प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत
प्राचीन भारतीय इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए साहित्यिक और पुरातात्त्विक स्रोतों का सहारा लिया जाता है। यद्यपि हमारे पास क्रमबद्ध ऐतिहासिक इतिवृत्त नहीं हैं, फिर भी भारतीयों में इतिहास-बोध की कमी नहीं थी; वे उन्हीं घटनाओं को संजोते थे जिन्हें अत्यधिक महत्वपूर्ण मानते थे। राजनीतिक घटनाओं का क्रमिक विवरण न होने के कारण, हमें प्राचीन भारतीय इतिहास की जानकारी शिलालेख, सिक्के, स्मारक आदि पुरावस्तुओं से मिलती है। साहित्यिक स्रोतों और पुरातात्त्विक साक्ष्यों के समन्वय से प्राचीन काल की एक समग्र तस्वीर उभरती है, जो भारत के अतीत को समझने में सहायक है।
प्राचीन भारतीय इतिहास के साहित्यिक स्रोत
भारतीय इतिहास को जानने-समझने के लिए साहित्यिक स्रोतों का महत्व अत्यधिक है। प्राचीन साहित्य में न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन के विषय में जानकारी मिलती है, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक पहलुओं की भी झलक मिलती है। इन्हें दो मुख्य वर्गों में बाँटा जा सकता है
1.देशज साहित्य : प्राचीन भारतीय इतिहास को समझने के लिए देशज साहित्य का विशेष महत्व है। यह साहित्य दो प्रमुख भागों में विभाजित है: धार्मिक और धर्मेतर ग्रंथ। धार्मिक साहित्य में मुख्यतः ब्राह्मण, बौद्ध और जैन परंपराओं के ग्रंथ शामिल हैं, जिनमें भारतीय समाज के धार्मिक,सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन का विवरण मिलता है।
2.विदेशी साहित्य : यात्रियों के विवरणविदेशी यात्रियों के विवरण देशज साहित्य के पूरक के रूप में काम करते हैं। विभिन्न विदेशी यात्री भारतीय समाज का बाहरी दृष्टिकोण से मूल्यांकन करते हैं और उन प्रथाओं व जीवन शैलियों पर टिप्पणी करते हैं जो उनके लिए नवीन होती थीं।
देशज साहित्य
धार्मिक साहित्य
ब्राह्मण साहित्य में चार वेद (ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद), महाकाव्य, पुराण, और धर्मशास्त्र आते हैं। ये ग्रंथ भारतीय धार्मिक और सामाजिक परंपराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं
1. वेदों के चार भाग : हर वेद के चार मुख्य भाग होते हैं—संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद। इनमें धार्मिक अनुष्ठानों , बलि, और दार्शनिक व्याख्याओं का वर्णन है। विशेष रूप से, उपनिषद आत्मा और ब्रह्म के दार्शनिक विचारों पर जोर देते हैं और अनुष्ठान की आलोचना करते हुए ज्ञान के महत्व को प्रस्तुत करते हैं। वैदिक ग्रंथों का रचना काल 1500-1000 ईसा पूर्व (प्रारंभिक वैदिक साहित्य) और 1000-500 ईसा पूर्व (उत्तर-वैदिक ग्रंथ) माना जाता है।
2. महाकाव्य - रामायण और महाभारत: ये महाकाव्य तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, और धार्मिक जीवन का संपूर्ण चित्रण करते हैं। महाभारत का मुख्य कथानक कौरवों और पांडवों के बीच सत्ता संघर्ष पर आधारित है, जो उत्तर-वैदिक काल से जुड़ा है। वहीं, रामायण में मर्यादा पुरुषोत्तम राम की कथा है, जो वैदिक और मौर्य-गुप्त काल के संदर्भ में देखी जा सकती है।
3. पुराण : पुराणों में धार्मिक प्रथाओं, अनुष्ठानों, और कथाओं का संकलन है। इन्हें भारतीय समाज के धार्मिक-सांस्कृतिक जीवन का कोश माना जा सकता है।
