भारतीय प्रशासन लोकतांत्रिक ढाँचे में निहित है, जिसमें पारदर्शिता, उत्तरदायित्व, कानून के शासन और सामाजिक समानता को बनाए रखना आवश्यक है। भारतीय प्रशासन की मुख्य चुनौतियाँ एकीकरण और भ्रष्टाचार से जुड़ी हैं। इनसे निपटने के लिए राजनीतिक और स्थाई कार्यकारियों की जवाबदेही बढ़ाने के उद्देश्य से विभिन्न सुधारात्मक कदम उठाए गए हैं। इस इकाई में भारतीय प्रशासन की चुनौतियों और उसे जन-केंद्रित, प्रभावी और सुचारू बनाने के उपायों पर चर्चा की गई है।
क. प्रशासन के मूल्य सत्यनिष्ठा बनाम् भ्रष्टाचार
सत्यनिष्ठा को एक महत्वपूर्ण नैतिक मूल्य के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसमें सच्चरित्रता, ईमानदारी, और सच्चाई का तत्व निहित होता है। यह किसी भी शक्तिशाली राज्य का सर्वोत्तम गुण होता है, जो जनता के विश्वास को बनाए रखने में मदद करता है। इसके विपरीत, भ्रष्टाचार प्रशासनिक संरचना और जनता के विश्वास को कमजोर करता है, जिससे राज्य की विश्वसनीयता प्रभावित होती है। भ्रष्टाचार एक अवैध और अनैतिक कृत्य होता है, जो निजी लाभ के लिए सार्वजनिक पद का दुरुपयोग करता है। यह न केवल सार्वजनिक संसाधनों का गलत उपयोग करता है, बल्कि समाज के अन्य वर्गों को भी नुकसान पहुँचाता है।
भ्रष्टाचार के रूप
- प्रसार: यह सार्वजनिक पद का दुरुपयोग और सामाजिक व प्रशासनिक व्यवस्था के अव्यवस्था को बढ़ावा देता है।
- वित्तीय भ्रष्टाचार: इसमें सरकारी धन का गलत उपयोग और उच्च अधिकारियों द्वारा अनधिकृत लाभ प्राप्त करना शामिल है।
- राजनीतिक भ्रष्टाचार: राजनीतिक प्रभाव का दुरुपयोग और अधिकारियों की नियुक्ति व निर्णयों में पक्षपाती रवैया शामिल है।
- भ्रष्टाचार के खिलाफ कदम: भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ कानूनी उपायों के रूप में भारतीय दंड संहिता की धारा 161 और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम जैसे कानून लागू हैं। इसके अतिरिक्त, लोकपाल और लोकायुक्त, सतर्कता आयोग, और सीबीआई जैसे संगठन भ्रष्टाचार के खिलाफ काम कर रहे हैं।
- नैतिकता और आचरण: भ्रष्टाचार और शक्ति के दुरुपयोग को समाप्त करने के लिए राजनीतिक और प्रशासनिक वर्गों में नैतिक मूल्यों की आवश्यकता है। जब विश्वास पैदा होता है, तो यह एक संक्रामक रोग की तरह फैलता है और सरकारी कार्यों को सुधारने में मदद करता है। नैतिकता और सही आचरण को बढ़ावा देने के लिए राजनीतिक वर्ग को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, और एक मजबूत नैतिक संरचना स्थापित करनी चाहिए, जिससे प्रशासन और राजनीति दोनों की प्रभावशीलता बढ़ सके।
- प्रशासन में नैतिक मूल्यों का महत्त्व:
- लोक सेवकों के आचरण पर नियंत्रण।
- उत्तरदायित्व और जवाबदेही बढ़ाना।
- सामाजिक खुशहाली और लोक हित की रक्षा।
- कार्यकारी प्रक्रिया की प्रभावकारिता।
- भ्रष्टाचार को नियंत्रित करना और वर्ल्ड स्टैंडर्ड्स के अनुरूप प्रशासन को लाना।
ख. उत्तरदायित्त्व : सूचना का अधिकार (आर.टी.आई.), लोकपाल नागरिक चार्टर
1. सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005
