BA Programme & BA Hons- ( हिंदी का पारंपरिक रंगमंच ) Unit -1- Chapter - 2 ( रंगमंच )

प्रिय विद्यार्थियों आज के इस ब्लॉग आर्टिकल में हम आपको बताएंगे Chapter- 2- Unit- 1) भरत मुनि कृत नाट्यशास्त्र यह जो हम आपको Notes बता रहे हैं यह Hindi Medium में है इसकी Video आपको Eklavya स्नातक Youtube चैनल पर मिल जाएगी आप वहां जाकर देख सकते हैं Today Topic- BA Programme & BA Hons- ( हिंदी का पारंपरिक रंगमंच ) Unit -1- Chapter - 2 ( रंगमंच )  Du, Sol, Ncweb – 1 / 2


पारंपरिक रंगमंच से क्या अभिप्राय है ?

भारत एक विशाल आबादी वाला विविधताओं से भरा हुआ देश है यहां अलग-अलग धर्मों को मानने वाले लोग रहते है यहाँ लोग विभिन्न प्रकार की जातियों में बंटे हैं लोगों की विचारधारा, रहन-सहन, संस्कृति, पहनावा, बोलचाल, भाषाएं अलग है इस प्रकार पूरे भारत में भिन्न-भिन्न प्रकार की परंपराएं हैं यह पारंपरिक विविधता विभिन्न राज्यों में हमें देखने को मिलती हैं इन पारंपरिक शैलियों की अपनी अलग विशेषता है कहीं पारंपरिक शैलियों का रूप नृत्य प्रधान है तो कहीं संगीत प्रधान कहीं धार्मिक सरोकार तो कहीं लौकिक लेकिन विविधता होने के बाद भी पारंपरिक रंगमंच में कुछ समानता के गुण भी देखने को मिलते हैं

भारत में ज्यादातर लोकनाट्य परंपरा अलिखित हैं इसलिए इन पारंपरिक शैलियों के उद्भव और विकास की सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं है विभिन्न कथाओं और विद्वानों के मत के आधार पर पारंपरिक रंगमंच के उद्भव और विकास के बारे में केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है


पारंपरिक रंगमंच का उद्भव और विकास 

जनता के द्वारा आनंद और उल्लास की सामूहिक अभिव्यक्ति के लिए समाज में जो रूढ़ियां , धार्मिक अनुष्ठान , लोक कथाएं प्रचलित हैं इन्हें लोक परंपरा या पारंपरिक रंगमंच के रूप में जाना जाता है पारंपरिक रंगमंच में एक तरह की अनपढ़पन होता है जिस कारण इसको नियमित नाटकों की धारा से अलग माना जाता है लेकिन भारतीय नाट्यरूपों में महाकाव्य, पुराणों और गाथाकाव्य से जुड़े होने के कारण इसमें साहित्यिकता का गुण है 

प्रदर्शन के नियम और अनुशासन का पालन हिंदी नाट्य परंपरा में किया जाता है ( जैसा भरतमुनि का नाट्यशास्त्र में बताया गया है ) इसीलिए भारतीय लोक नाटकीय विधाओं को पारंपरिक या परंपरा शील रंगमंच कहा जाता है भारतीय नाटक की परंपरा हजारों वर्ष पुराने हैं संस्कृत के नाट्य परंपरा के कुछ तत्व आज भी नाटक में दिखाई देते हैं


परंपरा

वैदिक साहित्य में नाटक का अस्तित्व एक स्वतंत्र विधा के रूप में नहीं मिलता  लेकिन ऋग्वेद में कुछ संवाद सूत्र ऐसे हैं जहां कथानक एवं नाटकीय कुशलता की कुछ झलक मिलती है 

जैसे - 

पुरुरवा उर्वशी संवाद 

यम - यमी संवाद 

विश्वामित्र और नदी संवाद 

लोपामुद्रा संवाद 

रामायण और महाभारत दोनों में ही नाट्य प्रदर्शन की झलक मिलती है पतंजलि के महाभाष्य में कंस वध एवं बली वध नामक दो प्रदर्शन मिलते