4. वेदांग और वैदिक साहित्य : वेदों को समझने के लिए 600-200 ईसा पूर्व में वेदांग साहित्य का संकलन किया गया, जो छह विषयों में विभाजित हैं—शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, और ज्योतिष। ये विषय वेदों के विभिन्न पहलुओं की व्याख्या करने में सहायक हैं।
5. बौद्ध साहित्य : बौद्ध साहित्य प्राचीन भारतीय इतिहास का एक प्रमुख स्रोत है, जो ऐतिहासिक व्यक्तियों और घटनाओं पर महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है। पाली में लिखित प्रारंभिक बौद्ध साहित्य को दो भागों, वाहिक और अवाहिक, में बांटा गया है। पाली त्रिपिटक, जिसमें विनयपिटक, सुत्तपिटक, और अभिधम्म पिटक शामिल हैं, बौद्ध सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के कई पहलुओं को उजागर करता है। जातक कथाएँ, जो गौतम बुद्ध के पूर्व जन्मों की कहानियां हैं, सामाजिक और आर्थिक स्थितियों का चित्रण करती हैं। अन्य प्रमुख बौद्ध ग्रंथों में मिलिंदपनहों, दीपवंश, महावंश, महावस्तु, ललितवस्तु, और अश्वघोष का बुद्धचरित शामिल हैं। ये ग्रंथ तत्कालीन समाज के सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन को समझने में सहायक हैं।
6. जैन साहित्य : जैन साहित्य, विशेषकर सिद्धांत या आगम ग्रंथ, प्राचीन भारतीय इतिहास का महत्वपूर्ण स्रोत हैं। प्राकृत में रचित ये ग्रंथ महावीर के समय के बिहार और उत्तर प्रदेश के राजनीतिक इतिहास पर रोशनी डालते हैं। जैन तीर्थंकरों और व्यापारियों के बारे में जानकारी देने वाला अवाहिक साहित्य, और हेमचंद्र द्वारा संकलित जैन पुराण, जैन धर्म और संस्कृति पर महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं।
धर्मेतर साहित्य
धर्मेतर साहित्य प्राचीन भारत के समाज, राजनीति, विज्ञान और कला के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी देता है इसमें :-
1. धर्मशास्त्र और स्मृति : समाज में कानून और सामाजिक व्यवहार के नियमों का विवरण (500-200 ईस्वी) मिलता है।
2. जीवनचरित : जैसे बुद्धचरित (अश्वघोष), हर्षचरित (बाणभट्ट), और राजतरंगिनी (कल्हण), जो ऐतिहासिक व्यक्तियों के जीवन और घटनाओं पर आधारित हैं।
3. राजनीति और व्याकरण : कौटिल्य का अर्थशास्त्र राज्य प्रबंधन और अर्थनीति को समझाता है; पाणिनि का अष्टाध्यायी और पतंजलि का महाभाष्य संस्कृत व्याकरण के प्रमुख ग्रंथ हैं।
4. वैज्ञानिक ग्रंथ : आर्यभट्ट का आर्यभट्टीय और वराहमिहिर का बृहतसंहिता खगोलशास्त्र पर आधारित हैं, जबकि चरकसंहिता और सुश्रुतसंहिता आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति की जानकारी देते हैं।
5. नाटक और साहित्य : भास, विशाखदत्त, और कालिदास के नाटकों से तत्कालीन समाज की झलक मिलती है, जैसे अभिज्ञानशाकुंतलम और मुद्राराक्षस।
6. संगम साहित्य : तमिल में रचित संगम साहित्य प्राचीन तमिलनाडु और केरल की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को दर्शाता है।
विदेशी साहित्य
विदेशी साहित्य प्राचीन भारत के इतिहास, भूगोल, और समाज के बारे में मूल्यवान जानकारी प्रदान करता है और भारतीय स्रोतों का पूरक है।
ग्रीक साहित्य
1. मेगास्थनीज की इंडिका : मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त के दरबार में रहे मेगास्थनीज ने मौर्यकालीन समाज, प्रशासन, और अर्थव्यवस्था का वर्णन किया।
2. अन्य ग्रीक लेखक : एरियन, स्ट्रैबो, प्लिनी, और टॉलेमी ने भारतीय भूगोल, समाज, और वाणिज्य पर लिखा। द पेरिप्लस ऑफ द एरिथियन सी में प्राचीन समुद्री मार्गों और व्यापार का वर्णन है। हालांकि, ग्रीक विवरण पूरी तरह विश्वसनीय नहीं माने जाते क्योंकि इनमें भाषा की बाधाओं और जनश्रुतियों का प्रभाव था।
