प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय राजनीतिक विचार UNIT 9 CHAPTER 10 SEMESTER 3 THEORY NOTES आदि शंकराचार्य : अद्वैत POLITICAL DU. SOL.DU NEP COURSES

प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय राजनीतिक विचार UNIT 9 CHAPTER 10 SEMESTER 3 THEORY NOTES आदि शंकराचार्य : अद्वैत POLITICAL DU. SOL.DU NEP COURSES


परिचय

भारतीय दर्शन को आस्तिक और नास्तिक दो मुख्य श्रेणियों में विभाजित किया गया है। आस्तिक दर्शन वेदों पर आधारित होते हैं, जैसे वेदांत और मीमांसा, जबकि नास्तिक दर्शन में चार्वाक, बौद्ध और जैन शामिल हैं। वेदांत दर्शन उपनिषदों पर आधारित है, जिसे वादरायण के ब्रह्मसूत्र ने संरचित किया। वेदांत के विभिन्न सम्प्रदायों के प्रवर्तकों में शंकराचार्य (अद्वैतवाद), रामानुज (विशिष्टाद्वैत), और मध्वाचार्य (द्वैतवाद) प्रमुख हैं। शंकराचार्य का अद्वैतवाद भारतीय और पाश्चात्य विचारकों को गहराई से प्रभावित करता है।

 जीवन परिचय 

  • जन्म और प्रारंभिक जीवन: आदि गुरु शंकराचार्य का जन्म 8वीं सदी में केरल के कालड़ी गांव में एक नम्बूदरी ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनका जीवन अल्पकालिक था, मात्र 32 वर्ष की आयु में उन्होंने केदारनाथ में समाधि ले ली।
  • दार्शनिक योगदान: शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत का सिद्धांत स्थापित किया, जो आत्मा और ब्रह्म के एकत्व को समझाता है। उन्होंने गीता, ब्रह्मसूत्र और उपनिषदों पर महत्वपूर्ण भाष्य लिखे, जो भारतीय दर्शन की अमूल्य धरोहर हैं।
  • धार्मिक पुनर्जागरण: शंकराचार्य ने हिंदू धर्म को संगठित करने के लिए चार मठों (बद्रीनाथ, द्वारका, पुरी और श्रृंगेरी) की स्थापना की। इन मठों ने धर्म के प्रचार और आध्यात्मिक ज्ञान के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • शास्त्रार्थ और वेदांत प्रचार: उन्होंने देशभर में यात्रा कर शास्त्रार्थ के माध्यम से अपने अद्वैत वेदांत के सिद्धांत को स्थापित किया। उनके प्रयासों ने भारतीय धर्म और दर्शन को नई ऊंचाई दी।
  • अद्वितीय स्थान: आदि शंकराचार्य को भगवान शंकर का अवतार माना जाता है। उनका योगदान भारतीय संस्कृति, दर्शन और धर्म में अद्वितीय है, और उनकी शिक्षाएँ आज भी प्रेरणा का स्रोत हैं।


 शंकराचार्य के दार्शनिक विचार: अद्वैतवाद 

  • अद्वैतवाद की स्थापना: शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत को वेद और उपनिषदों के आधार पर स्थापित किया। उनके अनुसार, ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, जो अविभाज्य और अद्वितीय है। द्वैत को उन्होंने माया का परिणाम मानते हुए असत्य कहा।
  • अन्य दर्शनों का खंडन: शंकराचार्य ने वैशेषिक, न्याय और सांख्य दर्शनों को वेद-विरोधी बताया। सांख्य को उन्होंने अद्वैत वेदांत का मुख्य प्रतिद्वंद्वी मानते हुए इसकी द्वैतवादी प्रकृति को श्रुति के विपरीत सिद्ध किया।
  • पूर्वमीमांसा की आलोचना: पूर्वमीमांसा के कर्म-परक दृष्टिकोण को अस्वीकार करते हुए उन्होंने वेद का मुख्य उद्देश्य ब्रह्मज्ञान बताया। उनके अनुसार, कर्म और उपासना केवल चित्त-शुद्धि के साधन हैं, जबकि ज्ञान ही मुक्ति का मार्ग है।
  • ब्रह्मपरिणामवाद और भेदाभेदवाद का खंडन: शंकराचार्य ने ब्रह्मपरिणामवाद और भेदाभेदवाद का खंडन करते हुए ब्रह्मविवर्तवाद और अद्वैतवाद को स्थापित किया। उनके अनुसार, जगत ब्रह्म का मात्र आभास है, जबकि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है।
  • वेदांत का उद्देश्य: शंकराचार्य ने कहा कि वेद का ज्ञानपरक भाग और उपनिषदें मुख्य हैं, जो ब्रह्मज्ञान को प्रकाशित करती हैं। कर्म और उपासना गौण हैं और केवल आत्मा की शुद्धि के लिए उपयोगी हैं।