सूचना का अधिकार अधिनियम (RTI), 2005 के तहत भारतीय नागरिकों को किसी भी सार्वजनिक संस्था से जानकारी प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त है। इसका उद्देश्य सरकारी कार्यों में पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देना है, जिससे भ्रष्टाचार को कम किया जा सके और जनता को उनके अधिकारों और सरकारी कार्यों के बारे में जानकारी मिल सके। यह अधिनियम सरकारी संस्थाओं में पारदर्शिता लाने, नागरिकों को शिक्षित करने और सरकारी कार्यों पर निगरानी करने का महत्वपूर्ण साधन है।
मुख्य प्रावधान:-
- सूचना का अधिकार: किसी भी सार्वजनिक प्राधिकरण से, जो राज्य सरकारों द्वारा वित्तीय सहायता प्राप्त करता है, सूचना प्राप्त की जा सकती है। सूचना प्रदान करने के लिए सार्वजनिक सूचना अधिकारी (PIO) को एक लिखित आवेदन दिया जाता है।
- प्रक्रिया: यदि किसी नागरिक को सूचना नहीं मिलती है, तो वह 30 दिन में अपीलीय प्राधिकरण से अपील कर सकता है। इसके बाद, यदि संतुष्ट नहीं होता, तो वह केंद्रीय सूचना आयोग (CIC) या राज्य सूचना आयोग (SIC) में अपील कर सकता है।
- समयसीमा: आवेदन के 30 दिन के भीतर सूचना दी जानी चाहिए। यदि यह समय सीमा उल्लंघन होती है तो प्राधिकरण को जवाबदेही तय की जाती है।
चुनौतियाँ:-
- सूचना के अधिकार से अनभिज्ञता: नागरिकों को उनके अधिकारों की जानकारी नहीं होती, जिससे उनका उपयोग सीमित रहता है।
- अपर्याप्त जानकारी: बहुत से सार्वजनिक प्राधिकरणों द्वारा दी जाने वाली सूचना अपर्याप्त या सामान्य होती है।
- अयोग्य जन सूचना अधिकारी (PIO): कई प्राधिकरणों में सूचना अधिकारियों में समर्पण और योग्यताएँ नहीं होतीं।
- बुनियादी ढांचे की कमी: कुछ संस्थाओं में जानकारी के प्रबंधन के लिए जरूरी बुनियादी ढांचे और अभिलेखों की अच्छी व्यवस्था का अभाव है।
2. लोकपाल
भारत में लोकपाल और लोकायुक्त संस्थाएँ भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने और सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों, और सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों के खिलाफ शिकायतों का समाधान करने के लिए स्थापित की गई हैं। इस अधिनियम का उद्देश्य सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार से लड़ना और सरकारी कामकाजी ढांचे में पारदर्शिता लाना है।
मुख्य विशेषताएँ:-
- स्थापना: लोकपाल और लोकायुक्त का मॉडल स्वीडन के ओम्बड्समैन से लिया गया है। लोकपाल का गठन राष्ट्रीय स्तर पर और लोकायुक्त का गठन राज्यों के स्तर पर किया जाता है।
- सदस्य और अध्यक्ष: लोकपाल में एक अध्यक्ष और आठ सदस्य होते हैं, जिनमें से आधे सदस्य अनुसूचित जाति/जनजाति/पिछड़े वर्ग, अल्पसंख्यक, और महिलाएँ होते हैं। अध्यक्ष के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति की जाती है। सदस्य बनने के लिए व्यक्ति को 25 वर्षों का अनुभव और भ्रष्टाचार विरोधी नीति में दक्षता होनी चाहिए।
- क्षेत्राधिकार: लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में सरकारी अधिकारी, न्यायाधीश, मंत्री, पूर्व संसद सदस्य और सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारी आते हैं। लोकपाल को किसी भी जाँच एजेंसी जैसे CBI को संचालन करने का अधिकार प्राप्त होता है।
