भारत में लोक प्रशासन UNIT - 2 SEMESTER -1 NOTES विकेन्द्रीकरण Decentralization Political DU. SOL.DU NEP COURSES

 

भारत में लोक प्रशासन UNIT - 2 SAMESTER -1 NOTES विकेन्द्रीकरण Decentralization Political DU. SOL.DU NEP COURSES


भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है, जहां शासन का गणतांत्रिक संसदीय रूप है। राज्य और केंद्र स्तर पर एक समान संरचना का पालन किया जाता है, और गाँवों तक विकास योजनाएँ पहुँचाने के लिए स्थानीय स्व-सरकारी निकायों का गठन किया गया है। विविधता से भरे इस देश में, सुशासन और विकेन्द्रीकरण का महत्व है ताकि सभी वर्गों की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके। 1990 के दशक से भारत ने आर्थिक सुधारों और पंचायती राज जैसे कदम उठाए हैं। 73वें और 74वें संशोधन ने स्थानीय लोकतंत्र को मजबूत किया, जिसे 'लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण' कहा गया। नौवीं पंचवर्षीय योजना के तहत 'सहकारी संघवाद' का सिद्धांत अपनाया गया, जिसमें सत्ता का वितरण केंद्र, राज्य और स्थानीय निकायों के बीच किया गया। लेकिन विभिन्न स्तरों पर विकेन्द्रीकरण की प्रगति असमान बनी हुई है।


विकेन्द्रीकरण की अवधारणा

विकेन्द्रीकरण लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर सशक्त करने का एक महत्वपूर्ण तरीका माना जाता है। इसका उद्देश्य केंद्र या राज्य सरकार की कुछ शक्तियों को क्षेत्रीय या स्थानीय अधिकारियों को हस्तांतरित करना है, ताकि स्थानीय विविधताओं और आवश्यकताओं पर अधिक ध्यान दिया जा सके। इसका समर्थन इस विचार में निहित है कि स्थानीय स्तर पर लोगों की भागीदारी जितनी अधिक होगी, प्रशासन उतना ही बेहतर होगा।


इतिहास और विकास

विकेन्द्रीकरण का इतिहास 1820 के दशक में एलेक्सिस डी टॉकविल के लेखन से मिलता है, जो फ्रांसीसी क्रांति के संदर्भ में इसे समझाते हैं। उन्होंने देखा कि समय के साथ केंद्रीकरण बढ़ता है लेकिन विकेन्द्रीकरण की आवश्यकता भी महत्वपूर्ण होती है। 1970-80 के दशक में इसे नौकरशाही के भार को कम करने और लोकतंत्रीकरण के प्रयास के रूप में देखा गया। भारत में 1990 के दशक में विकेन्द्रीकरण ने नागरिक समाज संगठनों को शासन में भागीदारी का अवसर दिया।


विकेन्द्रीकरण और समान शब्द

विकेन्द्रीकरण को अक्सर प्रतिनिधिमंडल, हस्तांतरण और निजीकरण के साथ मिलाया जाता है। इन शब्दों के अर्थ और उद्देश्य भले ही शक्ति का निचले स्तर पर वितरण हों, लेकिन उनकी प्रकृति और स्तर समय और स्थिति के अनुसार भिन्न होते हैं।

विकेन्द्रीकरण का तात्पर्य प्रशासनिक और निर्णय लेने की शक्तियों को केन्द्रीय प्रशासन से क्षेत्रीय या स्थानीय स्तर पर स्थानांतरित करना है, जिससे क्षेत्रीय कार्यालय और फील्ड कर्मचारी स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सकें। इसका उद्देश्य स्थानीय सरकारों को मजबूत बनाना है ताकि वे सार्वजनिक सेवाएँ प्रदान कर सकें और स्थानीय नीतियाँ बना सकें।

प्रशासनिक विचारकों के अनुसार, विकेन्द्रीकरण में सत्ता और जिम्मेदारी का हस्तांतरण शामिल होता है।

