BHIC- 133 ( ग्रामीण समाज ) Unit- 11 भारत का इतिहास C. 1206- 1707

BHIC- 133 ( ग्रामीण समाज ) Unit- 11 भारत का इतिहास C. 1206- 1707 / bhic- 133- gramin samaj- unit- 11 bharat ka itihas
Subject- IGNOU- BAG- 2nd year


bhic- 133- gramin samaj- unit- 11 bharat ka itihas


परिचय

दिल्ली सल्तनत की स्थापना के बाद कुछ नई तकनीकों के आने से सिंचाई व्यवस्था में बहुत सुधार हुए जिसकी वजह से नील और अंगूर जैसी नगदी फसलों का विकास हुआ। मोहम्मद हबीब इन परिवर्तनों को महत्वपूर्ण बताते हुए इससे ग्रामीण क्रांति की संज्ञा देते हैं।


दिल्ली सल्तनतकालीन कृषि उत्पादन

दिल्ली सल्तनत काल में कृषि योग्य भूमि मौजूद थे जिन पर कृषि नहीं होती थी। इसलिए खेती करने वाली भूमि पर अधिक निवेश किया गया जिससे ज्यादा फसल पैदा हो सके। निवेश का मतलब था। अधिक मजदूर, अधिक हल, अधिक खाद उर्वरक, अधिक सिंचाई के साधनों को उपलब्ध करवाना। कृषि योग्य भूमि की काफी मात्रा में उपलब्ध होने से दिल्ली सल्तनत में कृषि बहुत विस्तृत थी।

फसलें तथा अन्य कृषि उत्पादन

दिल्ली सल्तनत के अंतर्गत किसानों द्वारा बड़ी संख्या में फसलें उगाई जाती थी। एक ही भूमि पर रबी की फसल और खरीफ की फसल उगाई जाती थी।एक विवरण के अनुसार फसलों में गेहूं, धान, ज्वार, तथा नगदी फसलें जैसे कि गन्ना, कपास तेल आदि फसलें उगाई जाती थी। इस काल में अंगूर का उत्पादन भी अत्यधिक होता था।

नहर- सिंचाई व्यवस्था और उसका प्रभाव

उस समय कृषि ( वर्षा, नदियों और प्राकृतिक सिंचाई ) पर आधारित थी सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक और फिरोज तुगलक ने बड़े पैमाने पर नहरें बनवाएं इसी कारण से पंजाब में कृषि का बहुत ज्यादा विस्तार हुआ  नहरों के किनारे पर बड़े स्तर पर कृषि बस्तियां बस गई।

कृषक 

सल्तनत काल के समय में कृषि के बड़े बड़े भू- भागो के मालिक मुकद्दम थे कृषक जो भी फसल उगाता था उस पर उच्च वर्गों का अधिकार होता था बहुत से किसानों को अपनी इच्छा अनुसार स्थान बदलने या भूमि छोड़कर जाने के अधिकार से वंचित रखा गया था पटवारी एक गांव का अधिकारी होता था जो किसानों द्वारा राजस्व देने का हिसाब किताब रखता था। बरनी का मानना था। ग्राम समुदाय एक आदर्श संस्था नहीं थी इसके बजाय वह शोषण का एक यंत्र थी।

ग्रामीण मध्यस्थ वर्ग

मुकद्दाम और चौधरी गांव के कुलीन वर्ग से संबंधित थे। बरनी के अनुसार अलाउद्दीन के कृषि संबंधी उपाय से इस वर्ग के पास कर मुक्त भूमि होती थी। लेकिन अलाउद्दीन ने इस वर्ग पर भूमि कर लगाकर इसे सामान्य किसानों की तरह बना दिया। लेकिन यह वर्ग भूमि कर की वसूली में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था। इसलिए यह कठोर उपाय ज्यादा समय तक नहीं चला और गयासुद्दीन तुगलक ने दोबारा से इन्हें स्वयं की भूमि पर कर देने से छूट दे दी फिरोज तुगलक के समय में इस मध्यस्थ वर्गो को जमींदार के नाम से जाना जाने लगा। जो मुगल काल में अत्यधिक प्रचलित हुआ।

कृषि उत्पादन : मुगलकालीन

मुगल काल में राजस्व संसाधनों को बढ़ाने के लिए कृषि क्षेत्र का अत्यधिक विस्तार किया गया।