नाटक की भाषा में बदलाव 

संस्कृत नाटकों के रूप में परिवर्तन हमें चौदहवीं शताब्दी तक देखने को मिलने लगा अब नाटक की प्रस्तुति में गीत और नृत्य का प्रयोग काफी बढ़ गया था इस समय देश में ऐसे नाटक लिखे जाने लगे जिसमें संस्कृत संवादों के साथ भाषा गीत का समावेश भी देखने को मिला उदाहरण -  

मिथिला में कीर्तिनिया नाटक की रचना 

असम में शंकरदेव ने अंकिया की रचना 

इन नाटकों के कथानक पौराणिक होते हैं और इसमें संगीत और नृत्य काफी अधिक होता है यह नाटक प्रस्तुतियां हमारे पारंपरिक रंगमंच का अंग बनी


रास की परंपरा 

भगवान कृष्ण की लीलाओं का गान और रास नृत्य पहले से प्रचलन में था इसके साथ ही चरित अभिनय की संकल्पना बीच में जुड़ गई रासलीला में अभिनय, संवाद, नृत्य एवं भाषा गीतों से संपन्न पद्धति की शुरुआत हुई


पारंपरिक रंगमंच की सामान्य प्रवृतियाँ 

  1. कथानक और विषयवस्तु
  2. संवाद 
  3. भाषा 
  4. संगीत 
  5. नृत्य 
  6. पात्र 
  7. चरित्र 
  8. मंच विधान 
  9. रूप सज्जा
  10. वेशभूषा   


कथानक और विषयवस्तु

पारंपरिक रंगमंच में मुख्यतः तीन प्रकार की कथावस्तु मिलती है 

1. पौराणिक कथा या पात्र 

2. सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों की प्रतिक्रिया स्वरूप यथार्थ जीवन 

3. प्रेम और शौर्य के आख्यान  धार्मिक नाटक में पौराणिक कथानको का प्रयोग होता है जैसे – रामचरितमानस, कृष्ण कथा सत्य हरिशचंद्र, प्रह्लाद चरित्र आदि में


संवाद 

किसी भी नाटक में उसके संवाद उसके प्राण होते हैं पारंपरिक नाट्य रूपों में संवादों का स्वरूप उसके पात्रों का परिचय देने और दृश्य का वर्णन करने के लिए होता था बहुत से पात्र रंगमंच से बाहर घटी घटनाओं का परिचय देते हैं संवाद पद्य और गद्य दोनों में ही होते हैं संवाद लोक गीतों की धुनो में भी होते हैं 

भाषा  

नाटक में भाषा शैली का बहुत महत्व होता है पारंपरिक नाट्य रूपों में क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग होता था किस नाटक की भाषा शैली पर ही नाटक की सफलता निर्भर करती है भाषा शैली ही नाटक को प्रभावशाली बनाती है  

संगीत 

पारंपरिक रंगमंच में गीत-संगीत भाव प्रकट करने का मुख्य साधन थे गद्य संवादों का प्रयोग तो होता है परंतु संवाद एवं गीतों की प्रधानता होती है संगीत सभी पारंपरिक नाट्य रूपों का एक मुख्य अंग होता है अधिकतर संगीत राग अनुबंध होते हैं नाटक में संगीत के लिए लोकधुन  जैसे ढोलक, झांझ, मंजीरे, करताल, बांसुरी, हारमोनियम, सारंगी बजाए जाते हैं संगीत के कारण एक उत्सव का वातावरण बन जाता है यह संगीत दर्शकों को मनमुग्ध कर देता है

नृत्य

पारंपरिक रंगमंच में नृत्य महत्वपूर्ण होता है रासलीला में नृत्य काफी प्रभावशाली होता है कत्थक , कुचिपुरी , यक्षगान काफी प्रसिद्ध नृत्य है यह नृत्य शैली नाटक में प्रयोग की जाती है