  • एल डी व्हाइट ने इसे केन्द्रीय प्रशासन से निचले स्तर पर प्राधिकरण सौंपने की प्रक्रिया कहा।
  • ड्वाइट वाल्डो ने विकेन्द्रीकरण को केंद्रीकरण से अलग, एक अधिक समन्वित और त्वरित प्रणाली माना।
  • फ्रीडमान ने इसे उच्च स्तर से निचले स्तर पर जिम्मेदारियों का हस्तांतरण बताया।
  • लुइस ए. एलेन ने इसे न्यूनतम स्तरों पर अधिकार सौंपने का प्रयास माना।
  • चीमा और रोडिनेली ने इसे केंद्र से क्षेत्रीय संगठनों या स्थानीय इकाइयों को अधिकार हस्तांतरित करने की प्रक्रिया बताया।

विकेन्द्रीकरण, समाज के भीतर सार्वजनिक नीति निर्धारण के लिए अधिकार और संसाधनों के वितरण को भी सम्मिलित करता है। इसमें विभिन्न कार्यों पर निर्णय लेने का अधिकार स्थानीय प्रतिनिधियों के पास होता है।


विद्युत चक्रवर्ती और प्रकाश चंद के अनुसार, विकेंद्रीकरण की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:-

  • दर्शन और तंत्र: विकेंद्रीकरण एक दृष्टिकोण और संस्थागत तंत्र दोनों है, जो सत्ता को पारंपरिक केंद्रों से दूर ले जाकर स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाता है।
  • स्वायत्तता: विकेंद्रीकरण में स्वायत्तता का महत्वपूर्ण स्थान है, जो स्थानीय स्तर पर निर्णय लेने की स्वतंत्रता को मापने के लिए एक मानदंड का कार्य करता है।
  • विचारधारात्मक स्वतंत्रता: इसका कोई निश्चित वैचारिक झुकाव नहीं है; इसे लेफ्ट और राइट दोनों अपने-अपने पक्ष को समर्थन देने के लिए उपयोग करते हैं।
  • वैश्वीकरण का प्रभाव: वैश्वीकरण विकेंद्रीकरण का प्रमुख उत्प्रेरक है, क्योंकि इसके समर्थक स्थानीय विकास को प्रोत्साहित करने के लिए विकेंद्रीकरण को आवश्यक मानते हैं।
  • लोकतंत्र की गहराई: विकेंद्रीकरण केंद्र से अलग नई संस्थागत स्थान बनाकर लोगों की भागीदारी बढ़ाता है, जिससे लोकतंत्र को गहरा और व्यापक बनाया जा सकता है।
  • स्थानीय नियंत्रण: यह स्थानीय समुदायों में विषयों को नियंत्रित करने का विश्वास पैदा करता है, जिससे स्थानीय एजेंसियों में स्वतंत्रता और जिम्मेदारी की भावना बढ़ती है।
  • सक्षमता और प्रभावशीलता: निर्णय लेने का अधिकार निचले स्तर तक साझा करने से संगठन की दक्षता, प्रभावशीलता और जवाबदेही में सुधार होता है।


विकेंद्रीकरण का महत्त्व

विकेंद्रीकरण केंद्र और राज्य सरकारों की शक्तियों को निचले स्तरों पर बाँटकर लोकतंत्र को मजबूत करता है। यह लोगों की भागीदारी और स्थानीय शासन को सशक्त बनाता है, जिससे प्रशासन अधिक जवाबदेह और उत्तरदायी बनता है।

  • विशेष क्षेत्र की आवश्यकताओं का ध्यान: विकेंद्रीकरण भारत जैसे विविध समाज में केंद्रित नीतियों की सीमाओं को कम करता है और क्षेत्रीय आवश्यकताओं को समझने में मदद करता है। यह विकास योजना में नागरिकों की भागीदारी को बढ़ावा देता है, जो:-

1. रचनात्मक और लचीला प्रशासन देता है।

2. कम लागत वाली योजनाएँ बनाता है।

3. राजनीतिक स्थिरता लाता है।

4. सार्वजनिक सुविधाओं में वृद्धि करता है।

  • स्थानीय समस्याओं पर ध्यान: स्थानीय स्तर पर कार्यों का विकेंद्रीकरण करने से अधिकारियों की संवेदनशीलता बढ़ती है, जिससे प्रशासनिक कौशल का विकास होता है और नौकरशाही की कमी आती है।
  • सक्रिय भागीदारी: निर्णय लेने की प्रक्रिया में विभिन्न समूहों की भागीदारी से प्रशासनिक क्षमता बढ़ती है और स्थानीय संस्थानों की प्रेरणा में वृद्धि होती है।
  • रजनी कोठारी के अनुसार, विकेंद्रीकरण लोगों को विकास का केंद्र बनाता है, जिससे वे केवल लाभार्थी नहीं, बल्कि विकास के मुख्य इंजन बन जाते हैं। यह शासन में एक महत्वपूर्ण तत्त्व है, भले ही समन्वय की चुनौतियाँ और नीति भिन्नता की आवश्यकताएँ उत्पन्न हों।


