शन के चार प्रमुख क्षेत्र
- ज्ञान का सिद्धांत: सही ज्ञान के माध्यम से सत्य को समझना।
- भौतिक विश्व का सिद्धांत: वस्तुओं और उनकी प्रकृति को जानना।
- स्वयं का सिद्धांत: आत्मा की पहचान और उद्देश्य।
- ईश्वर का सिद्धांत: सृष्टि और ईश्वर के संबंध को समझना।
2. सोलह पदार्थ
न्याय सूत्र में ज्ञान प्राप्ति और तर्क के लिए सोलह पदार्थों का उल्लेख है:
- जल्प: दोष ढूँढ़कर तर्क प्रस्तुत करना।
- वितण्डा: केवल खंडन के लिए बहस।
- हेत्वाभास: तर्क में भ्रम।
- निग्रहस्थ: विरोधाभास दिखाकर तर्क का खंडन।
3. प्रमाण और ज्ञान
प्रमाण किसी वस्तु के अस्तित्व और सत्य को व्यक्त करता है। इसके माध्यम से ही ज्ञान (प्रमिति) प्राप्त होता है। प्रमाण, प्रमेय (ज्ञान का विषय), और प्रमिति (ज्ञान) पर आधारित है।
न्याय दर्शन चार प्रमुख प्रमाणों का उपयोग करता है:
- प्रत्यक्ष: इंद्रियों के माध्यम से प्राप्त ज्ञान।
- अनुमान: तर्क और निष्कर्ष के आधार पर ज्ञान।
- उपमान: समानता के माध्यम से ज्ञान।
- शब्द: मौखिक गवाही या प्रमाण।
1. प्रत्यक्ष
- प्रत्यक्ष की प्रक्रिया चार मुख्य तत्वों पर आधारित है: स्वयं (Self), मन (Mind), इंद्रियाँ (Senses), और वस्तु (Object)। स्वयं अनुभव का स्रोत है, जो मन और इंद्रियों से जुड़ा होता है। मन, इंद्रियों और वस्तु के बीच संपर्क स्थापित करता है, जबकि इंद्रियाँ (जैसे आँख, कान, और त्वचा) ज्ञान प्राप्त करने के उपकरण हैं। वस्तु वह चीज़ है जिसे अनुभव किया जा रहा है। यह प्रक्रिया एक क्रम में होती है, जहाँ सबसे पहले स्वयं मन के संपर्क में आता है, उसके बाद मन इंद्रियों से जुड़ता है, और अंत में इंद्रियाँ वस्तु के संपर्क में आती हैं।
- वस्तुओं को तीन प्रकार में वर्गीकृत किया जाता है: भौतिक वस्तुएँ (जैसे मेज़ और कुर्सी), विशिष्ट गुण (जैसे रंग और कठोरता), और आंतरिक वस्तुएँ (जैसे सुख और दुख)। धारणा भी दो प्रकार की होती है। बाहरी धारणा बाहरी वस्तुओं जैसे मेज़ और कुर्सी से संबंधित होती है, जबकि आंतरिक धारणा मन और भावनाओं जैसे सुख और दर्द से जुड़ी होती है। यह प्रक्रिया प्रत्यक्ष ज्ञान को उत्पन्न करती है, जिसे न्याय दर्शन में सत्य और वैध माना गया है।
न्याय विचारधारा में इंद्रिय और विषय के संपर्क के प्रकार:
न्याय दर्शन में इंद्रिय और विषय के मध्य संपर्क ज्ञान प्राप्ति का आधार है। उद्योतकर ने इन संपर्कों को छह प्रकारों में वर्गीकृत किया है:
- संयोग: यह सीधा संपर्क है, जहाँ इंद्रिय और वस्तु के बीच कोई मध्यस्थ नहीं होता। उदाहरण के लिए, आँखों से कक्षा में मेज़ या कुर्सी को देखना।
- संयुक्त समवाय: इसमें अप्रत्यक्ष संपर्क होता है, जहाँ वस्तु और इंद्रिय के बीच एक तीसरे पक्ष की भूमिका होती है। उदाहरण के लिए, आँखें बर्तन को देखती हैं और उसके माध्यम से बर्तन के रंग का ज्ञान प्राप्त करती हैं।
