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BA Programme & BA Hons- ( भरत मुनि कृत नाट्यशास्त्र ) Unit -1- Chapter - 1 ( रंगमंच )


प्रिय विद्यार्थियों आज के इस ब्लॉग आर्टिकल में हम आपको बताएंगे Chapter- 1- Unit- 1) भरत मुनि कृत नाट्यशास्त्र यह जो हम आपको Notes बता रहे हैं यह Hindi Medium में है इसकी Video आपको Eklavya स्नातक Youtube चैनल पर मिल जाएगी आप वहां जाकर देख सकते हैं Today Topic- BA Programme & BA Hons- ( भरत मुनि कृत नाट्यशास्त्र ) Unit -1- Chapter - 1 ( रंगमंच )  Du, Sol, Ncweb – 1 / 2



भरतमुनि कृत नाट्यशास्त्र का संक्षिप्त परिचय दीजिये ? 

भारत में नाट्यशास्त्रीय परंपरा कितनी प्राचीन है इसको लेकर विद्वानों में मतभेद है कुछ विद्वान इसे ग्रीक नाट्यशास्त्रीय परंपरा से जोड़ कर देखते है तो कुछ इसे भारत में वैदिक परंपरा से जोड़ कर देखते है भरतमुनि रचित नाट्यशास्त्र एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है भरत से पूर्व और पश्चात् में भी नाट्यशास्त्र के आचार्य हुए, जिनकी रचनाओं के माध्यम से नाट्यशास्त्र की समृद्ध परंपरा और उसकी नई-नई व्याख्या दृष्टिगत होती है।

भरतमुनि रचित नाट्यशास्त्र ही एक ऐसा प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ है, जिसमें नाट्यशास्त्रीय सिद्धांतों का क्रमबद्ध निरूपण अति विस्तार एवं सूक्ष्मता से किया गया है। नाट्यशास्त्र के क्षेत्र में इस ग्रंथ का वहीं महत्त्वपूर्ण स्थान है जो कि व्याकरण के क्षेत्र में पाणिनी की 'अष्टाध्यायी का। भरतमुनि के पश्चात् सभी आचार्य भरत प्रतिपादित नाट्यशास्त्र शास्त्रीय सिद्धांतों पर ही विचार विमर्श रहा। 


नाटक की व्युत्पत्ति

'नाटक' शब्द 'नट' धातु से व्युत्पन्न माना जाता है। कुछ विद्वान इसको व्युत्पत्ति 'नट' धातु से मानते हैं और कुछ लोगों का कहना है कि 'नट' और नृत धातुओं के अर्थ में कोई अन्तर नहीं है। नाटक काव्य ऐसी विधा है जिसमे अवस्थानुकृति, अभिनय, भाव प्रकाशन और रसानुभूति सबकी व्यप्ति हो जाती है। नाट्याचार्य भरत का स्पष्ट कथन है कोई योग, कोई कर्म, कोई शास्त्र, कोई शिल्प ऐसा नहीं है जो नाटक में न दिखाई पड़ता हो। नाटक सभी कलाओ, शास्त्र और कर्मों का समन्वित रूप है।


नाटक की व्युत्पत्ति और इसका स्वरुप 

भारतीय साहित्य में नाट्यशास्त्र को पंचम वेद कहा गया है। भरतमुनि ने अपने महाकाव्यों में नाटकीय नाटयशास्त्र के प्रारम्भ में इसकी उत्पत्ति का बड़ा रोचक विवरण दिया है। उनके अनुसार एक बार वैवस्वत मनु के दूसरे युग में मनोरंजन का कोई अच्छा साधन न रहने से लोग उदास रहा करते थे। इन्द्र आदि सभी देवताओं ने मिलकर ब्रह्माजी से एक ऐसे आनन्दप्रद मनोरंजन के विधान की प्रार्थना की, जो सभी जातियों के लोगों के लिए समान रूप से मनोरंजक हो।

देवताओं की प्रार्थना पर ब्रह्मा ने ऋग्वेद से रस तत्त्वों को ग्रहण कर नाट्य वेद नामक पंचम वेद की रचना की नाटक के अभिनय के अनुरूप सिद्धान्तों के प्रकाश के लिए उन्होंने भरतमुनि को आज्ञा दी। इसी प्रसंग में आगे भरतमुनि बताते हैं कि नाटकों में प्रायः देवताओं की विजय और राक्षसों की पराजय का वर्णन किया जाता था, राक्षसों ने ब्रह्मा से शिकायत की। जिसका उत्तर देते हुए उन्होंने समझाया कि नाटक में पक्षपात के लिए स्थान नहीं होता उसमें तो तीनों लोकों के भावों का अनुकीर्तन होता है और समाज के व्यापक हित के अनुकूल वह रूप ग्रहण करता है।

