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समकालीन भारत में शिक्षा UNIT 1 SEMESTER 1 THEORY NOTES भारत में उपनिवेशवाद और आधुनिक शिक्षा का आरम्भ Education DU. SOL.DU NEP COURSES

समकालीन भारत में शिक्षा UNIT 1 SAMESTER 1 THEORY NOTES भारत में उपनिवेशवाद और आधुनिक शिक्षा का आरम्भ Education DU. SOL.DU NEP COURSES


ब्रिटिश शासन के आगमन ने भारतीय शिक्षा प्रणाली में महत्त्वपूर्ण बदलाव लाए। अंग्रेजों ने भारतीयों को शिक्षित करने के लिए पश्चिमी विद्यालय प्रणाली स्थापित की, जिससे अंग्रेज़ी भाषा ने प्रभावी संस्कृति और विचार की भाषा का स्थान ले लिया। औपनिवेशिक शिक्षा का उद्देश्य भारतीय समाज के विकास की बजाय ब्रिटिश शासन को मजबूती प्रदान करना था। औपनिवेशिक शिक्षा नीति में भारतीय संस्कृति और परंपराओं को दबाकर, एक ऐसी प्रणाली को विकसित किया गया, जिससे औपनिवेशिक नियंत्रण को वैधता मिल सके और आर्थिक व राजनीतिक लाभ सुनिश्चित हो सके। परिणामस्वरूप, शिक्षा एक स्वतंत्र साधन बनने की बजाय सत्ता का औज़ार बन गई। 19वीं सदी की शिक्षा नीति इस बहस का परिणाम थी कि शिक्षा औपनिवेशिक हितों के लिए कितनी सहायक हो सकती है।


औपनिवेशिक शिक्षा के लक्ष्य और उद्देश्य

ब्रिटिश शासन ने 1857 तक भारत में एक मजबूत औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली स्थापित कर ली थी, जिसका प्रमुख उद्देश्य एक ऐसा भारतीय वर्ग तैयार करना था, जो स्थानीय प्रशासन के कार्यों को संभाल सके और अंग्रेज़ी शैली में ढला हुआ हो

  • भारतीय प्रशासन के लिए कर्मचारी तैयार करना: ब्रिटिश सरकार का मुख्य उद्देश्य भारतीयों को ऐसे पदों के लिए प्रशिक्षित करना था, जहां वे स्थानीय प्रशासन में अधीनस्थ (नीचे स्तर) पर काम कर सकें, ताकि ब्रिटिश अधिकारियों का काम आसान हो जाए।
  • अंग्रेज़ी में ढला एक नया वर्ग बनाना: ब्रिटिशों का लक्ष्य एक ऐसा भारतीय वर्ग तैयार करना था, जो दिखने में भारतीय हो, लेकिन अपने विचार, नैतिकता और सोच में अंग्रेज़ जैसा हो। इससे वे ब्रिटिश संस्कृति और सोच को समाज में बढ़ावा दे सकते थे।
  • प्रशासनिक खर्च कम करना: ब्रिटिशों के लिए हर जगह अपने लोगों को भेजना महंगा और मुश्किल था, इसलिए उन्होंने भारतीयों को अंग्रेज़ी शिक्षा देकर अपने अधीन रखने का सस्ता तरीका चुना।
  • प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय भाषाओं में और उच्च शिक्षा अंग्रेज़ी में: शुरुआती शिक्षा में स्थानीय भाषाओं का उपयोग किया गया, ताकि सामान्य लोग भी शिक्षित हो सकें, जबकि उच्च स्तर की शिक्षा के लिए अंग्रेज़ी भाषा को जरूरी बना दिया।
  • समाज में ऊंच-नीच का निर्माण: ब्रिटिशों ने कुछ बड़े शहरों में विश्वविद्यालय खोले और स्थानीय स्कूलों को वित्तीय सहायता दी, जिससे अमीर और गरीब के बीच एक बड़ा अंतर पैदा हो गया।
  • भारतीय परंपराओं और मूल्यों पर सवाल उठाना: ब्रिटिश शिक्षा ने भारतीयों में यूरोपीय पोशाक, व्यवहार और जीवनशैली को अपनाने का रुझान बढ़ाया, जिससे परंपरागत भारतीय मान्यताओं को चुनौती मिली।
  • यूरोपीय ज्ञान और सोच फैलाना: ब्रिटिशों का एक प्रमुख उद्देश्य भारतीयों के दिमाग में यूरोपीय विचार और ज्ञान भरना था, ताकि उन्हें ब्रिटिश शासन को श्रेष्ठ मानने के लिए प्रेरित किया जा सके।
  • शिक्षा को अपने शासन का उपकरण बनाना: ब्रिटिशों ने शिक्षा का इस्तेमाल भारतीयों पर नियंत्रण बनाए रखने और अपने शासन को मजबूत बनाने के साधन के रूप में किया, न कि भारतीय समाज के विकास के लिए।


