भारत का इतिहास- 1707- 1950 ई. तक- Unit- 9- Bhic- 134- ignou subject
परिचय
ईस्ट इंडिया कंपनी ने कभी भी भारत के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करने का प्रयास नहीं किया। उसने ऐसा अपने राजनीतिक हित के लिए किया। भारतीय समाज को पुनर्जीवन प्रदान करने का प्रयास भारतीय सामाजिक एवं धार्मिक सुधारकों, सुधारवादी ने किया
सुधारों की पद्धति और विस्तार क्षेत्र
उन्नीसवीं शताब्दी के सुधार-आंदोलन केवल धार्मिक आन्दोलन नहीं बल्कि सामाजिक- धार्मिक आंदोलन थे। बंगाल के राजा राममोहन राय, महाराष्ट्र के गोपाल हरि देशमुख और आंध्र के विरेशलिंगम् जैसे सुधारकों ने धार्मिक और सामाजिक समस्याओं में धार्मिक सुधारों का पक्ष किया था।
उठाये जाने वाले प्रमुख मुद्दे इस प्रकार हैं-
(1) जाति प्रथा व छूआभूत का विरोध
(2) सती प्रथा, शिशु हत्या, बाल विवाह का विरोध
(3) विधवा विवाह एवं बालिका शिक्षा को समर्थन
(4) आधुनिक शिक्षा का समर्थन
आंतरिक सुधार
प्रसिद्ध समाज सुधारक राजा राममोहन राय इन्होने इस प्रणाली के प्रचारकों ने समाज के अंदर ही सुधारों पर बल दिया राजा राममोहन राय- का सती प्रथा के खिलाफ प्रचार करना, विद्यासागर का विधवा- विवाह को समर्थन देना , बी.एन. मालाबारी - के शादी-विवाह की न्यूनतम आयु बढ़ाने के प्रयास
कानून द्वारा सुधार
इसके अंदर कानूनी हस्तक्षेप द्वारा सुधारों को लागू किया जाता है जैसे कि बंगाल के केशव चंद्र सेन, महाराष्ट्र के महादेव गोविंद रानाडे तथा आंध्र प्रदेश के विरेशलिंगम कानूनों द्वारा सुधार के पक्ष में थे इसलिए इन्होंने ब्रिटिश सरकार से विधवा विवाह, कानूनी विवाह तथा अन्य विवाह को आयु बढ़ाने जैसे सुधारो को कानूनी समर्थन देने की मांग की।
सामाजिक कार्यों के माध्यम से सुधार
सामाजिक कार्यों के माध्यम से सामाजिक सुधार करना एक अच्छा कार्य था। उदाहरण के लिए ईश्वरचंद्र विद्यासागर की गणना महान समाज सुधारकों में की जाती है। उन्होंने अपने प्रयासों से 1856 ई. से विधवा पुनर्विवाह कानून बनवाया। इन सब प्रयासों के बाद भी वह सिर्फ कुछ एक विधवा- विवाह ही पुनर्विवाह करवा पाए।
विश्व व्यापकतावाद
विश्व व्यापकतावाद उन्नीसवीं शताब्दी की एक अन्य महत्त्वपूर्ण विचारधारा थी, जो ईश्वर की एकता में विश्वास रखती थी तथा सभी धर्मों के समाहित होकर एक होने पर बल देती थी। राममोहन राय ने शुरू में ब्रह्म समाज को विश्व धर्म के रूप में प्रदर्शित किया।
प्रमुख सुधार आंदोलन
धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलन का आरम्भ बंगाल में राममोहन राय द्वारा किया गया। उन्होंने 1814 में आत्मीय सभा की स्थापना की जो बाद में ब्रह्म समाज के नाम से जानी गयी। देश के अन्य भागों के कुछ मुख्य सुधार आंदोलनों में महाराष्ट्र की परमहंस मंडली और प्रार्थना समाज, पंजाब तथा उत्तर भारत के अन्य भागों में आर्य समाज, हिंदू समाज आदि आते हैं।
देवेन्द्रनाथ और केशवचन्द्र
रवीन्द्रनाथ टैगोर के पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर ने राममोहन के आदर्शों से प्रेरित होकर 1839 में तत्वबोधिनी सभा की स्थापना की। उनका मुख्य उद्देश्य भारत में ईसाई धर्म की तेज प्रगति का विरोध करना था 1843 में देवेन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रह्म समाज विचारों को अपनाया और उसी वर्ष उन्होंने ब्रह्म समाज का पुनर्गठन किया। केशवचन्द्र सेन ब्रह्म समाज से जुड़े एक अन्य बुद्धिजीवी थे जिन्होंने नारी-मुक्ति प्रयासों पर बल दिया।
आर्य समाज
स्वामी दयानंद सरस्वती उत्तरी भारत में सामाजिक तथा धार्मिक सुधार करने का प्रयास करते थे। उन्होंने 1875 में आर्य समाज की स्थापना की। उन्होंने वेदग्रंथों के अध्ययन को बल दिया। अंतर्जातीय विवाह और महिला शिक्षा का पक्ष लेते थे वे अस्पृश्यता एवं जातिभेद के भी आलोचक थे।
सैय्यद अहमद खान
सर सैय्यद अहमद खान समाज- सुधारक थे। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़कर अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने बहु- विवाह प्रथा की निंदा की उन्होंने 1875 में अलीगढ़ के मुहम्मद आंग्लो-ओरियंटल कालेज की स्थापना की।
सुधार आंदोलनों का महत्त्व
इन आंदोलनों ने समाज को लोकतांत्रिक बनाने, अंधविश्वासों को दूर करने, ज्ञान के प्रसार और आधुनिक दृष्टिकोण के विकास में प्रमुख भूमिका निभाई है। हिंदू समाज में सुधार आंदोलनों ने मूर्तिपूजा के अतिरिक्त सती प्रथा, जातिगत भेदभाव आदि अनेक सामाजिक व धार्मिक कुरीतियों पर प्रहार किया।
कमजोरियां एवं सीमाएं
उन्नीसवीं शताब्दी के सुधार- आंदोलनों का उद्देश्य भारत के विभिन्न भागों में रहने वाले लोगों के सामाजिक, शैक्षिक व नैतिक स्तर को ऊपर उठाना था लेकिन इसमें अलग-अलग प्रकार की परेशानियां आई जैसे कि केवल आर्य समाज को छोड़कर अन्य सुधार- आंदोलनों का क्षेत्र उच्च जाति व वर्ग तक ही सीमित था। इसके अलावा अधिकतर आंदोलन शहरी क्षेत्र तक ही सीमित रहे। आम जनता इन आंदोलनों से अप्रभावित ही रही।