1. आत्मा या ब्रह्म-सिद्धांत

  • आत्मा और ब्रह्म का तादात्म्य: आत्मा और ब्रह्म उपनिषदों में अद्वैत रूप से एक माने गए हैं। आत्मा शरीर, इंद्रिय, मन, बुद्धि से भिन्न शुद्ध चैतन्य है, जो स्वप्रकाश और स्वतः सिद्ध है। वह समस्त ज्ञान और अनुभव का आधार है।
  • आत्मा की अवस्थाएं: आत्मा की तीन व्यावहारिक अवस्थाएं हैं: जाग्रत (बाह्य अनुभव), स्वप्न (अंतःकरण द्वारा कल्पना), और सुषुप्ति (अज्ञान और सुख की स्थिति)। आत्मा का तुरीय स्वरूप शुद्ध, अखंड, आनंदमय चैतन्य है, जो अविद्या के नष्ट होने पर प्रकाशित होता है।
  • ब्रह्म के स्वरूप: उपनिषदों में ब्रह्म के दो रूप वर्णित हैं:

1. सगुण ब्रह्म: यह सविशेष, सगुण, ईश्वर रूप है, जो जगत का कर्ता, धर्ता और नियंता है।

2. निर्गुण ब्रह्म: यह निर्विशेष, निर्विकल्प और अनिर्वचनीय है, जो केवल अनुभव द्वारा जाना जा सकता है।

  • ब्रह्म का लक्षण: शंकराचार्य के अनुसार, ब्रह्म इस जगत का उपादान और निमित्त कारण है। ब्रह्म जगत का वास्तविक परिवर्तन (परिणाम) नहीं, बल्कि केवल आभास (विवर्त) है। माया या अविद्या के कारण ब्रह्म जगत और जीव के रूप में प्रतीत होता है।
  • सत्य, चित्त, आनंद: ब्रह्म सत् (नित्य सत्य), चित् (शुद्ध चैतन्य), और आनंद (अखंड आनंद) का स्वरूप है। ये गुण अलग नहीं, बल्कि एक ही हैं, जो ब्रह्म का तात्त्विक स्वरूप प्रकट करते हैं।
  • 'नेति नेति': ब्रह्म का वर्णन निषेधात्मक रूप से किया जाता है। 'नेति नेति' (यह नहीं, यह नहीं) से ब्रह्म के गुणों और विशेषताओं का निषेध किया जाता है, जिससे उसकी अनिर्वचनीयता स्पष्ट होती है।
  •  बुद्धि और आत्मा: ब्रह्म बुद्धि-विकल्प, इंद्रियों और वाणी से परे है। बुद्धि उसे नहीं जान सकती, परंतु यह समझ सकती है कि उसका ज्ञान बुद्धि से परे है। आत्मा ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान की त्रिपुटी से मुक्त है।
  • अद्वैत दृष्टिकोण: आत्मा और ब्रह्म अभिन्न हैं। सभी द्वैत केवल माया का प्रभाव है। परमार्थ में आत्मा और ब्रह्म की एकता ही सत्य है।

2. शंकराचार्य का जगत-विचार

शंकराचार्य ने अपने दर्शन में "ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः" की घोषणा की, जिसका अर्थ है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, जगत मिथ्या है, और जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं है।

  • जगत का स्वरूप: शंकराचार्य ने जगत को रस्सी में सांप के भ्रम जैसा बताया। उनका कहना है कि जगत ब्रह्म का वास्तविक परिणाम नहीं है, बल्कि ब्रह्म का विवर्त (आभास) मात्र है।
  • ब्रह्म और माया: माया के कारण ब्रह्म, प्रपंचात्मक जगत (भौतिक संसार) के रूप में अभिव्यक्त होता है। माया को उन्होंने इस जगत की उत्पत्ति और कारण बताया, लेकिन यह केवल एक भ्रम है।
  • पारमार्थिक और व्यावहारिक दृष्टि: शंकराचार्य ने जगत को व्यावहारिक दृष्टि से उपयोगी माना लेकिन पारमार्थिक दृष्टि से इसे असत्य (मिथ्या) कहा। उनके अनुसार, केवल ब्रह्म ही वास्तविक सत्ता है।