चीनी यात्रियों के वृत्तांत
1. फाहियान : 5वीं शताब्दी में गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय के समय आए फाहियान ने सामाजिक और धार्मिक जीवन का वर्णन किया, खासकर बौद्ध धर्म के प्रचार पर।
2. ह्वेनसांग : 7वीं शताब्दी में आए ह्वेनसांग ने हर्षवर्धन के शासनकाल का वर्णन किया, जिससे उस समय के धार्मिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक जीवन की जानकारी मिलती है।
साहित्यिक स्रोतों की सीमाएँ
प्राचीन भारतीय इतिहास के अध्ययन में साहित्यिक स्रोतों की कई सीमाएँ हैं, जो हमारी जानकारी को अधूरा बना सकती हैं:
1. काल-निर्धारण का अभाव : साहित्यिक ग्रंथों में घटनाओं का समय सटीक रूप से नहीं दर्शाया गया, जिससे इतिहास का स्पष्ट कालक्रम बनाना कठिन हो जाता है।
2. अवशेषों का अभाव : कई महत्वपूर्ण साहित्यिक ग्रंथ समय के साथ नष्ट हो गए, जिससे कई घटनाओं और शासकों के बारे में जानकारी अधूरी रह गई है।
3. पूर्वाग्रह और अतिरंजना : दरबारी कवियों की रचनाएँ और विदेशी यात्रियों के विवरण अक्सर पूर्वाग्रहपूर्ण और अतिरंजित होते हैं, जिससे वे पूरी तरह विश्वसनीय नहीं माने जा सकते।
4. कालक्रम की अस्पष्टता : साहित्यिक स्रोतों में घटनाओं का कालक्रम स्पष्ट नहीं होता, जिससे सटीक ऐतिहासिक क्रम बनाना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
5. भौतिक अवशेषों की पूरक भूमिका : सिक्के, अभिलेख, और स्मारक जैसे भौतिक अवशेष साहित्यिक स्रोतों की कमियों को पूरा करते हैं, और इतिहासकारों को प्राचीन घटनाओं का निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करने में सहायक होते हैं।
शिलालेख
शिलालेख प्राचीन भारतीय इतिहास के अत्यंत विश्वसनीय स्रोत हैं, जो पत्थरों, स्तंभों, तांबे की प्लेटों और इमारतों पर उकेरे गए लेखों के माध्यम से हमें अतीत की घटनाओं, शासकों के कार्यों और समाज के विभिन्न पहलुओं की जानकारी देते हैं।
शिलालेखों का महत्व और प्रकार
1. स्थायित्व और प्रामाणिकता : शिलालेखों को क्षति पहुँचाना कठिन है, जिससे वे स्थायी और सटीक जानकारी का स्रोत बने रहते हैं। ये अक्सर किसी घटना, दान या स्मरण के लिए उत्कीर्ण होते हैं, जिससे उस समय के समाज की झलक मिलती है।
2. भाषा और लिपि का ज्ञान : शिलालेखों से हमें प्राचीन भाषाओं (पाली, प्राकृत, संस्कृत, तमिल, तेलुगु) और लिपियों (ब्राह्मी, खरोष्ठी) का ज्ञान मिलता है। गुप्त काल से पहले के अधिकांश शिलालेख प्राकृत में ब्राह्मी लिपि में मिलते हैं।
3. अशोक के शिलालेख : अशोक के आदेशपत्र सबसे प्राचीन शिलालेख हैं, जो धर्म, प्रशासन और सामाजिक व्यवस्था के बारे में जानकारी देते हैं और मौर्यकालीन कला तथा विदेशी संबंधों पर भी प्रकाश डालते हैं।
4. मौर्योत्तर और गुप्त कालीन शिलालेख
- राजकीय शिलालेख : शासकों की प्रशस्तियाँ, जैसे समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति, शासन और उपलब्धियों को दर्शाती हैं।
- निजी शिलालेख : मंदिरों पर खुदे हुए ये शिलालेख कला, धर्म और दान के विकास को दर्शाते हैं।
5. ताम्र-अभिलेख : भूमि-अनुदान का विवरण देने वाले ये ताम्र-अभिलेख दान, क्षेत्रफल और शासक की उपलब्धियों का उल्लेख करते हैं।
6. सातवाहन और विदेशी संबंध : सातवाहनों और विदेशी संबंधों के विवरण, जैसे अशोक के धर्म प्रचारक विभिन्न देशों में भेजे गए थे, भी शिलालेखों से मिलते हैं।