भारत की पारंपरिक शिक्षा प्रणाली

  • शैक्षिक संस्थान: 18वीं और 19वीं सदी में मुसलमानों के लिए 'मदरसे' और 'मकतब' तथा हिंदुओं के लिए 'टोल' और 'पाठशालाएं' होती थीं, जो प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक का केंद्र थे।
  • पाठ्यक्रम और विषय: मुख्य जोर शास्त्रीय भाषाओं जैसे संस्कृत, अरबी, और फारसी, तथा शास्त्रीय हिंदू और इस्लामी परंपराओं के विषयों पर था। इनमें व्याकरण, तर्क, विधि, तत्वमीमांसा, और चिकित्सा जैसे विषय शामिल थे।
  • महिलाओं की भागीदारी: महिलाएं आमतौर पर औपचारिक शिक्षा प्रणाली में शामिल नहीं थीं।
  • ज्ञान के स्रोत: छापेखाने की अनुपस्थिति के कारण ज्ञान का आधार पांडुलिपियों, मौखिक परंपरा और शिक्षकों की स्मृति पर आधारित था।
  • राज्य की भूमिका: विद्यालयी शिक्षा में राज्य की भूमिका बहुत कम या नगण्य थी। विद्वानों को कुछ हद तक राजकीय संरक्षण मिलता था।
  • प्राथमिक शिक्षा का स्तर: उच्च शिक्षा के केंद्रों के आस-पास प्राथमिक विद्यालय होते थे जो सामान्यतः उच्च जातियों के लिए आरक्षित होते थे। इनमें गणना और बुनियादी साक्षरता जैसे कौशल सिखाए जाते थे। पिछड़ी और वंचित जातियों के छात्रों को इनमें जाने की अनुमति नहीं थी।
  • उच्च शिक्षा के विषय: संस्कृत और अरबी में उच्च शिक्षा में दर्शन, साहित्य, धर्मशास्त्र, चिकित्सा, विधि, खगोल विज्ञान, और गणित पढ़ाए जाते थे। शिक्षा मौखिक पद्धति पर आधारित होती थी, और गहन सोच तथा नए ज्ञान का निर्माण उतना प्रचलित नहीं था।
  • विद्यालयों का संचालन: विद्यालय मुख्यतः जमींदारों या स्थानीय रईसों के सहयोग से संचालित होते थे, जो इनका वित्तीय सहयोग प्रदान करते थे।