पात्र और चरित्र 

नाटकों में एक ही पात्र कई तरह के रूप लेता है कभी वह गायक बन जाता है तो कभी किसी विशेष भूमिका का पात्र बन जाता है पारंपरिक नाट्य अभिनेता अनेक स्तरों पर नाटक में अभिनय करता है वह प्रत्येक प्रकार के पात्र को जी लेता है अधिकांशत स्त्री पात्र का अभिनय पुरुष पात्र ही करते हैं और यह अभिनेता अपने अभिनय के कारण दर्शकों का मन मोह लेते हैं

रूप सज्जा और वेशभूषा 

पारंपरिक नाट्य रूपों में वेशभूषा और रूप सज्जा का महत्व अधिक होता है इसमें सभी की वेशभूषा में भड़कीलापन देखने को मिलता है भारी कपड़े , गोटा और काला बट्टू, झिलमिलाते वस्त्र, चमकदार भारी मुकुट , भारी भुजबंद , लंबे चौड़े हार कमरबंद , विभिन्न प्रकार के मुखोटे का प्रयोग किया जाता है वेशभूषा यथार्थपरक नहीं होती है रामलीला और रासलीला नाटकों में राम और कृष्ण तथा नौटंकी के पात्र सामान्य नागरिकों से भिन्न वस्त्र धारण करते हैं कभी-कभी पात्रों के चरित्र के हिसाब से वेशभूषा का रंग निर्धारित किया जाता है मुख सज्जा में भड़कीलेपन का विशेष आग्रह रहता है

मंच विधान 

पारंपरिक रंगमंच का प्रस्तुतीकरण खुले मंच पर होता था कभी-कभी इन्हें मंदिरों के साथ लगे हुए स्थान या मेले या तमाशे में मंच बना लिया जाते थे कभी सड़क या गांव में पंचायत घर में नाटक की प्रस्तुति होती थी कुछ नाट्यरूप जैसे - अंकिया या रामलीला के मंचों की अपनी विशिष्टता होती है मंच पर दृश्य सज्जा की सामग्री कम से कम होती है मंच एक ऊंचा चबूतरा होता है जहां से पात्र नाटक की प्रस्तुति करते हैं और उसके सामने बैठे दर्शक उसे देखते हैं किसी भी नाटक को सफल बनाने में उसके मंच की महत्वपूर्ण भूमिका होती हैप्रमुख पारंपरिक नाट्य रूप नौटंकी, स्वांग, तमाशा, ख्याल, बिदेसिया, जात्रा आदि रासलीला, रामलीला, अंकीयानाट, तेरुकुत्तु आदि


रामलीला 

रामलीला उत्तर भारत का सबसे प्रमुख प्रसिद्ध लोकप्रिय नाट्यरूप है इसकी कई शताब्दियों की परंपरा है  रामलीला की कई क्षेत्रीय शैलियां है भारत में सितंबर अक्टूबर के महीने में 15 दिन से लेकर 1 महीने तक रामलीला का प्रदर्शन नगरों और गांव में किया जाता है देश में शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हो जिसने रामलीला ना देखी हो  रामलीला का अर्थ विष्णु के अवतार राम के जीवन की विभिन्न घटनाओं का नाटकीकरण है  रामलीला में भगवान राम के जन्म से लेकर रावण के वध के पश्चात, अयोध्या में राज्य अभिषेक तक की सभी घटनाओं का नाटकीय प्रदर्शन किया जाता है  

रामलीला तुलसीदास कृत रामचरितमानस पर आधारित है रासलीला उत्तर प्रदेश का प्रमुख धार्मिक लोकनाट्य है  इसमें कृष्ण के ब्रजवासी जीवन के अनेकों रूपों का नाटकीय प्रदर्शन किया जाता है  राधा कृष्ण की प्रेम लीला को इस में प्रदर्शित किया जाता है  मथुरा और वृंदावन के मंदिरों के प्रांगण में हर रात यह नाट्य प्रदर्शन होते हैं यह लीला शाम से आरंभ होकर देर रात तक चलती है  भक्तगण उसी भाव से रासलीला देखने जाते हैं जिस भाव से मंदिर में भगवान के दर्शन करने 