- संयुक्त समवेत समवाय: यह अप्रत्यक्ष संपर्क का एक और रूप है, जहाँ दो संबंधित वस्तुओं की मदद से संपर्क होता है। जैसे, ब्लैकबोर्ड देखने पर उसके काले रंग की अनुभूति। यहाँ ब्लैकबोर्ड और उसका रंग, दोनों संपर्क में शामिल होते हैं।
- समवाय: यह ध्वनि से संबंधित है। जब कान ध्वनि सुनते हैं, तो इंद्रिय और ध्वनि के बीच सीधा संपर्क बनता है।
- समवेत समवाय: इसमें इंद्रिय और विषय के बीच किसी अन्य वस्तु के माध्यम से संपर्क होता है। जैसे, जब कान ध्वनि को सुनते हैं, तो यह ध्वनि का गुण कान के साथ अंतर्निहित रूप से जुड़ा होता है।
- संयुक्त विशेषण: इस प्रकार के संपर्क में इंद्रिय वस्तु के अभाव को प्रतिबिंबित करती है। उदाहरण के लिए, जब कक्षा में मेज़ नहीं दिखाई देती, तब इंद्रिय (आँख) कक्षा के संपर्क में होती है, लेकिन मेज़ के अभाव को समझती है।
असाधारण संपर्क (अलौकिक संपर्क):
न्याय दर्शन में इन तीन प्रकार के असाधारण संपर्कों को मान्यता दी गई है:
- सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष: किसी वस्तु की विशेषता को अन्य सभी समान वस्तुओं की विशेषता के रूप में देखना।उदाहरण: बाघ देखकर उसकी "व्याघ्रता" को पहचानना।
- ज्ञान लक्षण प्रत्यक्ष: इंद्रियों से अनुभव न होकर पिछले अनुभव के आधार पर ज्ञान प्राप्त करना। उदाहरण: बर्फ देखकर उसकी ठंडक महसूस करना।
- योगज प्रत्यक्ष: ध्यान और योग से प्राप्त अंतर्ज्ञान, जिससे अतीत, वर्तमान, भविष्य की घटनाएँ समझी जाती हैं। यह योगियों में पाया जाता है।
न्याय विचारधारा में अनुभूति के दो चरण
न्याय दर्शन में अनुभूति (धारणा) को दो चरणों में विभाजित किया गया है:
- निर्विकल्प अनुभूति: यह पहला चरण है, जिसमें इंद्रियों का वस्तु से प्राथमिक संपर्क होता है। इस अवस्था में केवल वस्तु का सामान्य ज्ञान होता है, पर उसकी विशेषताएँ और संबंध समझ में नहीं आते। उदाहरण के लिए, आम को देखना और केवल उसका आकार, रंग या रूप देख पाना।
- सविकल्प अनुभूति: यह दूसरा चरण है, जिसमें वस्तु का स्पष्ट और निश्चित ज्ञान होता है। व्यक्ति वस्तु की विशेषताओं और उनके संबंधों को पहचानता है। जैसे, आम को देखना और समझना कि यह आम है और खाने योग्य है।
2. अनुमान
अनुमान न्याय दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण भाग है, जो तर्क और वैध सोच से संबंधित है। इसे प्रमाण के रूप में माना जाता है, जहाँ ज्ञान की विधा पर बल दिया जाता है। अनुमान अप्रत्यक्ष ज्ञान का साधन है, जो पिछले अनुभव या ज्ञान के आधार पर प्राप्त होता है। उदाहरण के लिए, पहाड़ी से धुआँ देखकर यह अनुमान लगाना कि वहाँ आग लगी है। इसे अनुमिति कहा जाता है।
अनुमान के प्रकार
1. स्वार्थानुमान: यह व्यक्ति द्वारा स्वयं अनुभव और स्मृति के आधार पर किया गया अनुमान है। उदाहरण के लिए, यदि किसी ने पहले देखा है कि जहाँ आग होती है, वहाँ धुआँ भी होता है, तो पहाड़ी पर धुआँ देखकर वह अनुमान लगा सकता है कि वहाँ आग लगी है।