विकेन्द्रीकरण के अध्ययन के लिए दृष्टिकोण

जेम्स डब्ल्यू फेसलर ने विकेन्द्रीकरण के चार प्रमुख दृष्टिकोण प्रस्तुत किए हैं:

  • सैद्धांतिक दृष्टिकोण: यह दृष्टिकोण विकेन्द्रीकरण को एक स्वतंत्र लक्ष्य मानता है, जिसका उद्देश्य जमीनी स्तर पर सशक्तिकरण है। यह मानता है कि धीरे-धीरे निर्णय लेने और कार्यात्मक अधिकारों को स्थानीय स्तर पर सौंपा जाना चाहिए।
  • राजनीतिक दृष्टिकोण: इस दृष्टिकोण के अनुसार, विकेन्द्रीकरण का निर्णय एक राजनीतिक प्रतिबद्धता है, जिसमें प्रशासन की विकेन्द्रीकरण इकाइयाँ बनाकर उन्हें स्वायत्तता प्रदान की जाती है।
  • प्रशासनिक दृष्टिकोण: इसमें केन्द्रीय और स्थानीय प्रशासन के बीच प्रभावी प्रशासनिक इकाइयाँ बनाई जाती हैं, जिससे दक्षता और शिकायत निवारण तंत्र को सुधारा जा सके।
  • दोहरी भूमिका दृष्टिकोण: यह दृष्टिकोण कानून और व्यवस्था के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक विकास की दृष्टि से विकेन्द्रीकरण की आवश्यकता को देखता है। इसमें समाज कल्याण प्रशासन के लिए अत्यधिक विकेन्द्रीकृत और सहभागी प्रशासन की आवश्यकता होती है।


विकेंद्रीकरण के चार प्रमुख प्रकार हैं

  • राजनीतिक विकेन्द्रीकरण: निर्णय लेने की शक्तियाँ उच्च स्तर से निचले स्तर पर स्थानांतरित होती हैं, जिससे स्थानीय लोगों की भागीदारी और शासन की वैधता बढ़ती है। भारत में 73वां और 74वां संशोधन इसका उदाहरण है।
  • प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण: संगठन अपनी कुछ शक्तियाँ अधीनस्थ इकाइयों को सौंपता है, जिससे निचले स्तर पर अधिक प्रशासनिक जिम्मेदारी आती है।
  • वित्तीय विकेन्द्रीकरण: निचले स्तर के शासन को वित्तीय स्वायत्तता दी जाती है ताकि वे अपनी आय उत्पन्न कर सकें और अपनी जरूरतें पूरी कर सकें।
  • कार्यात्मक विकेन्द्रीकरण: केंद्र या राज्य सरकार से कुछ कार्य स्थानीय निकायों को सौंपे जाते हैं, जैसे पंचायती राज संस्थाओं को 29 कार्य सौंपना।


भारत में विकेन्द्रीकरण

भारत में विकेन्द्रीकरण का उद्देश्य केंद्र सरकार और स्थानीय शासन इकाइयों के बीच शक्ति, कार्य, और उत्तरदायित्वों का बंटवारा करना है, ताकि स्थानीय स्तर पर लोगों की भागीदारी बढ़े और समस्याओं का समाधान जमीनी स्तर पर हो सके। भारतीय संदर्भ में, इसे "लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण" के रूप में जाना जाता है, जिसमें विकेन्द्रीकरण को विकास के एक प्रभावी और कुशल उपकरण के रूप में देखा जाता है।


1. लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण के दृष्टिकोण

  • संस्थागत दृष्टिकोण: इसे स्व-सरकारी सहायक व्यवस्था के रूप में देखा जाता है, जहाँ स्थानीय संस्थाओं को सशक्त किया जाता है।
  • सहायक दृष्टिकोण: इसमें स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाकर उनकी भागीदारी सुनिश्चित की जाती है, जिससे विकास में सुधार होता है।