पारंपरिक शिक्षा प्रणाली के पतन के कारण

  • पश्चिमी शिक्षा प्रणाली का उदय: पारंपरिक शिक्षा प्रणाली को पश्चिमी शिक्षा ने प्रतिस्थापित कर दिया, जिसमें रसायन विज्ञान, भौतिकी और अर्थशास्त्र जैसे आधुनिक विषय शामिल किए गए। इससे पारंपरिक विषयों का महत्व कम हो गया।
  • शिक्षकों की भूमिका में परिवर्तन: पहले शिक्षक स्वतंत्र व्यक्ति होते थे, परंतु अब वे सरकारी या निजी संगठनों के वेतनभोगी एजेंट बन गए, जिससे शिक्षा का स्वरूप बदल गया।
  • प्रमाणपत्र का महत्व: शिक्षा पूरी करने के बाद प्रमाणपत्र देने की प्रक्रिया शुरू हुई, जिससे लोगों का शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण बदल गया। यह प्रमाणपत्र भविष्य की नौकरी के लिए महत्वपूर्ण हो गया, जिससे पारंपरिक शिक्षा कम प्रासंगिक लगने लगी।
  • आर्थिक और सरकारी निर्भरता: पश्चिमी शिक्षा प्रणाली का प्रभाव इतना बढ़ गया कि पारंपरिक स्कूलों को सरकारी सहायता के बिना चलाना कठिन हो गया। वहीं, छात्र अब उच्च फीस चुकाने के लिए भी तैयार थे।
  • जाति-आधारित भेदभाव: भारतीय जाति व्यवस्था के कारण ब्राह्मणों का ज्ञान विशेष स्थान पर था, जबकि अन्य जातियों के कौशल आधारित और व्यावहारिक ज्ञान को कम महत्व दिया गया। इससे भी पारंपरिक शिक्षा प्रणाली कमजोर हुई।
  • तकनीकी और औद्योगिक पिछड़ापन: भारतीय औद्योगिक क्रांति की असफलता और राष्ट्र-राज्य के विकास में विलम्ब ने भारतीय शिक्षा को आधुनिक तकनीकी ज्ञान से दूर रखा, जिससे शिक्षा प्रणाली समय के साथ पिछड़ गई।
  • रूढ़िवादी और सत्तावादी दृष्टिकोण: कुछ रूढ़िवादी हिंदू समाज में बौद्धिक स्तर पर कठोर और सत्तावादी प्रवृत्तियाँ थीं, जिससे शिक्षा का विकास रुक गया। विद्वान केवल कुछ शहरों (जैसे पुणे, वाराणसी, तंजौर) में केंद्रित थे, जो सीमित विकास का कारण बना।
  • वैज्ञानिक और धर्मनिरपेक्ष ज्ञान की कमी: पारंपरिक शिक्षण संस्थानों में व्याकरण, दर्शन, और धर्म पर अधिक जोर दिया जाता था, जिससे वैज्ञानिक और धर्मनिरपेक्ष ज्ञान का विकास सीमित हो गया।


आधुनिक स्कूल प्रणाली और विश्वविद्यालयों का उद्भव

  • ब्रिटिश सरकार के प्रयास: 1813 के चार्टर एक्ट से आधुनिक शिक्षा प्रणाली की शुरुआत हुई। औपनिवेशिक शासकों ने पारंपरिक प्रणाली को हटाकर पश्चिमी शिक्षा लागू की, जिससे पारंपरिक शिक्षा की सामूहिक क्षमता खत्म हो गई  मिशनरियों और उदारवादियों के दबाव के कारण कंपनी को तटस्थता छोड़कर शिक्षा की नीति अपनानी पड़ी। कुछ ब्रिटिश प्राच्य शिक्षा में रुचि रखते थे, जिससे भारतीय भाषा और संस्कृति का ज्ञान बढ़ सके।
  • प्राच्य विद्यालयों का योगदान: प्राच्यवादी स्कूल ने भारतीय भाषाओं, इतिहास, और धर्म का अध्ययन किया। 1781 में वॉरेन हेस्टिंग्स ने कलकत्ता मदरसा, और 1791 में जोनाथन डंकन ने बनारस संस्कृत कॉलेज की स्थापना की। 1800 में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना हुई।
  • चार्टर अधिनियम, 1813: इस अधिनियम के तहत कंपनी को शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए वार्षिक रूप से एक लाख रुपये देने का निर्देश मिला। 1817 में कलकत्ता कॉलेज स्थापित हुआ, जहाँ अंग्रेज़ी माध्यम से विज्ञान और मानविकी पढ़ाई जाती थी।
  • प्राच्यवादियों और अंग्रेज़ीवादियों के मतभेद: प्राच्यवादियों ने भारतीय शिक्षा को प्राथमिकता दी, जबकि अंग्रेज़ीवादियों ने पश्चिमी शिक्षा को जरूरी माना। इस विवाद को हल करने के लिए 1835 में मैकाले ने अपना विवरण-पत्र प्रस्तुत किया, जिसमें पश्चिमी शिक्षा की सिफारिश की गई।


