BHIC- 133 ( कस्बे, नगर तथा नगरीय केंद्रों का विकास ) Unit- 15 भारत का इतिहास C. 1206- 1707 / bhic- 133- kasbe, nagar tatha nagarey kendro ka vikas- unit- 15 bharat ka itihas
Subject- IGNOU- BAG- 2nd year
परिचय
मध्यकाल में भारत में शहर इतिहास पर ज्यादा विवरण उपलब्ध नहीं है क्योंकि सल्तनत काल की स्थापना से पहले राजधानी भी तंबू का एक शहर हुआ करता था। जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित होता रहता था। इस काल में विदेशी व्यापार भी निम्न अवस्था में था। दिल्ली सल्तनत के उपरांत स्थिति में तेजी से परिवर्तन हुए तथा शहरी विकास हुआ जिसे मोहम्मद हबीब ने 'शहरी' क्रांति' की संज्ञा दी
मध्यकालीन नगरों के अध्ययन संबंधी परिप्रेक्ष्य
रिसर्च के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि शहर एक घनी आबादी वाला एक ऐसा क्षेत्र है जिसका विस्तार सीमित था इसकी जनसंख्या गैर कृषि कार्य करती थी यहां रहने वाले निवासी अलग-अलग प्रकार के अन्य व्यवसायों में लगे हुए थे मध्यकालीन भारत में शहरीकरण के अंतर्गत चार प्रकार के शहरी केंद्र की व्याख्या की गई है।
1. प्रशासनिक
2. धार्मिक
3. सैनिक
4. सामरिक
मुगल काल के दिल्ली और लाहौर जैसे शहर प्रशासनिक महत्व वाले शहर थे वाराणसी तथा मथुरा धार्मिक गतिविधियों से संबंधित शहर थे
13वीं से 15वीं शताब्दियों में नगरों का विकास
शहर की परिभाषा के अनुसार 5000 से अधिक जनसंख्या वाली कोई भी बस्ती शहर हो सकती थी अधिक जनसंख्या लगभग 70% से अधिक कृषि के अलावा अन्य व्यवसायो में लगी हो समकालीन ग्रंथों में दिल्ली ( राजधानी ) मुल्तान, खम्भात, कड़ा, लखनौती और दौलताबाद आदि प्रमुख शहरों का उल्लेख मिलता है इब्नबतूता ने दिल्ली को आकार और जनसंख्या में सबसे बड़ा शहर बताया था
सल्तनत काल में नगरिय उत्पादन
दिल्ली सल्तनत की स्थापना ने शहरी शिल्प उत्पादन में बढ़ावा दिया। जिससे कि शहरीकरण की प्रक्रिया और मजबूत हो गई। शासक वर्ग शहरों में रहा करते थे और शिल्प उत्पादन के क्षेत्र में पैसे खर्च करते थे। शासक और अमीर वर्ग अधिक मूल्य वाली विलासिता की वस्तुएं खरीदते थे। इसी कारण ने शिल्प उत्पादन के लिए बड़े बाजार को जन्म दिया। कागज, कालीन और भवन निर्माण ने शहरों में रोजगार के अवसर प्रदान किए।
उत्पादन का संगठन
ज्यादातर औजार लकड़ी या थोड़े लोहे के प्रयोग से बनते थे। जो कि काफी सस्ते हुआ करते थे। कुछ कारीगर आवाज लगाते हुए अपनी सेवाएं भेजते थे। जैसे की रूई धुनने वाला एक निश्चित धनराशि में रूई धुनता था। सुल्तान और अमीरों के पास अपने स्वयं के कारखाने हुआ करते थे जिसके अंदर वह अपनी आवश्यकताओं और विलासिताओं वाली वस्तुओं का उत्पादन किया करते थे।
मुगलकालीन नगरिय परिदृश्य
मुगलकालीन शहरों की कुछ विशेषताएं इस प्रकार हैं। ज्यादातर शहर चारदीवारी में स्थित है जिसमें एक या उससे अधिक प्रवेश द्वार होते हैं। सामान्य तौर पर लोग इन चारदीवारी के अंदर ही रहते हैं शहरों के विस्तार के बाद शहरी जनसंख्या दीवारों के बाहर तक बसने लगी थी। सुनियोजित शहरों में बाजार अलग से बनाए जाते थे। उदाहरण के लिए आगरा में
1. लोहा गली ( लोहे की वस्तुओं के लिए )
2. जोहरी बाजार ( आभूषणों के लिए )
3. सब्जी मंडी ( सब्जी के लिए )
4. शहरों में ऐसी जगह भी हुआ करती थी जहां व्यापारियों और यात्रियों के लिए रहने का स्थान होता था जिन्हें सराय कहा जाता था।
नगरीय जनसंख्या की संरचना
शहरों के अंदर मिली जुली जनसंख्या रहती थी जिसको हमने यहां चार श्रेणियों में बांटा है।
1. कुलीन वर्ग - इसके अंतर्गत राज्य के अधिकारी तथा सैनिक आते हैं
2.व्यापारिक और वाणिज्य- इसके अंदर मुख्य तौर पर व्यापारी लोग आते हैं जैसे कि व्यापारी, दलाल इत्यादि
3. धार्मिक प्रतिष्ठानों से संबंधित वर्ग- चित्रकार, संगीतकार, कवि, हकीम इत्यादि
कारीगर- इसके अंदर मजदूर और अलग-अलग प्रकार के सेवक को शामिल किया गया है। राजधानी के अंदर सबसे बड़ा वर्ग सम्राट, कुलिन और सैनिकों, सेवकों का होता था शहर में रहने वाले ज्यादातर लोग कला, संगीत, व्यापार से संबंधित कार्य किया करते थे जो कि शहरों में धन कमाने के साधन ज्यादा थे।
उत्पादन की अलग-अलग क्रियाओं से जुड़े कारीगर कुछ इस प्रकार थे
कारीगर जो स्वयं वस्तु बनाते और बेचते थे वह कारीगर जो सम्राट का कुलीनो के सहायक के रूप में कार्य करते थे कम कुशल कारीगर, जोकि कुशल कारीगरों के पास सहायक के रूप में कार्य करते थे। सेवक या मजदूरों के रूप में कार्य करने वालों का एक बड़ा वर्ग भी शहरों में पाया जाता था।
नगरीय जनसांख्यिकी