प्राचीन भारतीय इतिहास में सिक्कों का महत्व
सिक्के, अभिलेखों के साथ-साथ, प्राचीन भारतीय इतिहास के महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक स्रोत हैं। विभिन्न खुदाइयों से प्राप्त सोने, चांदी और तांबे के सिक्के हमें भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्रदान करते हैं। सिक्कों के अध्ययन को मुद्रा-शास्त्र कहा जाता है, जो इतिहास को समझने के लिए एक मूल्यवान स्रोत है।
1. सिक्कों की प्रमुख श्रेणियाँ
- मौर्य काल से पूर्व : मौर्य काल के पहले के सिक्के दो प्रकार के थे—छापे वाले आहत सिक्के और सांचे में ढले सिक्के। ये सिक्के राजतंत्र, गणतंत्र, व्यापार संघों और नगर निगमों द्वारा निर्गत होते थे, जिनमें आकृति या प्रतीक होते थे लेकिन कोई आलेख नहीं होता था।
- मौर्य काल के बाद : यूनानी आक्रमण के बाद सिक्कों पर राजाओं के नाम मिलने लगे। इन सिक्कों पर बैक्टीरियन, पार्थियन, ग्रीस और कुषाण शासकों के नाम और चित्र मिलते हैं, जो उनकी वंशावली और कालक्रम तय करने में मददगार हैं।
2. महत्वपूर्ण सिक्कों के प्रकार
- कुषाण और गुप्त काल : कुषाण और गुप्त शासकों के ढेरों स्वर्ण मुद्राएँ मिली हैं। कुषाणों ने द्विभाषीय सिक्के बनाए जिन पर यूनानी और खरोष्ठी अभिलेख मिलते हैं। वहीं, गुप्त सिक्कों पर भारतीय प्रभाव भी देखा जाता है।
- बाद के काल के सिक्के : गुप्त काल के बाद के सिक्कों की संख्या सीमित है। जैसे, हर्ष और चालुक्य, राष्ट्रकूट जैसे राजवंशों के सिक्के बहुत कम उपलब्ध हैं।
3. सिक्कों से प्राप्त जानकारी
- आर्थिक स्थिति : सिक्कों से उस काल की आर्थिक स्थिति का पता चलता है, विशेषकर सोने, चांदी और तांबे के सिक्कों की वैज्ञानिक जाँच से।
- धार्मिक और सांस्कृतिक पक्ष : शासकों के व्यक्तिगत गुण और उनके आराध्य देवताओं का पता चलता है।
- शिल्प कला : सिक्कों से लेखन कला, धातु उत्कीर्णन कला और अन्य कला-शिल्प के विकास का भी ज्ञान मिलता है।
- साम्राज्य की सीमा : सिक्कों से शासकों के साम्राज्य की सीमाओं का आकलन भी संभव है।
4. ऐतिहासिक पुनर्निर्माण में योगदान
सिक्कों ने कई गुमनाम शासकों की जानकारी दी, जिनका उल्लेख साहित्य में नहीं है। उदाहरण के लिए, भारतीय ग्रीक शासकों के इतिहास का अधिकांश हिस्सा केवल सिक्कों के आधार पर ही प्राप्त हुआ है, जबकि साहित्य में उनका बहुत कम उल्लेख है।
अवशेष और स्मारक
अभिलेखों और सिक्कों के अतिरिक्त, प्राचीन भारत के भवन, मृदभांड, पत्थर की मूर्तियाँ और अन्य अवशेष हमें भारतीय इतिहास और कला के विकास की बहुमूल्य जानकारी प्रदान करते हैं। ये अवशेष विभिन्न कालों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति का भी परिचय देते हैं।
1. प्रागैतिहासिक और सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष
- प्रागैतिहासिक युग : भारत के बलूचिस्तान, गंगा-यमुना दोआब, और दक्षिण भारत के विभिन्न हिस्सों से प्रागैतिहासिक और लौह युग के अवशेष मिले हैं, जो समाज की प्राचीन जीवन शैली का चित्रण करते हैं।
- मेहरगढ़ : बलूचिस्तान में मेहरगढ़ की खुदाई नवपाषाण युग (ईसा पूर्व 7000) का प्रमुख स्थल है, जो भारतीय उपमहाद्वीप में नवपाषाण युग के विकास का संकेत देता है।
- सिंधु घाटी सभ्यता : मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से सिंधु घाटी सभ्यता का उन्नत नगर जीवन और विकसित शहरी व्यवस्था का पता चलता है।