2. परार्थानुमान: यह तर्क और युक्तिवाक्य पर आधारित अनुमान है, जिसमें ज्ञान प्राप्ति के लिए पाँच चरण शामिल होते हैं:
- प्रतिज्ञा: पहाड़ी पर आग है (जिसे सिद्ध करना है)।
- हेतु: क्योंकि धुआँ है (आग का कारण)।
- व्याप्ति: जहाँ धुआँ होता है, वहाँ आग होती है।
- उदाहरण: जैसा रसोई में देखा गया है (समानता का उदाहरण)।
- निगमन: इसलिए पहाड़ी पर आग है (निष्कर्ष)।
3. उपमान
उपमान वह ज्ञान है जो दो वस्तुओं की समानता से प्राप्त होता है। यह "उप" (समानता) और "मन" (अनुभूति) से मिलकर बना है। इसमें एक ज्ञात वस्तु की तुलना अज्ञात वस्तु से की जाती है। उदाहरण के लिए, जब किसी को बताया जाता है कि जंगली बैल गाय जैसा दिखता है, तो गाय को देखकर व्यक्ति जंगली बैल को पहचान लेता है। न्याय दर्शन के अनुसार, यह ज्ञान समानता पर आधारित होता है, न कि केवल अनुभव पर।
4. शब्द
शब्द (मौखिक वर्णन) ज्ञान का वह स्रोत है, जो एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक मौखिक गवाही के माध्यम से पहुँचता है। यह केवल तब प्रमाण माना जाता है जब इसे किसी विश्वासपात्र या आधिकारिक व्यक्ति (आप्त) द्वारा प्रस्तुत किया जाए, जो सत्य जानते और बोलते हैं।
ज्ञान के लिए वाक्य का निर्माण चार नियमों पर आधारित होता है:
- आकांक्षा: वाक्य शब्दों के बीच जिज्ञासा उत्पन्न करे।
- योग्यता: वाक्य उचित और गैर-विरोधाभासी हो।
- सन्निधि: शब्द त्वरित और जुड़े हुए हों।
- तात्पर्य: वक्ता का आशय स्पष्ट हो।
5. न्याय दर्शन
न्याय दर्शन में शब्द लौकिक (विश्वसनीय व्यक्तियों के शब्द) और अलौकिक (दैवीय या वेदों के वचन) दो प्रकार के होते हैं। शब्द प्रमाण ज्ञान के प्रसार, अनुभूति और नैतिक मूल्यों के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जैसे धर्म, कर्तव्य और त्याग।
न्याय दर्शन में पदार्थ
गौतम न्यायसूत्र में सोलह पदार्थों का उल्लेख है, जिनमें से 'प्रमाण' पहले ही समझाया जा चुका है। शेष पदार्थ संक्षेप में:
- प्रमेय: सही ज्ञान के बारह पहलू, जैसे आत्मा, शरीर, इंद्रियाँ, मन, सुख-दुख, पुनर्जन्म, दुःख से मुक्ति (अपवर्ग)।
- संशय: संदेह की स्थिति, जब विकल्पों में उलझन हो।
- प्रयोजन: किसी कार्य का उद्देश्य, जैसे सुख प्राप्ति।
- दृष्टांत: निर्विवाद उदाहरण, जैसे धुएँ से आग का संकेत।
- सिद्धांत: स्वीकृत नियम, जैसे सर्वतंत्र और अधिकरण सिद्धांत।
- अव्यव: तार्किक तर्क-वाक्य, जैसे प्रतिज्ञा और निगमन।
- तर्क: विरोधाभास का उपयोग कर निष्कर्ष तक पहुँचना।
- निर्णय: विस्तृत परीक्षण के बाद प्राप्त सत्य।
- वाद: सत्य की खोज के लिए तर्क-वितर्क।
- जल्प: विरोधी के तर्क को खारिज कर अपनी बात स्थापित करना।
- वितण्डा: केवल विरोधी के तर्कों को खंडित करना।
- हेत्वाभास: त्रुटिपूर्ण कारण से भ्रमित निष्कर्ष।
- छल: अप्रासंगिक तर्क से विरोधी को भ्रमित करना।