2. विकेन्द्रीकरण की दिशा में 73वां और 74वां संशोधन

1992 में भारत के संविधान में 73वें और 74वें संशोधन किए गए, जिन्होंने स्थानीय शासन प्रणाली को मजबूत बनाया:

  • 73वां संशोधन: ग्रामीण क्षेत्रों में त्रि-स्तरीय पंचायती राज प्रणाली को स्थापित करता है।
  • 74वां संशोधन: शहरी क्षेत्रों के लिए शहरी स्थानीय निकायों की स्थापना करता है।


3. मुख्य विशेषताएँ

दोनों संशोधनों के अंतर्गत स्थानीय शासन के कुछ प्रमुख तत्व हैं:-

  • त्रिस्तरीय संरचना: ग्रामीण और शहरी दोनों स्तरों पर तीन-स्तरीय शासन प्रणाली लागू की गई है।
  • नियमित चुनाव: संविधान के अनुसार, स्थानीय निकायों के लिए नियमित चुनाव अनिवार्य बनाए गए हैं।
  • आरक्षण: महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटों का आरक्षण और अनुसूचित जाति, जनजाति एवं पिछड़े वर्गों के लिए आनुपातिक आरक्षण।
  • राज्य सुरक्षा आयोग: पंचायत और नगर पालिका चुनावों के आयोजन के लिए राज्य स्तर पर आयोग का गठन।
  • वित्तीय विकेन्द्रीकरण: राज्य वित्त आयोग का प्रावधान, जो स्थानीय निकायों के वित्तीय संसाधनों को सुनिश्चित करता है।
  • कार्यात्मक विकेन्द्रीकरण: संविधान की 11वीं और 12वीं अनुसूचियों में स्थानीय निकायों को विभिन्न कार्य सौंपे गए हैं, जिससे वे अपनी जिम्मेदारियाँ निभा सकें।

 

4 . उद्देश्य 

भारत में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण का उद्देश्य राज्य स्तर से नीचे स्थानीय सरकारें स्थापित करना है, जो स्थानीय मामलों में नागरिकों की भागीदारी बढ़ाता है। इसे पंचायतों और नगर निकायों के रूप में लागू किया गया है।

भारत जैसे विविध देश में, राज्य सरकारों के तहत एक तीसरे स्तर की आवश्यकता है, जिसे स्थानीय सरकार कहा जाता है। ऐतिहासिक रूप से, ऋग्वेद में स्व-शासी ग्राम निकायों का जिक्र मिलता है, और औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश शासन ने स्थानीय स्वशासन के लिए प्रारंभिक प्रयास किए, जैसे बंगाल ग्राम चौकीदार अधिनियम, 1860 और रिपन संकल्प 1882। हालांकि, ये निकाय संसाधनों की कमी और जमींदारों के प्रभुत्व से प्रभावित थे, लेकिन स्वतंत्र भारत में इनका ढांचा मजबूत किया गया।

महात्मा गांधी द्वारा बार-बार ग्राम स्वराज की वकालत के बावजूद, स्वतंत्र भारत में सशक्त स्थानीय शासन की अवधारणा संविधान में केवल नीति निर्देशक सिद्धांतों तक सीमित रह गई। भारत में स्थानीय स्वशासन को सशक्त बनाने के लिए 1957 से 1986 तक चार प्रमुख समितियाँ गठित हुईं:

1. बलवंत राय मेहता समिति (1957): इसने "लोकतान्त्रिक विकेंद्रीकरण" का विचार दिया और त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था (ग्राम पंचायत, पंचायत समिति, और जिला परिषद) की सिफारिश की। राष्ट्रीय विकास परिषद ने इसे स्वीकार कर लिया, और राजस्थान (1959) पहला राज्य बना जिसने इसे लागू किया।

2. अशोक मेहता समिति (1977-78): इसने पंचायती राज संस्थाओं की कमजोरियों को पहचाना और त्रि-स्तरीय प्रणाली की जगह दो-स्तरीय प्रणाली तथा पंचायतों को संवैधानिक मान्यता देने का सुझाव दिया। इसके अलावा, इन संस्थानों को कराधान की शक्ति देने और जिला परिषद को योजना की जिम्मेदारी सौंपने की सिफारिश की।