- जाँच प्रक्रिया: लोकपाल भ्रष्टाचार के मामलों में सात साल तक के अपराधों की जाँच कर सकता है और यह सुनिश्चित करता है कि सरकारी कार्यों में पारदर्शिता बनी रहे। प्रधानमंत्री की जाँच केवल दो-तिहाई लोकपाल बेंच की स्वीकृति से की जाती है।
- सजा और दंड: गलत आरोपों के लिए एक साल तक की सजा और एक लाख रुपये का जुर्माना तय किया गया है। सार्वजनिक कर्मचारियों के लिए अधिकतम सात साल और भ्रष्टाचार से जुड़े अपराधों के लिए दस साल की सजा निर्धारित की गई है।
चुनौतियाँ:-
- राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी: लोकपाल और लोकायुक्त संस्थाएँ पूरे प्रभावी ढंग से काम नहीं कर पा रही हैं। पाँच साल बाद भी एक भी लोकपाल नियुक्त नहीं हुआ।
- राजनीतिक प्रभाव: लोकपाल चयन समिति में राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि होते हैं, जिससे यह प्रक्रिया राजनीतिक प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाती।
- न्यायपालिका का अपवाद: लोकपाल की जाँच से न्यायपालिका को बाहर रखा गया है, जिससे एक बड़ी विषमता उत्पन्न होती है।
- संविधान का समर्थन नहीं: लोकपाल को संविधान से समर्थन प्राप्त नहीं है, और इसके लिए सुरक्षा उपाय भी अपर्याप्त हैं।
3. नागरिक चार्टर
- परिभाषा और उद्देश्य: नागरिक चार्टर एक दस्तावेज है जो नागरिकों को सार्वजनिक सेवाओं के मानकों, प्रक्रिया, चयन की स्वतंत्रता, शिष्टाचार, शिकायत निवारण, और अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं के बारे में जानकारी प्रदान करता है। इसका उद्देश्य नागरिकों को बेहतर सेवाएँ प्रदान करना और सरकारी संगठनों में पारदर्शिता, जवाबदेही, और सुशासन को बढ़ावा देना है। यह केवल एक परामर्श है और कानूनी संविदा नहीं होता, बल्कि यह सार्वजनिक सेवाओं को नागरिकों के लिए सुलभ और गुणवत्तापूर्ण बनाना चाहता है।
- इतिहास और भारतीय संदर्भ: भारत में नागरिक चार्टर की अवधारणा को 1997 में "राज्यों एवं संघशासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन" में स्वीकार किया गया। इसके बाद विभिन्न सरकारी संस्थाओं, जैसे रेलवे, दूरसंचार, डाक सेवा, और सार्वजनिक वितरण प्रणाली में इसे लागू करने का निर्णय लिया गया। इसने नागरिकों को उच्च गुणवत्ता की सेवाएँ और सरकारी प्रक्रियाओं में पारदर्शिता प्रदान करने का उद्देश्य रखा।
नागरिक चार्टर के सिद्धांत:-
- गुणवत्ता: सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार।
- विकल्प: उपयोगकर्ताओं के लिए विकल्प प्रदान करना जहां संभव हो।
- मानक: सेवाओं की समयसीमा और अपेक्षाएँ निर्धारित करना।
- मूल्य: करदाताओं के पैसे का सही उपयोग सुनिश्चित करना।
- जवाबदेही: सेवा प्रदाताओं को जवाबदेह ठहराना।
- पारदर्शिता: नियमों, प्रक्रियाओं, योजनाओं और शिकायत निवारण में पारदर्शिता।
- सहभागिता: नागरिकों और उपभोक्ताओं को परामर्श और उनकी राय को शामिल करना।
चुनौतियाँ:-
- औपचारिकता का आभास: नागरिक चार्टर को कभी-कभी केवल एक औपचारिकता माना जाता है, और यह कर्मचारियों और नागरिकों की वास्तविक भागीदारी के बिना लागू किया जाता है।
- कार्मिकों का प्रशिक्षण: कई मामलों में कर्मचारियों को उचित प्रशिक्षण नहीं मिलता, जिससे चार्टर का कार्यान्वयन सफल नहीं हो पाता।