- जाति: झूठे सादृश्य का उपयोग कर निरर्थक तर्क देना।
- निग्रहस्थान: विरोधी के तर्क में विरोधाभास दिखाकर उसे पराजित करना।
ये सभी पदार्थ तर्क, वाद-विवाद और ज्ञान की वैधता को सुनिश्चित करते हैं।
चार्वाक दर्शन की परंपरा
चार्वाक दर्शन भारतीय विधर्मी (नास्तिक) परंपरा में सबसे महत्त्वपूर्ण और भौतिकवादी विचारधारा है। यह प्रत्यक्ष अनुभव को ही ज्ञान का एकमात्र वैध स्रोत मानता है और अनुमान, शब्द या वैदिक साक्ष्यों को अस्वीकार करता है।
प्रमुख सिद्धांत:-
- प्रत्यक्ष: ज्ञान केवल इंद्रियों द्वारा अनुभव की गई वस्तुओं तक सीमित है। जो इंद्रियबोध से परे है, उसका अस्तित्व अस्वीकार्य है।
- अनुमान: अनुमान को अस्वीकार किया गया है क्योंकि वस्तुओं के बीच सार्वभौमिक संबंध स्थापित करना कठिन है।
1. मौखिक गवाही: इसेको अविश्वसनीय माना गया, क्योंकि यह अनुमान पर आधारित होती है। पुनर्जन्म, मोक्ष, और मृत्यु के बाद के जीवन जैसी वैदिक धारणाओं को अस्वीकार किया गया है।
2. भौतिक तत्त्व: चार तत्त्व (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु) को वास्तविकता का आधार माना गया। चेतना को इन तत्त्वों के संयोग से उत्पन्न बताया गया।
3. आत्मा: आत्मा को शरीर और चेतना के रूप में परिभाषित किया गया। हालाँकि, आलोचना के बाद इसे मानस (मन) के रूप में पुनः परिभाषित किया गया।
4. आलोचना: चार्वाक दर्शन को अन्य विचारधाराओं ने अव्यावहारिक और असंगत बताया। इसकी प्रत्यक्ष पर जोर देने की वजह से यह आत्मा, चेतना और मृत्यु के बाद के अस्तित्व जैसे प्रश्नों का उत्तर देने में
'स्वयं' की अवधारणा
भारतीय राजनीतिक चिंतन में स्वयं (आत्मा) को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है, जो आध्यात्मिक दृष्टिकोण पर आधारित है। इसे आत्मा और परमात्मा के रूप में समझा जाता है, जहाँ आत्मा सीमित और परमात्मा अनंत है।
न्याय दर्शन में 'स्वयं':
- स्वतंत्र अस्तित्व: आत्मा शरीर, मन, इंद्रियों और चेतना से भिन्न है। यह शाश्वत, अविनाशी और स्वतंत्र है।
- चेतना का गुण: चेतना आत्मा का गुण है, लेकिन यह अनिवार्य नहीं है।सोए हुए व्यक्ति में चेतना नहीं होती, फिर भी आत्मा उपस्थित रहती है।
- आत्मा की यात्रा: आत्मा एक निरंतर यात्रा में रहती है और मोक्ष प्राप्त करने तक शरीर बदलती रहती है।
- मुक्ति: आत्मा के शरीर से अलग होने पर मुक्ति होती है। मुक्ति सभी दुःखों से छुटकारा और शाश्वत आनंद की स्थिति है।
- चार्वाक दर्शन में 'स्वयं': चार्वाक आत्मा को सूक्ष्म मानता है, जिसे इंद्रियों द्वारा देखा नहीं जा सकता।आत्मा को सुख, पीड़ा, इच्छा, और चेतना जैसे गुणों से पहचाना जाता है।
- आध्यात्मिक प्रथा: स्वयं को जानने के लिए व्यक्ति को:
1. शास्त्रों का अध्ययन और चिंतन करना चाहिए।
2. ध्यान और योग का अभ्यास करना चाहिए।
3. भौतिक सुखों से दूरी बनाकर मोक्ष की ओर बढ़ना चाहिए।