भगवान कृष्ण के बाल रूप के नटखटपन के दृश्य देखकर सभी मुस्कुरा उठते हैं किशोर कृष्ण और राधा की शृंगारिक लीलाओं पर रोमांचित होते हैं और विरह प्रसंगों पर रो पड़ते हैं मथुरा और वृंदावन में रासलीला की विभिन्न मुडलिया है जो रासलीला का प्रदर्शन करती हैं यह मंडलिया घूम-घूम कर दूर-दूर तक गांव और शहरों में भी प्रदर्शन करने के लिए जाती हैं विभिन्न मंदिरों में भी इन मंडलियों को बुलाया जाता है

कभी-कभी भक्त लोग अपने घरों पर किसी उत्सव या त्योहार पर इन मंडलियों को बुलाकर लीला कराते हैं रासलीला या तो मंदिर के प्रांगण में होती है या फिर प्रदर्शन के लिए खुली जगह का प्रयोग किया जाता है कृष्ण राधा के बैठने के लिए झांकी का स्थान ऊंचा होता है लीला का प्रारंभ कृष्ण राधा की आरती से होती है एक ऊंचे चबूतरे पर एक सिंहासन होता है जिसमें कृष्ण और राधा को बिठाते हैं  6 गोपीयाँ उनके आसपास खड़ी होती हैं उनके आगे साड़ी का पर्दा बना कर दो व्यक्ति खड़े हो जाते हैं और राधा कृष्ण के पास बैठ जाने के बाद पर्दा हटा दिया जाता है और सामाजिक गायन वादन प्रारंभ कर देते हैं


स्वांग

स्वांग / सांग  हरियाणा की सांस्कृतिक धरोहर है इसके लिए किसी मंच की आवश्यकता नहीं होती स्वांग की प्रस्तुति खुले मैदान में तख़्त डालकर कर दी जाती है स्वांग की भाषा हरियाणवी होती है स्वांग मंडली का प्रत्येक सदस्य प्रत्येक पात्र का अभिनय कर सकता है छोटे से मंच पर सब अभिनेता बैठे रहते हैं जिसकी बारी आती है वह उठकर पार्ट बोल देता है  प्रवेश, प्रस्थान, संवाद, नृत्य काम सब उसी पर होता है स्वांग हरियाणा का प्रमुख लोकनाट्य है स्वांग का अर्थ होता है  रूप भरना या नकल करना 


अंकीया नाट

अंकिया नाटक का एक रूप है इसे प्रारंभ करने का श्रेय शंकरदेव को जाता है शंकर देव असम के वैष्णव संत थे और अपने शिष्यों के साथ ब्रजमंडल की यात्रा पर गए थे वहां उन्होंने रासलीला की प्रस्तुति को देखी थी जिससे वह काफी प्रभावित हुए थे फिर वापस लौट कर उन्होंने रासलीला के एक अंक पर नाट्य  लिखें जिसमें कृष्ण की लीलाओं का चित्रण किया गया अंकिया नाट्य  में एक ही अंक होता है यह आकार में छोटे होते हैं और 2 या 3 घंटे में अभिनीत हो सकते हैं इस लोकनाट्य में नृत्य और विभिन्न प्रकार के मुद्राएं द्वारा भावाव्यक्ति की जाती है  इसमें पात्र स्वयं भी गाते हुए नृत्य द्वारा अपने भाव को उद्घाटित करते हैं 


नौटंकी  

नौटंकी गेय ( गाया जाने वाला ) नाटक है नौटंकी का प्रदर्शन पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश में होता है इस शैली के प्राचीन नाटकों को संगीत कहा जाता था नौटंकी नाम पड़ने का कारण शहजादी नौटंकी नाम के एक संगीत को बतलाया जाता है जो इतना लोकप्रिय हुआ कि इस नाटक को ही नौटंकी का नाम दे दिया गया नौटंकी की भाषा उर्दू या हिंदी होती है इसमें संवाद गा कर बोले जाते हैं संवादों को कई छंदों में बांधा जाता है नौटंकी में थिएटर धुन में लिखे गए संवाद भी बहुत प्रभावशाली होते हैं नौटंकी संगीत में स्त्री पात्रों का अभिनय स्त्रियां ही करती हैं नौटंकी का मंच मात्र एक चबूतरा होता है इसमें पर्दा या रंग सज्जा का अधिक प्रयोग नहीं होता