2. बौद्ध और अन्य धार्मिक स्थलों के अवशेष
- तक्षशिला और सारनाथ : इन स्थलों से बौद्ध जीवन पद्धति और संस्कृति का गहन अध्ययन संभव हुआ है। सारनाथ में बौद्ध मठों की खुदाई धार्मिक गतिविधियों का विस्तृत इतिहास देती है।
- दक्षिण और पूर्वी भारत के मंदिर : दक्षिण भारत में पत्थर के मंदिर और पूर्वी भारत में ईंट से बने मठ प्राचीन स्थापत्य कला और धार्मिक महत्व को दर्शाते हैं।
3. महत्त्वपूर्ण नगर और स्मारक
भारत के विभिन्न प्राचीन नगर और स्मारक, जिन्हें खुदाई से उजागर किया गया है, भारत के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विकास का दर्पण हैं। कुछ महत्वपूर्ण स्थल:
- उत्तर भारत : मथुरा, बनारस, श्रावस्ती, कौशांबी, हस्तिनापुर
- मध्य भारत : उज्जैन, पदमावती, सांधी
- पश्चिमी भारत : तक्षशिला, पेशावर
- दक्षिण भारत : अमरावती, नागार्जुनकोड, ब्रह्मगिरि
- पूर्वी भारत : पहाड़पुर, महास्थान, कोटिवर्ष
4. उत्खनन की प्रक्रियाएँ और योगदान
- क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर उत्खनन : प्राचीन नगरों के अध्ययन में दो मुख्य उत्खनन विधियाँ अपनाई जाती हैं—क्षैतिज उत्खनन, जो बड़े सतही क्षेत्र को उजागर करता है, और ऊर्ध्वाधर उत्खनन, जो स्थल की गहराई में जाती परतों का अध्ययन करता है।
- हड़प्पा सभ्यता की खोज : ब्रिटिश शासन के दौरान सिंधु घाटी के मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से हड़प्पा सभ्यता का पता चला। स्वतंत्रता के बाद भी राजस्थान, पश्चिमोत्तर भारत और दक्कन में उत्खनन से कई महत्त्वपूर्ण स्थल प्राप्त हुए हैं।
विविध पुरातात्त्विक अवशेष
मध्य एशिया, चीन, कोरिया, मंगोलिया, जापान, तिब्बत, बर्मा, थाईलैंड, मलेशिया, इंडोनेशिया, जावा और सुमात्रा जैसे देशों से प्राप्त भारतीय अवशेष, भारतीय संस्कृति के वैश्विक प्रसार का प्रतीक हैं। इन क्षेत्रों में उत्खनन से भारतीय मूर्तिकला, चित्रकला, बौद्ध मठों और स्तूपों के भग्नावशेष, हिन्दू और बौद्ध देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ और भारतीय भाषाओं में लिखित पांडुलिपियाँ प्राप्त हुई हैं।
1. भारतीय संस्कृति के प्रमुख उदाहरण
- अंकोरवाट (कंबोडिया) और बोरोबूदूर (जावा): ये स्थलों पर भारतीय संस्कृति का गहरा प्रभाव दिखाई देता है। अंकोरवाट का मंदिर वास्तुकला और भारतीय धार्मिक विचारों का अद्वितीय मिश्रण है, जबकि बोरोबूदूर बौद्ध स्तूप के रूप में भारतीय प्रभाव का प्रतीक है।
2. कला और स्थापत्य के महत्वपूर्ण उदाहरण
- अजंता और एलोरा : इन गुफाओं के भित्तिचित्र और मूर्तियाँ प्राचीन भारत की कला का उत्कृष्ट उदाहरण हैं, जो धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन का परिचय देते हैं।
- बुद्ध की प्रतिमाएँ : विभिन्न देशों में बुद्ध की प्रतिमाओं का प्रसार भारतीय संस्कृति और बौद्ध धर्म के प्रचार का प्रमाण है।
- भीतरगाँव और देवगढ़ का मंदिर : गुप्त काल के दौरान बने ये मंदिर भारतीय स्थापत्य कला की उन्नति और धार्मिक धरोहर को दर्शाते हैं।
3. वैज्ञानिक जाँच से प्राप्त जानकारी
भवनों, स्मारकों और कला के अन्य अवशेषों की वैज्ञानिक जाँच से उस समय की सामाजिक और धार्मिक परिस्थितियों का ज्ञान मिलता है। अजंता और एलोरा की गुफाएँ, बुद्ध की प्रतिमाएँ, सिंधु घाटी के मृदभांड, और भीतरगाँव के मंदिर हमें प्राचीन भारत की कला, शिल्पकला, और सांस्कृतिक विकास का अवलोकन कराते हैं।