Bhic- 134 Unit- 6 ( औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था : कृषि ) भारत का इतिहास 1707- 1950 ई. तक


भारत का इतिहास- 1707- 1950 ई. तक- Unit- 6- Bhic- 134- ignou subject


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परिचय

इस समय भारत की 80% जनसंख्या गांव में रहा करती थी। जो कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि से जुड़ी हुई थी, साथ ही अपनी रोजी रोटी कमा रही थी। अंग्रेजों के भू राजस्व निर्धारण ने यहां के परंपरागत कृषि के ढांचे को नष्ट कर दिया गया  प्रौद्योगिकी का निम्न स्तर, सिंचाई सुविधाओं का अभाव, खाद उर्वरकों का बहुत कम प्रयोग होता था। कृषि के व्यवसायीकरण के कारण नगदी फसलों की उत्पादकता के प्रमाण मिले हैं लेकिन इसका लाभ किसानों को नहीं मिला।


अंग्रेजों के अधीन वाणिज्यकरण

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने मुगल साम्राज्य के पतन का लाभ उठाया उन्होंने दक्षिण और पूर्व भारत के कई क्षेत्रों से लाभ प्राप्त किया जैसे कि बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा इनमें से कुछ क्षेत्र कृषि में संपन्न थे साथ ही कुछ व्यापार में अच्छे थे। कंपनी के साथ-साथ इनके अधिकारियों ने भी खूब लाभ उठाया।


वाणिज्यक फसलों का चुनाव

वाणिज्य फसलों में नील, कच्ची रेशम, कपास, अफीम, काली मिर्च तथा 19वीं सदी में चाय तथा चीनी थी। ब्रिटेन में रेशम का उत्पादन नहीं होता था। पश्चिमी देशों में सूती कपड़ों की रंगाई के लिए नील महत्वपूर्ण था। उन दिनों जहाज आधुनिक समुद्री जहाजों की तुलना में काफी कम भार ले जाते थे इसलिए सामान ले जाने में भाड़ा ज्यादा लगता था, इसलिए ज्यादा धन खर्च हो जाता था और कंपनियों को ज्यादा लाभ प्राप्त नहीं होता था।


दरिद्रता

अंग्रेजों का मुख्य लक्ष्य यूरोप को निर्यात करने वाली वस्तुओं का उत्पादन करवाना था। जिससे कि कंपनी का खजाना भरा जा सके और एक व्यक्तिगत अंग्रेज व्यापारी भी धन को इस उद्देश्य से वापस लंदन भेजना चाहता था ताकि रिटायर होने पर उसका जीवन आराम से बीते। इस प्रकार के व्यवसायिक फसलों की वृद्धि एवं निर्यात ने भारत को दरिद्र बनाया।


भू- राजस्व प्रबंधन के आरंभिक प्रयोग

1757 में जब अंग्रेजों ने बंगाल पर अधिकार स्थापित कर लिया। तो उनका मुख्य उद्देश्य अधिक से अधिक धन वसूला था कंपनी के अधिकारियों द्वारा धन पाने की लालसा और प्रशासन में उनके हस्तक्षेप के कारण एक अव्यवस्था पैदा हो गई। जो बंगाल के अकाल का कारक भी रही थी। अधिक से अधिक लगान वसूलने के कारण यह जनता पर शोषण और अत्याचार करते थे।


बंगाल में स्थाई बंदोबस्त

कार्नवालिस ने भारत आकर देखा कि वर्तमान व्यवस्था कुछ ठीक नहीं चल रही है। जैसे कि यूरोप में निर्यात होने वाली वस्तुएं रेशम, सूत आदि के उत्पादन में कमी आई है जिसकी वजह से कृषि की व्यवस्था खराब है तथा इसका प्रभाव हस्तशिल्प उद्योग पर भी पड़ा है। अव्यवस्था के कारण भ्रष्टाचार और शोषण दोनों बढे हैं। इसीलिए भूमि कार्य को स्थाई तौर पर निर्धारित करने का निर्णय लिया गया साथ ही यह कहा गया कि सरकार भविष्य में कर नहीं बढ़ाएगी और कुछ अच्छे परिणामों की आशा की गई जैसे कि

1. अधिकारियों को मनमाने ढंग से कर वसूलने से रोका जाए जिससे भ्रष्टाचार कम होगा

2. अगर ऐसा हुआ तो उत्पादन और व्यापार में वृद्धि होगी जिससे सरकार को नियमित रूप से कर मिलता रहेगा।


स्थाई बंदोबस्त के प्रभाव

इस व्यवस्था में जमींदारों को बहुत से अधिकार प्राप्त हुए। उन्हें प्रत्येक वर्ष एक निश्चित समय पर एक निश्चित रकम सरकारी खजाने में जमा करवानी होती थी और इसमें चूकने पर उनकी जमीनदारी नीलाम हो जाती थी। अगर किसी जगह बाढ़, सूखे जैसी परेशानी होती थी तो वहां के जमींदारों के पास कुछ नहीं बचता था। उनकी भी जमीनदारी नीलाम हो जाती थी। इसलिए अनेक जमींदारों की जमीनदारी छीन ली गई और व्यापारी लोगों ने उनकी जमींदारीयो को खरीद लिया। जिसने उन जमींदारीयो को खरीदा वह अधिक लाभ कमाने के उद्देश्य से अधिक कर वसूलने लगा।


रैयतवाड़ी के तहत कर निर्धारण

सभी जिले और परगने के हजारों खेतों पर राजस्व का निर्धारण करना एक मुश्किल कार्य था। किसी खेत पर कम और किसी खेत पर ज्यादा राजस्व लग जाने की स्थिति में किसान महंगे खेतों को छोड़ देते थे और सस्ते खेतों पर खेती करते थे जिससे महंगे खेत परती हो जाते थे।राजस्व अधिकारी को किसी खेत के कर निर्धारण करने के लिए मिट्टी की उर्वरता, जमीन की प्रकृति, सिंचाई की उपलब्धता जैसी बातों का ध्यान रखना पड़ता था।  अक्सर खेत में हुए उपज का आकलन करते हुए कर का निर्धारण करना होता था लेकिन असल में कर की राशि इतनी अधिक होती थी की किसान के लिए वे राशि देना मुश्किल होता था।








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