आधुनिक शिक्षा प्रणाली

1830 के दशक में लॉर्ड मैकाले द्वारा आधुनिक शिक्षा प्रणाली भारत में लाई गई, जिसमें विज्ञान और गणित जैसे आधुनिक विषयों पर जोर दिया गया। शिक्षण कक्षाओं तक सीमित था, जिससे शिक्षक और छात्र के घनिष्ठ संबंध कमजोर हो गए। शिक्षा की इस प्रणाली की कुछ मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

1. मैकाले के विवरण-पत्र की मुख्य विशेषताएँ

  • अंग्रेज़ी शिक्षा का माध्यम: मैकाले ने भारतीय भाषाओं को अपरिपक्व मानते हुए अंग्रेज़ी को शिक्षा का माध्यम चुना। राजा राम मोहन राय ने भी इस निर्णय का समर्थन किया।
  • चुनिंदा लोगों के लिए शिक्षा: मैकाले ने उच्च और मध्यम वर्ग के कुछ लोगों को ही शिक्षा देने का प्रस्ताव किया, ताकि ये लोग शेष समाज को प्रभावित कर सकें। इसे "अधोगति निस्पंदन सिद्धांत" कहा गया।
  • शिक्षा का उद्देश्य: मैकाले का उद्देश्य भारतीयों को अंग्रेज़ी माध्यम से शिक्षा देकर एक ऐसा वर्ग तैयार करना था जो सोच और दृष्टिकोण में अंग्रेज़ हो। जेम्स थॉमसन ने देशी भाषा में ग्रामीण शिक्षा की योजना बनाई, ताकि नए विभागों के लिए कर्मियों को प्रशिक्षित किया जा सके।


2. वुड का आदेश-पत्र (1854)

चार्ल्स वुड ने भारतीय शिक्षा के लिए एक नीति प्रस्तावित की, जिसे "भारतीय शिक्षा का मैग्ना कार्टा" कहा जाता है। इसके कुछ प्रमुख बिंदु निम्नलिखित हैं:

  • सरकारी जिम्मेदारी: सरकार को जनता को शिक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी सौंपी गई।
  • शिक्षा का माध्यम: प्राथमिक शिक्षा भारतीय भाषाओं में, जबकि उच्च शिक्षा अंग्रेज़ी में होनी चाहिए।
  • महिला शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण: महिला शिक्षा, शिक्षक प्रशिक्षण, और व्यावसायिक प्रशिक्षण पर जोर दिया गया।
  • प्राच्य भाषाओं का महत्व: संस्कृत, अरबी और फारसी जैसी भाषाओं को शिक्षण संस्थानों में पढ़ाए जाने की सिफारिश की गई।
  • विश्वविद्यालयों की स्थापना: कलकत्ता, बॉम्बे, और मद्रास में विश्वविद्यालयों की स्थापना की सिफारिश की गई, साथ ही उच्च शिक्षा के मानकों को बढ़ाने और स्थानीय भाषाओं को प्रोत्साहन देने का सुझाव दिया गया।
  • शैक्षिक वर्गीकरण: स्कूलों को प्राथमिक, माध्यमिक, पूर्व-माध्यमिक, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय में विभाजित किया गया।
  • सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता: सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता: उन्नत शैक्षणिक योग्यता वाले व्यक्तियों को सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता देने की सिफारिश की गई।


3. मिशनरियों के प्रयास

मिशनरियों ने भारत में अंग्रेज़ी शिक्षा का समर्थन अपने धार्मिक उद्देश्यों के तहत किया। उनका उद्देश्य केवल शिक्षा का प्रचार करना नहीं था बल्कि नए सांस्कृतिक मूल्यों के माध्यम से लोगों को ईसाई धर्म की ओर आकर्षित करना भी था।
  • पश्चिमी शिक्षा का प्रसार: मिशनरियों ने पश्चिमी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए बंगाल में कई महाविद्यालय स्थापित किए, जिससे पश्चिमी ज्ञान का प्रसार हुआ।
  • धर्मनिरपेक्ष शिक्षा का समर्थन: डेविड हेयर ने कलकत्ता में हिंदू कॉलेज की स्थापना की, जिसे बाद में प्रेसीडेंसी कॉलेज नाम दिया गया। इस पहल का कुछ स्थानीय लोगों ने भी समर्थन किया, जिससे धर्मनिरपेक्ष शिक्षा को प्रोत्साहन मिला।
  • अन्य प्रांतों में स्कूलों की स्थापना: बंबई और मद्रास में भी मिशनरी स्कूल खोले गए। इस तरह, मिशनरियों के प्रयासों से आधुनिक शिक्षा भारत के कई प्रांतों में फैल गई।