बिदेसिया  

बिदेसिया बिहार का लोकप्रिय नाट्यरूप है इसके प्रणेता भिखारी ठाकुर थे भिखारी ठाकुर ने बचपन में ही अपना घर छोड़ दिया था और एक घुमंतू नृत्य गान मंडली बना ली थी भिखारी ठाकुर की नाटक मंडली में लौंडा नाच प्रसिद्ध था नाच के बीच बीच में गायन और छोटे-छोटे संवाद टुकड़े होते थे इस नाट्य रूप का नाम बिदेसिया पड़ गया बिदेसिया एक विरह गीत के रूप में था लेकिन बाद में इसने धीरे-धीरे आध्यात्मिक भाव भी ले लिए पहले बिदेसिया गीत से प्रारंभ कर भिखारी ठाकुर ने रामायण, महाभारत, किस्सा तोता मैना पर गीत रचे उनको भोजपुरी गीतों का बादशाह कहा जाता था कैकई मंथरा संवाद हो या लक्ष्मण परशुराम संवाद सभी अवसरों पर भिखारी ठाकुर ने अपनी सुरीली आवाज दी बिदेसिया खुले मंच की प्रस्तुति है इसको किसी खुले स्थान पर विशेषकर गांव या चौपाल या शादी ब्याह के अवसर पर बिदेसिया पार्टियां बुलाकर कराया जाता था


ख्याल

ख्याल को लावनी के नाम से भी जाना जाता है  यह राजस्थान से संबंधित है यह काफी प्राचीन परंपरा है ख्याल मंडलिया निश्चित शुल्क पर प्रदर्शन करती है राजस्थानी ख्याल संगीत प्रधान लोकनाट्य है इसमें संगीत, नृत्य और नाटक का सम्मिश्रण होता है इसमें गायन की प्रधानता रहती है ख्याल का रंगमंच केवल एक ऊंचा चबूतरा मात्र होता है यह चारों तरफ से खुला रहता है दर्शक इसके चारों और बैठकर इसे देखते हैं इसमें ढोलक , हारमोनियम , सारंगी , नगाड़ा आदि वाद्य यंत्र बजाए जाते हैं ख्याल में स्त्री पात्रों का अभिनय भी पुरुष ही करते हैं , पात्र राजस्थान की परंपरागत वेशभूषा पहनते हैं इसमें राजस्थानी पगड़ी और धोती पहनी जाती है स्त्री पात्र लहंगा, चुनरी, कांचली पहनते हैं  रात की शुरुआत से ही ख्याल का प्रदर्शन शुरू होता है और आधी रात  से भी अधिक समय तक चलता है


माच    

माच मालवा का लोकप्रिय नाटक है इसमें मालवा के प्रचलित प्रेमाख्यान प्रस्तुत किए जाते हैं इसमें कभी-कभी मोरध्वज, प्रह्लाद और रामायण भाव भी प्रस्तुत किए जाते हैं माच का प्रचलन मालवा के गांव- गांव और शहर - शहर में है  माच का सबसे प्रसिद्ध रूप उज्जैन में देखने को मिलता है यह लोग पहले उज्जैन के मंदिरों में कृष्ण चरित का अभिनय करते थे बाद में माच मंदिरों से हटकर गांवों और नगरों के खुले मैदानों में होने लगा  माच के खेलों का आयोजन सामान्यता वर्षा काल को छोड़कर शेष समय में किया जाता है इसका आयोजन फागुन, चैत्र और वैशाख महीनों में विशेषकर होता है माच के खेलों का प्रदर्शन रात्रि के पहले पहर से शुरू होकर प्रात : काल तक चलता है  मंच पर ढोलक बजाई जाती है

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