3. जी वी के राव समिति (1985): योजना आयोग द्वारा गठित इस समिति ने पाया कि स्थानीय स्व-सरकारी संस्थानों से विकास प्रक्रियाओं को दूर करने के कारण एक ऐसी व्यवस्था बन गई थी जिसे उन्होंने "जड़ों के बिना घास" जैसा बताया। प्रमुख अनुशंसाएँ थीं:

  • जिला परिषद को प्रमुख विकास कार्यक्रमों की जिम्मेदारी दी जाए।
  • जिला विकास आयुक्त का पद सृजित हो, जो जिला परिषद का मुख्य कार्यपालन अधिकारी हो।
  • नियमित चुनाव हों।

4. एल एम सिंघवी समिति (1986): राजीव गांधी सरकार द्वारा गठित इस समिति ने "लोकतंत्र और विकास के लिए पंचायती राज संस्थानों के पुनरोद्धार" पर ध्यान दिया। प्रमुख सिफारिशें थीं:

  • पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता।
  • गाँवों के समूहों के लिए न्याय पंचायतों की स्थापना।

1989 में 64वाँ संविधान संशोधन विधेयक पारित नहीं हो सका, लेकिन नरसिम्हा राव सरकार ने 1992 में 73वां और 74वां संशोधन अधिनियम पारित कर पंचायतों और नगर पालिकाओं को संवैधानिक मान्यता दी। इन अधिनियमों ने संविधान में दो नए भाग (IX और IX-A) और दो नई अनुसूचियाँ (11वीं और 12वीं) जोड़ीं, जिनमें पंचायतों और नगर पालिकाओं के कार्य शामिल हैं। इन संशोधनों ने पंचायतों को आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय की योजनाएँ बनाने का अधिकार दिया।



स्थानीय शासन : ग्रामीण 

पंचायती राज संस्थान भारत में ग्रामीण स्थानीय शासन का अखिल भारतीय रूप है, जिसे 73वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 के तहत स्थापित किया गया। इस अधिनियम ने त्रि-स्तरीय पंचायत प्रणाली को लागू किया, जिसमें ग्राम, मध्यवर्ती और जिला स्तर की पंचायतें शामिल हैं। इससे पंचायतों को अपने विकास कार्यों की योजना और क्रियान्वयन की शक्ति मिली।

मुख्य प्रावधान:

  • ग्राम सभा (अनुच्छेद 243A): ग्राम स्तर पर मतदाताओं का निकाय, जो पंचायत के कार्यों की देखरेख करता है।
  • त्रि-स्तरीय प्रणाली (अनुच्छेद 243B): ग्राम पंचायत, पंचायत समिति, और जिला परिषद।
  • आरक्षण (अनुच्छेद 243D): अनुसूचित जाति, जनजाति और महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें।
  • कार्यकाल (अनुच्छेद 243E): पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल 5 वर्ष।
  • सत्ता और उत्तरदायित्व (अनुच्छेद 243G): पंचायतों को सशक्त बनाने के लिए शक्तियों और उत्तरदायित्वों का हस्तांतरण।
  • वित्तीय सशक्तिकरण (अनुच्छेद 243H, 243I): कर लगाने की शक्ति और राज्य वित्त आयोग का गठन।
  • ऑडिट (अनुच्छेद 243J): पंचायत खातों का ऑडिट।
  • चुनाव आयोग (अनुच्छेद 243K): स्वतंत्र चुनाव सुनिश्चित करने के लिए राज्य स्तरीय चुनाव आयोग का गठन।
  • कार्य क्षेत्रों: पंचायतों को 11वीं अनुसूची के अंतर्गत 29 कार्य सौंपे गए हैं, जिनमें कृषि, पशुपालन, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़कें, ग्रामीण विद्युतीकरण, और महिला एवं बाल विकास शामिल हैं। ये कार्य पंचायतों को स्थानीय स्तर पर विकास और स्वशासन सुनिश्चित करने के लिए दिए गए हैं, जिससे ग्रामीण भारत में सशक्त स्थानीय शासन की स्थापना हो सके।


चुनौतियाँ और समस्याएँ

73वें संविधान संशोधन ने ग्रामीण भारत में पंचायती राज व्यवस्था को सशक्त किया और स्थानीय शासन में जनप्रतिनिधित्व को बढ़ावा दिया। हालांकि, इसके बावजूद कुछ चुनौतियाँ और समस्याएँ बनी हुई हैं, जो निम्नलिखित हैं:

  • पहचान का संकट: पंचायतें स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं के रूप में प्रभावी पहचान बनाने में संघर्ष कर रही हैं।
  • अधीनता की संस्कृति: स्वतंत्र भारत में विकेंद्रीकरण को पूर्णता से अपनाने में बाधाएँ हैं।
  • अति-राजनीतिकरण: पंचायतों का अत्यधिक राजनीतिकरण हो रहा है।
  • केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति: विकास की प्रक्रिया में राज्यों की भूमिका प्रमुख होने से विकेंद्रीकरण सीमित हो गया है।
  • पितृसत्तात्मक संरचना: ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं और पिछड़ी जातियों की भागीदारी में बाधाएँ हैं।
  • संचालन में अज्ञानता: पंचायती राज संस्थाओं के कामकाज के बारे में कम जानकारी।
  • संपत्ति का विषम वितरण: ग्रामीण क्षेत्रों में संपत्ति और शक्तियों का असमान वितरण।
  • वित्तीय संसाधनों की कमी: पंचायतों के पास सीमित वित्तीय शक्तियाँ और बजट का अभाव है।
  • कम निवेश: पंचायतों के अपने कर और उपयोगकर्ता शुल्क बढ़ाने की क्षमता सीमित है।
  • विलंबित चुनाव और भ्रष्टाचार: चुनाव में देरी और भ्रष्टाचार की समस्या भी बनी हुई है।


स्थानीय शासन : शहरी 

74वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1993 ने शहरी क्षेत्रों में स्थानीय स्वशासन को सशक्त बनाया, जिससे शहरी स्थानीय निकायों (ULBs) जैसे नगर निगम, नगर परिषद और नगर पंचायत की स्थापना हुई। इन निकायों को जनता द्वारा चुना जाता है और ये शहरी सेवाओं की योजना, प्रावधान और वितरण में भूमिका निभाते हैं। इस अधिनियम ने संविधान में अनुच्छेद 243पी से 243जेडजी तक भाग IXA जोड़ा है।

मुख्य प्रावधान:

  • नगर पालिकाओं का गठन (अनुच्छेद 243Q): नगर पंचायत, नगर परिषद, और नगर निगम।
  • प्रत्यक्ष चुनाव (अनुच्छेद 243R): चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा नगर पालिका का संचालन।
  • वार्ड समितियाँ (अनुच्छेद 243S): वार्ड स्तर पर समितियों का गठन।
  • आरक्षण (अनुच्छेद 243T): अनुसूचित जाति, जनजाति और महिलाओं के लिए आरक्षण।
  • कार्यकाल (अनुच्छेद 243U): प्रत्येक नगर पालिका का कार्यकाल 5 वर्ष।
  • सत्ता, अधिकार और उत्तरदायित्व (अनुच्छेद 243W): स्थानीय स्वशासन के लिए शक्तियाँ।
  • कर लगाने की शक्ति (अनुच्छेद 243X): नगरपालिकाओं के लिए कर लगाने की क्षमता।
  • वित्त आयोग (अनुच्छेद 243Y): राज्य वित्त आयोग नगर पालिकाओं की वित्तीय स्थिति की समीक्षा करेगा।
  • अकाउंट्स का ऑडिट (अनुच्छेद 243Z): नगर पालिकाओं के खातों की लेखा परीक्षा।
  • राज्य चुनाव आयोग (अनुच्छेद 243ZA): नगर पालिका चुनावों की निगरानी।
  • जिला योजना समिति (अनुच्छेद 243ZD): विकास योजनाओं का समेकन।
  • महानगरीय योजना समिति (अनुच्छेद 243ZE): महानगर क्षेत्रों के विकास योजना का मसौदा।


74वें संशोधन के बावजूद शहरी निकायों के समक्ष कुछ चुनौतियाँ बनी हुई हैं:

  • वित्तीय संसाधनों की कमी: शहरी विकास के लिए धन की कमी।
  • जन भागीदारी का अभाव: लोगों की भागीदारी न्यून है।
  • राज्य नियंत्रण: शहरी निकाय राज्य सरकार के नियंत्रण में कार्य करते हैं।
  • कार्य विभाजन की अस्पष्टता: विभिन्न स्थानीय इकाइयों में कार्यों का सीमांकन स्पष्ट नहीं है।


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