टैगोर और गाँधीजी का स्कूली शिक्षा का वैकल्पिक दृष्टिकोण

1. टैगोर का स्कूली शिक्षा का वैकल्पिक दृष्टिकोण

टैगोर ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली के आलोचक थे क्योंकि यह भारतीय हितों के अनुकूल नहीं थी। ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली का मुख्य उद्देश्य भारत पर नियंत्रण बनाए रखना था, और इसमें भारतीय संस्कृति, आत्म-निर्भरता, और स्वतंत्रता की भावना की उपेक्षा की गई थी। इस परिप्रेक्ष्य में, टैगोर ने भारतीय विद्यार्थियों के लिए एक वैकल्पिक शिक्षा दर्शन प्रस्तुत किया जो भारतीय संस्कृति, स्वतंत्रता, और प्राकृतिक विकास पर आधारित था।

1. शांतिनिकेतन की स्थापना

  • टैगोर ने "शांतिनिकेतन" की स्थापना की, जिसे "शांति का निवास" कहा जाता है। उन्होंने इसे एक ऐसे वातावरण में विकसित किया जो शहर के शोर-शराबे से दूर था, जहाँ छात्र और शिक्षक मिलकर एक गुरुकुल की तरह रहते थे। उन्होंने माना कि शिक्षा केवल पुस्तक ज्ञान नहीं बल्कि जीवन की आराधना होनी चाहिए। इसलिए उन्होंने शिक्षक और छात्र के बीच एक आत्मीय संबंध को बढ़ावा दिया।

2. टैगोर के शिक्षा के उद्देश्य

  • शारीरिक विकास: छात्रों के शारीरिक स्वास्थ्य को बढ़ावा देना, जिससे उनका संपूर्ण विकास हो सके।
  • बौद्धिक विकास: सोचने और कल्पना करने की क्षमता को बढ़ावा देना।
  • नैतिक और आध्यात्मिक विकास: जीवन के प्रति नैतिक और शांति पूर्ण दृष्टिकोण का विकास करना।
  • संपूर्ण विकास: व्यक्ति के हर पहलू का विकास ताकि वह एक संपूर्ण और सशक्त व्यक्तित्व बन सके।
  • अंतर्राष्ट्रीय समझ: सभी मनुष्यों के बीच भाईचारे और सद्भाव की भावना का प्रसार।

3. शिक्षा सिद्धांत

  • स्वतंत्रता: टैगोर ने शिक्षा को सभी बंधनों से मुक्त करने पर जोर दिया। वह चाहते थे कि शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया हो जो बच्चों की स्वतंत्रता, भावनाओं, और रचनात्मकता को बढ़ावा दे।
  • प्राकृतिक वातावरण में शिक्षा: टैगोर का मानना था कि शिक्षा प्रकृति के निकट होनी चाहिए, जिसमें खेत, पेड़-पौधे और खुला वातावरण हो। उन्होंने कहा कि प्रकृति से जुड़कर बच्चों के अनुभव और ज्ञान का विकास बेहतर होता है।

4. शिक्षण विधियाँ

  • यात्रा और भ्रमण द्वारा शिक्षा: टैगोर ने शिक्षा को प्रभावी बनाने के लिए भ्रमण को आवश्यक माना। उन्होंने कहा कि भूगोल, इतिहास, और सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों को प्रत्यक्ष अनुभव से सीखना चाहिए।
  • गतिविधि आधारित शिक्षा: बच्चों को विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से सीखने का अवसर दिया गया, जैसे पेड़ पर चढ़ना, नाटक, कूदना, चित्रकारी आदि।
  • स्वतंत्र खोज: छात्रों को प्रश्न पूछने और स्वयं खोज करने के लिए प्रोत्साहित किया गया ताकि वे अपनी शिक्षा में आत्मनिर्भर बन सकें।

5. टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

टैगोर ने शिक्षा को केवल ज्ञान प्राप्ति तक सीमित नहीं माना बल्कि संपूर्ण व्यक्तित्व विकास का माध्यम बताया। उनके शिक्षा उद्देश्यों को संक्षेप में निम्नलिखित बिंदुओं में समझा जा सकता है:

  • शारीरिक विकास: टैगोर का मानना था कि बच्चों को शारीरिक रूप से स्वस्थ रहना चाहिए। उन्होंने उस शिक्षा प्रणाली का विरोध किया जो केवल बौद्धिक विकास पर जोर देती है और शारीरिक विकास को नजरअंदाज करती है।
  • बौद्धिक विकास: टैगोर के अनुसार, मन की सोचने और कल्पना करने की शक्ति का विकास अत्यंत आवश्यक है। उन्होंने बौद्धिक विकास को एक मुक्त और स्वतंत्र मन के निर्माण से जोड़ा जो रूढ़ियों और बाधाओं से मुक्त हो।
  • नैतिक और आध्यात्मिक विकास: टैगोर नैतिकता और आध्यात्मिकता को शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य मानते थे। उनका जोर जीवन जीने के सरल और स्वाभाविक तरीकों पर था, जिससे व्यक्ति अंधविश्वासों और रूढ़ियों से मुक्त हो सके।
  • संपूर्णता की प्राप्ति हेतु सामंजस्यपूर्ण विकास: टैगोर के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य संपूर्णता का विकास होना चाहिए, जिसमें व्यक्तिगत और सामाजिक विकास दोनों का समावेश हो। वे शिक्षा को सामंजस्यपूर्ण और संपूर्ण विकास का साधन मानते थे।
  • अंतर्राष्ट्रीय समझ: टैगोर ने मानवता, भाईचारे, और अंतर्राष्ट्रीय सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए शिक्षा को एक महत्वपूर्ण उपकरण माना। उन्होंने पूर्व और पश्चिम की संस्कृति के बीच संतुलन स्थापित करने पर जोर दिया, जिसे उन्होंने "विश्व-भारती" के रूप में व्यक्त किया।

6. टैगोर के शिक्षा सिद्धांत:

  • स्वतंत्रता: शिक्षा का उद्देश्य बच्चों को सभी बंधनों से मुक्त कर उनकी भावनाओं और इच्छाओं को स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्त करना सिखाना है।
  • पूर्णता: शिक्षा का लक्ष्य बच्चों के व्यक्तित्व के हर पहलू का संपूर्ण विकास करना है, न कि केवल परीक्षा उत्तीर्ण करना।
  • सार्वभौमिकता: व्यक्ति के भीतर की आत्मा को पहचानना और सार्वभौमिक आत्मा से जुड़ना आवश्यक है, जिससे जीवन में प्रगति का मार्ग खुलता है।
  • प्राकृतिक शिक्षा: टैगोर का आदर्श विद्यालय प्रकृति के निकट होना चाहिए, जहाँ बच्चों को खुली और शांतिपूर्ण जगह में सीखने का अवसर मिले।
  • टैगोर के शिक्षा प्रारूप के प्रमुख उद्देश्य: स्वतंत्रता, पूर्णता और सार्वभौमिकता
  • शिक्षा का माध्यम: टैगोर ने औपनिवेशिक शिक्षा की आलोचना करते हुए मातृभाषा में शिक्षा देने पर जोर दिया। उनका मानना था कि शिक्षा प्रणाली ऐसी हो जो जनता के लिए अर्थपूर्ण हो और देश की सांस्कृतिक धारा को बनाए रखे।
  • अनुशासन: टैगोर सख्त अनुशासन के विरोधी थे। वे बच्चों की स्वाभाविक क्षमताओं को स्वतंत्रता और प्रेम के माहौल में विकसित करने पर जोर देते थे।

7. शिक्षण विधियाँ:

  • पर्यटन और यात्रा: टैगोर के अनुसार इतिहास, भूगोल आदि विषयों को प्रत्यक्ष अनुभव से बेहतर सीखा जा सकता है।
  • गतिविधियों द्वारा सीखना: बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए उन्होंने पेड़ पर चढ़ना, नाटक, और नृत्य जैसी गतिविधियों को शामिल किया।
  • कथन-सह-चर्चा और वाद-विवाद: बच्चों को तर्कसंगत चर्चा में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया, जिससे उनकी सोचने-समझने की क्षमता का विकास हो।
  • स्वतः शोध आधारित सीखना: छात्रों को अपने प्रश्नों के उत्तर ढूँढने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था, जिससे उनकी समझ का विकास हो।