3. ईश्वर और जीव: विचा

  • ईश्वर का स्वरूप: निर्गुण पर-ब्रह्म का सगुण, सविशेष रूप अपर-ब्रह्म या ईश्वर है। माया की उपाधि के कारण निराकार ब्रह्म, ईश्वर के रूप में प्रतीत होता है। ईश्वर ब्रह्म का सर्वोच्च आभास है, जो सच्चिदानंद (सत्य, चित्, आनंद) स्वरूप है। वे सृष्टि के कर्ता, धर्ता, और नियंता हैं तथा मायापति (माया के स्वामी) हैं। उनका व्यक्तित्व पूर्ण और दिव्य है।
  • जीव का स्वरूप: जीव शुद्ध ब्रह्म है, जो अविद्या के कारण शरीर, इंद्रिय और बुद्धि से सीमित प्रतीत होता है। जीव माया और अविद्या के आवरण एवं विक्षेप शक्ति से आबद्ध रहता है। यह जन्म-मरण के चक्र में भटकता है और कर्म के बंधन में बंधा होता है।
  • ईश्वर और जीव का संबंध:

1. माया के कारण परब्रह्म ईश्वर और जीव के रूप में भासता है।

2. ईश्वर माया का स्वामी है, जबकि जीव माया का दास है।

3. ईश्वर त्रिगुणों से मुक्त, शुद्ध, और अखंड चिदानंद स्वरूप है, जबकि जीव त्रिगुणात्मक है और अज्ञान से आवृत है।

4. ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, और विभु (सर्वव्यापक) हैं, जबकि जीव अल्पज्ञ, अल्पशक्तिमान, और सीमित है।

  • भक्ति और कृपा का महत्व: ईश्वर भक्तों की आराधना से प्रसन्न होकर उन्हें मुक्ति प्रदान करते हैं। उनकी कृपा से जीव आत्मसाक्षात्कार कर ब्रह्म-स्वरूप को प्राप्त करता है।
  • अद्वैत दृष्टिकोण: शंकराचार्य के अनुसार, ईश्वर, जीव, और ब्रह्म वस्तुतः एक ही हैं। इनका भेद केवल व्यावहारिक है। तत्त्वतः जीव सदैव ब्रह्म है, लेकिन अज्ञान के कारण वह अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचान पाता। "तत्त्वमसि" जैसे महावाक्यों के ज्ञान से जीव अपने ब्रह्मस्वरूप का साक्षात्कार करता है बंधन और मोक्ष दोनों ही अज्ञान के कारण प्रतीत होते हैं।

  • ईश्वर-जीव के सिद्धांत:

1. प्रतिबिम्बवाद: ब्रह्म का माया में प्रतिबिम्ब ईश्वर है और अविद्या में प्रतिबिम्ब जीव है।

2. अवच्छेदवाद: माया से सीमित ब्रह्म ईश्वर है और अविद्या से सीमित ब्रह्म जीव है।

3.आभासवाद: ब्रह्म का माया में आभास ईश्वर है और अविद्या में आभास जीव है।

4. शंकराचार्य ने मुख्यतः आभासवाद को स्वीकार किया।

  • अंतिम सत्य: जीव, ईश्वर, और ब्रह्म के सभी भेद व्यावहारिक हैं। परमार्थ में जीव, ब्रह्म और ईश्वर अभिन्न हैं। जब जीव अज्ञान से मुक्त होकर तत्त्व का साक्षात्कार करता है, तो वह अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरूप को पहचानता है। इस अद्वैत स्थिति में न बंधन है, न मोक्ष, केवल ब्रह्म ही सत्य है।

4. शंकराचार्य का ईश्वर और जीव-विचार

  • निर्गुण और सगुण ब्रह्म का भेद: शंकराचार्य के अनुसार, निर्गुण परब्रह्म का सगुण सविशेष रूप ही ईश्वर है। परब्रह्म, माया के माध्यम से ईश्वर के रूप में प्रकट होता है। माया ब्रह्म का प्रतिबिंब है, लेकिन ब्रह्म पर इसका आवरण प्रभाव नहीं डालता। ईश्वर, माया के स्वामी हैं और सृष्टि के कर्ता, धर्ता, हर्ता और नियंता हैं।
  • जीव का स्वरूप: जीव, माया या अविद्या के कारण ब्रह्म का प्रतिबिंब है। अज्ञान और माया के प्रभाव से जीव, ब्रह्म से भिन्न प्रतीत होता है। यद्यपि व्यावहारिक दृष्टि से जीव और ईश्वर में भेद है, परमार्थिक दृष्टि से यह भेद असत्य है।
  • ईश्वर और जीव में भेद: शंकराचार्य के अनुसार, ईश्वर शुद्ध, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ हैं, जबकि जीव अविद्या के कारण सीमित और बंधन में है। ईश्वर और जीव का भेद माया के कारण होता है। जब माया का आवरण हटता है, तो जीव अपनी वास्तविकता पहचानता है और ईश्वर से अभिन्न हो जाता है। वास्तविकता में, दोनों एक ही हैं।
  • माया और अविद्या का प्रभाव: आदि शंकराचार्य के अनुसार, माया के कारण ही ब्रह्म ईश्वर, जीव और जगत के रूप में प्रकट होता है। ईश्वर माया के माध्यम से सृष्टि का अधिपति बनता है, जबकि जीव अविद्या (अज्ञान) के कारण स्वयं को सीमित और बंधन में समझता है। माया और अविद्या के कारण ही संसार का भ्रम उत्पन्न होता है, जो ब्रह्म की वास्तविकता को ढक देता है।