- अवास्तविक उम्मीदें: कुछ चार्टर अवास्तविक होते हैं, जिससे नागरिकों की अपेक्षाएँ पूरी नहीं हो पाती।
- कानूनी बाध्यता का अभाव: नागरिक चार्टर को कानूनी रूप से लागू नहीं किया गया है, जिससे इसका प्रभाव सीमित होता है।
- समन्वय का अभाव: कर्मचारियों और विभागों के बीच समन्वय की कमी के कारण चार्टर का प्रभावी कार्यान्वयन मुश्किल होता है।
ग. राजनीतिक कार्यकारी एवं स्थाई कार्यकारी के बीच संबंध
राजनीतिक कार्यकारी और स्थाई कार्यकारी के बीच संबंध:-
1. कार्यकारी के दो प्रकार
- राजनीतिक कार्यकारी: यह चुने हुए प्रतिनिधियों से बनती है, जो आम चुनावों द्वारा सरकार का गठन करते हैं। इसमें प्रधानमंत्री और मंत्री परिषद शामिल होते हैं। ये सदस्य सरकार की नीतियाँ बनाते हैं, संसद में बिल प्रस्तुत करते हैं और अन्य शासन निर्णय लेते हैं।
- स्थाई कार्यकारी: यह सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों और नौकरशाहों से बना होता है, जिन्हें सरकार द्वारा नियुक्त किया जाता है और ये सरकार की नीतियों के कार्यान्वयन में सहायता करते हैं। स्थाई कार्यकारी में लोकसेवक, नौकरशाह और अधिकारी शामिल हैं, जिनका कार्यकाल स्थायी होता है।
2. कार्य और भूमिकाएँ
- राजनीतिक कार्यकारी का कार्य नीति निर्माण, निर्णय लेना और कल्याणकारी योजनाओं की पहल करना है। यह शासन के निर्णयों में शामिल होते हैं और जनता के प्रतिनिधि होते हैं।
- स्थाई कार्यकारी का कार्य राजनीतिक कार्यकारी द्वारा निर्धारित नीतियों का कार्यान्वयन करना और प्रशासनिक कार्यों को चलाना है। ये लोग शासकीय योजनाओं को लागू करने और उसकी निगरानी में सहायता करते हैं।
3. दोनों के बीच अंतर
- राजनीतिक कार्यकारी का चुनाव आम चुनावों द्वारा किया जाता है और वे पांच सालों के लिए कार्य करते हैं, जबकि स्थाई कार्यकारी का चयन एक सार्वजनिक सेवा परीक्षा (जैसे UPSC) के माध्यम से होता है और उनका कार्यकाल स्थायी होता है।
- राजनीतिक कार्यकारी द्वारा बनाई गई नीतियाँ और निर्णय लोक कल्याण और देश की राजनीति से प्रभावित होते हैं, जबकि स्थाई कार्यकारी नीतियों को निष्पक्ष रूप से लागू करने के लिए काम करता है, बिना किसी राजनीतिक प्रभाव के।
4. दोनों कार्यकारियों के बीच संबंध
- स्थाई कार्यकारी को राजनीतिक कार्यकारी द्वारा बनाई गई नीतियों के कार्यान्वयन में मदद करनी होती है। वे नीति निर्माण में शामिल नहीं होते, लेकिन उनका कार्य नीति को व्यवहार में लाना होता है।
- राजनीतिक कार्यकारी को कभी-कभी अनुभव और विश्लेषण की कमी हो सकती है, तब स्थाई कार्यकारी उनकी सहायता करता है। स्थाई कार्यकारी का काम तथ्यों पर आधारित होता है और वह नीतियों के परिणामों के बारे में जानकारी प्रदान करता है।
5. आलोचनाएँ और आलोचकों का दृष्टिकोण
आलोचक यह मानते हैं कि स्थाई कार्यकारी को कभी-कभी अपनी व्यक्तिगत विचारधारा से प्रभावित होने का खतरा होता है। लेकिन अधिकांश का मानना है कि स्थाई कार्यकारी में यह जोखिम कम होता है, क्योंकि वह निष्पक्ष रूप से कार्य करने के लिए बाध्य होता है और वह राजनीतिक कार्यकारी के विचारों से अलग रहकर काम करता है।