2. गांधीजी का स्कूली शिक्षा का वैकल्पिक दृष्टिकोण

1. गांधीजी की नई तालीम

  • गांधीजी ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली के कटु आलोचक थे, जो भारतीयों को हीन भावना और पश्चिमी संस्कृति की श्रेष्ठता का अहसास कराती थी। उन्होंने महसूस किया कि इस शिक्षा प्रणाली ने भारतीयों को उनकी संस्कृति और गौरव से दूर कर दिया है, जिससे भारतीयों में गुलामी की मानसिकता विकसित हुई। गांधीजी भारतीय शिक्षा में आत्मसम्मान और सांस्कृतिक गौरव को पुनः स्थापित करना चाहते थे और इसलिए उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा का बहिष्कार करते हुए भारतीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाने पर जोर दिया।

2. नई तालीम की मुख्य विशेषताएँ

  • बुनियादी हस्तकला: पाठ्यक्रम में हस्तकला को शामिल करना, जिससे बच्चे व्यावहारिक और उत्पादक कार्य सीख सकें।
  • समुदाय सेवा: बच्चों को विद्यालय के आसपास के समुदाय से जोड़ने के लिए सेवा के माध्यम से संपर्क का विकास।
  • माध्यम भाषा: दूसरी से सातवीं कक्षा तक हिंदी में शिक्षा देना और आठवीं कक्षा से अंग्रेजी शुरू करना।
  • मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा: सात वर्षों तक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करना, जिससे सभी बच्चों को समान अवसर मिल सके।

3. गांधीजी की शिक्षा का उद्देश्य और तीन 'एच' की अवधारणा

गांधीजी का मानना था कि शिक्षा का उद्देश्य बच्चों की शारीरिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक क्षमताओं का संपूर्ण विकास करना है। उनके अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य हर व्यक्ति की क्षमता को उभारकर उसे उच्चतम लक्ष्य तक पहुँचाना है। गांधीजी ने कहा, "शिक्षा से मेरा आशय बच्चों के शरीर, मस्तिष्क और आत्मा का पूर्ण विकास है।"

तीन 'एच' की अवधारणा:

  • हैंड (हाथ): व्यावहारिक कौशल और कार्यकुशलता।
  • हार्ट (दिल): आध्यात्मिक और नैतिक विकास।
  • हेड (सिर): बौद्धिक और संज्ञानात्मक क्षमता।

4. नई तालीम की परिकल्पना

  • 1937 में गांधीजी ने 'नई तालीम' की अवधारणा प्रस्तुत की, जिसे उन्होंने "जीवन के लिए शिक्षा और जीवन पर्यंत शिक्षा" के रूप में परिभाषित किया। इसका उद्देश्य बच्चों में शारीरिक, मानसिक और आत्मिक गुणों का विकास करना और उन्हें आत्मनिर्भर बनाना था।

5. गांधीजी की नई तालीम: सिद्धांत और उद्देश्य

सिद्धांत:-

गांधीजी की शिक्षा का दृष्टिकोण शरीर, मस्तिष्क, और आत्मा के संपूर्ण विकास पर आधारित था। इसके चार मुख्य सिद्धांत थे:

  • मातृभाषा में शिक्षा: हस्तलिपि के साथ मातृभाषा में शिक्षा दी जानी चाहिए।
  • व्यावसायिक आवश्यकताओं से जुड़ाव: शिक्षा को स्थानीय आवश्यकताओं और व्यवसाय से जोड़ा जाना चाहिए।
  • अधिगम और कार्य का संबंध: शिक्षा को व्यावसायिक कार्य से जोड़कर व्यावहारिक बनाना।
  • सामाजिक उपयोगिता: कार्य सामाजिक और जीवन के लिए उत्पादक हो, और स्थानीय रूप से उपलब्ध तकनीक का उपयोग किया जाए।