नाट्यशास्त्र में वर्णित इस कथा को प्रामाणिकता और वैज्ञानिकता भले ही संदिग्ध हो है किन्तु इस कथा से प्रारम्भिक नाटक की प्रकृति और उसके स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है। प्रारम्भिक नाटक को मनोरंजकता, कलात्मकता, अभिनेता, नृत्य ,संगीतपूर्णता और लोक कल्याण की भावना आदि विशेषताओं का संकेत मिलता है।


भरतमुनि का नाट्यशास्त्र

भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र की रचना नटों को प्रशिक्षण देने करने के लिए की थी। नट – नाटक करने वाला अभिनेता आचार्य अभिनवगुप्त का मानना है कि नाट्य का प्रायोगिक शास्त्र सर्वप्रथम भरतमुनि ने ब्रह्मा से सीखा, फिर उन्होंने यह शास्त्र अपने शिष्यों को सिखाया। भविष्य में नटों को लाभान्वित करने की दृष्टि से उन्होंने इस शास्त्र को ग्रंथ के रूप में निबद्ध भी किया। कालिदास, भवभूति , राजशेखर आदि नाटककारों ने भरतमुनि को एक महान नाट्यप्रयोक्ता के रूप में स्मरण किया है। 

उनका नाट्यशास्त्र केवल एक पुस्तक ही नहीं, बल्कि सदियों तक बनी रहने वाली एक जीवंत परंपरा है। भारत में नाटक की उत्पत्ति और उसके अभिनय आदि के विषय में भरतमुनि के नाट्यशास्त्र को सबसे प्राचीन ग्रंथ माना गया है। इसमें नाटक का प्रामाणिक और विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया गया है। 

नाट्य संबंधित सभी विषयों का प्रतिपादन करने वाला शास्त्र 'नाट्यशास्त्र' है। यह ग्रंथ नाट्य के स्वरूप को समझने का उपाय है, यह केवल नाट्यकला का ही नहीं बल्कि समस्त भारतीय कलाओं का विश्वकोश माना जाता है। यह ग्रंथ ज्ञान, विज्ञान, शिल्प, कला, विधा, योग और कर्म का भी बोध कराता है। नाट्यशास्त्र का भारतीय साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। नाट्य की विभिन्न विधाओं पर जितना विवेचन इस ग्रंथ में मिलता है उतना किसी अन्य ग्रंथ में नहीं मिलता।


नाट्यशास्त्र के अध्याय

नाट्यशास्त्र में 36 अध्याय और 6000 श्लोक है 

नाट्यशास्त्र का महत्त्व  

भरत मुनि के अनुसार - नाट्य परंपरा का मुख्य स्रोत वेद है नाटक का मुख्य उद्देश्य दुखी मन को शांत करना है नाट्य के उद्देश्य तक पहुंचाने के लिए उसकी प्रयोग विधि के सम्यक् ज्ञान की आवश्यकता है। नाट्यशास्त्र में नाटक के विभिन्न स्वरूपों का ज्ञान होता है नाट्यशास्त्र में नाटक  के भाव , रस का ज्ञान होता है

भारतीय रंगमंच की अवधारणा

नाटक मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम है रंगमंच के जरिये कलाकर अपने भावों, विचारों को एक दूसरे तक पहुंचाते हैं । सम्भवतः रंगमंच के मूल में यही अवधारणा है। नाटक लोकहितकारी मनोविनोद का ऐसा साधन है जो दृश्य भी है और श्रव्य भी ।

नाटक की उत्पत्ति के समय महेन्द्र इत्यादि देवताओं ने ब्रह्मा से ऐसा ही मनोविनोद का साधन मांगा था जो दृश्य और श्रव्य दोनों हो।’ इस साधन के दृश्य होने का अर्थ रंगमंच है। रंगमंच के अभाव में विधा का दृश्य होना असंभव है। इस प्रकार नाटक की उत्पत्ति के साथ ही रंगमंच का भी अविर्भाद हुआ। रंगमंच जीवन की घटनाओं को सजीव रूप मे उपस्थित करता है। दर्शक के सामने घटनायें वास्तविक रूप से घटित होती है।

रंगमंच के माध्यम द्वारा दर्शक की भावनायें मुख्य रूप से उत्तेजित होती है और उसमें तत्त्सम्बन्धी संवेदनाओं उभर आती है जिसे भरतमुनि ने साधारणीकरण कहा है। जिससे दर्शक के ह्रदय में रस की निष्पत्ति होती है।नेमिचन्द्र जैन ने लिखा है कि रंगमंच कलात्मक अभिव्यक्ति का ऐसा माध्यम है जिसमें मनोरंजन का अंश अन्य कलाओं की तुलना में अपेक्षाकृत सबसे अधिक है। रंगमंच पर प्रदर्शित नाटक दर्शक का मनोरंजन करके ही सम्पूर्ण और सफल होता है और अपना उद्देश्य पूरा करता है



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