  • शंकराचार्य ने ईश्वर और जीव की व्याख्या के लिए विभिन्न दृष्टांत दिए:

1. प्रतिबिंबवाद: माया में ब्रह्म का प्रतिबिंब ईश्वर है, और अविद्या में प्रतिबिंब जीव है।

2. अवच्छेदवाद: माया से सीमित ब्रह्म ईश्वर है, और अविद्या से सीमित ब्रह्म जीव है।

3. आभासवाद: ब्रह्म का आभास माया में ईश्वर है, और अविद्या में जीव है। आभासवाद को शंकराचार्य ने प्रमुख रूप से स्वीकार किया।

  • ईश्वर का स्वरूप: ईश्वर सच्चिदानंद स्वरूप हैं, जो सत्य, चित् (ज्ञान), और आनंद का अभिन्न रूप है। वे सर्वव्यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान हैं। उनका व्यक्तित्व पूर्ण, अद्वितीय और भक्तों के आराध्य है। ईश्वर सृष्टि के आधार और मार्गदर्शक हैं।
  • जीव का मोक्ष: जीव का मोक्ष तब प्राप्त होता है, जब वह 'तत्त्वमसि' (तू वही है) जैसे श्रुतिवाक्यों के माध्यम से अपने ब्रह्मस्वरूप का साक्षात्कार करता है। शंकराचार्य के अनुसार, जीव और ब्रह्म में कोई वास्तविक भेद नहीं है; जीवत्व केवल अविद्या (अज्ञान) का परिणाम है। मोक्ष प्राप्ति के बाद यह अज्ञान समाप्त हो जाता है, और जीव ब्रह्म के साथ पूर्णतः एक हो जाता है। मोक्ष में जीव और ब्रह्म का भेद समाप्त होकर अद्वैत का अनुभव होता है।


 शंकराचार्य के दर्शन को अद्वैतवाद क्यों कहा जाता है? 

  • शंकराचार्य के दर्शन को अद्वैतवाद (Non-Dualism) कहा जाता है क्योंकि उन्होंने ब्रह्म को ही परम सत्य और एकमात्र वास्तविकता माना। शंकराचार्य ने ब्रह्म की व्याख्या निषेधात्मक दृष्टिकोण (नेति-नेति) से की, जिसमें यह बताया गया कि ब्रह्म क्या नहीं है। उन्होंने माया को असत्य मानते हुए द्वैत की धारणा को अस्वीकार किया।
  • शंकराचार्य के अनुसार, ब्रह्म के अलावा कोई दूसरी सत्ता नहीं है। जीव और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है; जीव केवल अविद्या के कारण बंधन में प्रतीत होता है। मोक्ष की अवस्था में जीव ब्रह्म में विलीन हो जाता है, जिससे अद्वैत की अनुभूति होती है। चूंकि शंकर ने ब्रह्म के अतिरिक्त किसी द्वैत की सत्ता को नहीं स्वीकारा, इसलिए उनके दर्शन को अद्वैतवाद कहा जाता है।


 शंकराचार्य के विचारों का राजनीतिक महत्त्व 

  • समानता का संदेश: शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन ने यह स्पष्ट किया कि सभी जीव ब्रह्म के अंश हैं और उनमें कोई भेदभाव नहीं है। इस विचार ने मानव समानता और सामाजिक एकता की नींव रखी। महात्मा गांधी ने इस सिद्धांत को छुआछूत के विरोध में अपनाते हुए सभी मनुष्यों को समान अधिकार देने की वकालत की।
  • राष्ट्रीय एकता का योगदान: शंकराचार्य ने भारत के चार कोनों में चार मठों (बद्रीनाथ, द्वारका, पुरी और श्रृंगेरी) की स्थापना की। इन मठों ने धार्मिक और सांस्कृतिक एकता को मजबूत किया, जिससे भारत के एकीकरण को बढ़ावा मिला।
  • धर्म और राजनीति का समन्वय: उनके दर्शन ने सामाजिक सुधार और राजनीतिक चेतना को प्रेरित किया। समानता और एकता के उनके विचारों ने भारतीय समाज में धर्म आधारित विभाजन को कम करने में मदद की।

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