शिक्षा के उद्देश्य

  • आजीविका आधारित उद्देश्य: शिक्षा व्यक्ति को आजीविका के लिए तैयार करे ताकि वह आत्मनिर्भर बन सके।
  • सांस्कृतिक उद्देश्य: शिक्षा का लक्ष्य छात्रों में सांस्कृतिक समझ विकसित करना है ताकि वे अपने देश और इसकी सांस्कृतिक धरोहर का सम्मान करें।
  • सामंजस्यपूर्ण विकास: अध्ययन, लेखन और अंकगणित के माध्यम से संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास।
  • नैतिक उद्देश्य: शिक्षा से बच्चों में नैतिक मूल्यों और शिष्टाचार का विकास हो ताकि वे सही-गलत का भेद जान सकें।
  • सामाजिक और व्यक्तिगत उद्देश्य: शिक्षा का उद्देश्य समाज में “सत्य” और “अहिंसा” पर आधारित व्यवस्था स्थापित करना है और एक आदर्श नागरिक तैयार करना है।
  • अंतिम उद्देश्य - आत्मबोध: जीवन का अंतिम उद्देश्य आत्मबोध है, जहाँ व्यक्ति अपने अस्तित्व और उद्देश्य को समझ सके। शिक्षा से आत्मज्ञान और आत्मबल की प्राप्ति होती है।


6. गांधीजी की नई तालीम: शिक्षा का माध्यम, पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियाँ और शिक्षक की भूमिका

  • शिक्षा का माध्यम: गांधीजी का दृढ़ विश्वास था कि शिक्षा मातृभाषा में होनी चाहिए, जिससे शिक्षा बंचित और ग्रामीण समाज तक पहुँच सके और उन्हें लाभान्वित कर सके।
  • शिक्षण विधियाँ: गांधीजी के अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य बच्चों में संकल्पनाओं को स्पष्ट करना था। नई तालीम के शिक्षक को नये तरीके अपनाने, मेहनत करने और उत्साही बनने की आवश्यकता होती है। शिक्षक को अवलोकन, चिंतन, और प्रभावी तरीके से शिक्षण के नए तरीके विकसित करने पर जोर दिया गया था।
  • पाठ्यक्रम: नई तालीम का पाठ्यक्रम पारंपरिक शिक्षा प्रणाली से भिन्न था। इसमें शिल्प कला और व्यावहारिक कौशल को जोड़ा गया, जिससे बच्चों को जीवन के लिए तैयार किया जा सके। गांधीजी का मानना था कि शिल्प-आधारित शिक्षा का उद्देश्य बच्चों के आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक विकास में सहायक बनना चाहिए। यह एक अंतःविषय दृष्टिकोण था जहाँ साक्षरता और सभी विषयों को काम के संदर्भ में पढ़ाया जाता था, ताकि छात्र जानकारी का प्रयोग करना सीखें।
  • शिक्षक की भूमिका: गांधीजी के अनुसार, शिक्षक को बच्चों में नैतिक और चरित्र विकास के लिए आदर्श होना चाहिए। उन्होंने कहा कि शिक्षक और छात्र के बीच का संबंध प्रेम, निष्ठा और सद्भाव पर आधारित होना चाहिए। एक आदर्श शिक्षक, गांधीजी के अनुसार, "माँ शिक्षक" होता है, जो प्रेम और नैतिकता से बच्चों को शिक्षा प्रदान करता है।


गांधीजी और टैगोर की शिक्षा दृष्टिकोण में अंतर

गांधीजी और टैगोर दोनों शिक्षा के वैकल्पिक दृष्टिकोण के पक्षधर थे, लेकिन उनके दृष्टिकोण में कुछ अंतर था:

  • गांधीजी: पश्चिमी सभ्यता और प्रौद्योगिकी पर निर्भरता के आलोचक थे। उनकी शिक्षा ग्रामीण आत्मनिर्भरता और शिल्प पर आधारित थी।
  • टैगोर: आधुनिक पश्चिमी सभ्यता और भारतीय परंपरा के समन्वय के समर्थक थे। उन्होंने शांतिनिकेतन में कला, संगीत, और विज्ञान को समग्र शिक्षा में शामिल किया।


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