कृषि का विस्तार

भारत शुरू से ही एक कृषि प्रधान देश रहा है। जिसका ज्यादातर भाग कृषि के कार्य में काम आता था औरंगजेब के शासनकाल के आंकड़ों से यह कहा जा सकता है कि 1595 ई के बाद कृषि भूमि की बढ़ोतरी हुई। 16वीं शताब्दी से 20वीं शताब्दी में कृषि भूमि में दोगुना विस्तार आया। 

खेती के साधन और तरीके

भारत में खेती के लिए हल और बैल का ज्यादा इस्तेमाल होता था। मध्यकाल में लकड़ी के हल का प्रयोग होता था जिसमें लोहे के फाल लगे होते थे हल्के प्रयोग के बाद मिट्टी के ढेलों को बराबर करने के लिए एक तख्ते को रस्सी से खींचा जाता था। बीज को हाथों से बोया जाता था। खाद तथा मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के लिए पालतू जानवरों के मल का प्रयोग भी होता था। भारतीय किसान पूरे वर्ष फसल को बदल- बदल कर उगाते थे जिससे मिट्टी की उर्वरता शक्ति बनी रहे।

 सिंचाई के साधन 

भारतीय कृषि आज भी वर्षा पर निर्भर करती है लेकिन सिंचाई के अलग-अलग साधन भी उपलब्ध है मध्यकाल में सिंचाई के लिए कुँए तथा नहरों का निर्माण कराया गया था। कुँए से पानी रस्सी के सहारे खींचा जाता था। शाहजहां ने 150 मील लंबी फैज नामक नहर बनवाई थी।

मुगलकालीन फसलें

मिट्टी की प्राकृतिक के अनुसार उपज भी होती थी। कृषि के उत्पाद के प्रकार को तीन भागों में बांटा गया है।

1. खाद्यान्न फसलें

2. नगदी फसल

3. फल, सब्जी और मसाले

खाद्यान्न फसलें 

उत्तरी भारत में मौसम के अनुसार फसलों का उत्पादन किया जाता था। शीत ऋतु में खरीफ तथा बसंत में रबी। खरीफ फसल में धान तथा रबी में गेहूं आता है। गेहूं तथा चावल महत्वपूर्ण फसलें थीं। तटीय क्षेत्रों में एवं दक्षिण भारत में चावल का उत्पादन होता था , गेहूं के लिए खास इलाके थे- पंजाब, सिंधु, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, बिहार, दक्कन, गुजरात आदि।

नकदी फसलें

नकदी फसल उसे कहते हैं जो कच्चे माल के रूप में बाजार में सीधे-सीधे बिक जाए। इनमें गन्ना, कपास, नील, अफीम आते हैं आइन-ए-अकबरी के अनुसार आगरा, अवध, लाहौर, मुल्तान तथा इलाहाबाद में गन्ना उपजाया जाता था। कपास पूरे भारत में उपजाई जाती थी- महाराष्ट्र, अजमेर, गुजरात, बंगाल नील की खेती अवध, इलाहाबाद, अजमेर, दिल्ली, आगरा, लाहौर, मुल्तान आदि में होती थी। बिहार तथा मालवा में उच्च कोटि की अफीम पैदा की जाती थी।

फल, सब्जी और मसाले

मुगल सम्राटों ने अपने साम्राज्य में बागवानी को अत्यधिक महत्त्व दिया था। महल के आस- पास फलोद्यान लगाए जाते थे। काबुल से खरबूजे और अंगूर भी लाए जाते थे। भारत वैसे भी मसालों के लिए विश्वविख्यात रहा है। काली मिर्च, लौंग, इलायची तथा अदरक एवं हल्दी का खूब उत्पादन होता था। केसर कश्मीर में उपजाया जाता था।

पशु और पशुधन

किसानों के लिए धन का मतलब पशु होता है। किसानों की सबसे बड़ी संपत्ति उनके पशु होते हैं। कृषि से लेकर दूध, मांस आदि पशुओं से प्राप्त होता है। हबीब का कहना है कि आज की तुलना में पशुओं की संख्या मुगल काल में ज्यादा थी।

जमींदार

मुगल काल में प्रत्येक हिस्सों में जमींदार उपस्थित होते थे। कृषि संरचना में उनका महत्वपूर्ण स्थान था

जमींदारों के अधिकार

जमींदार जब से सरकार को राजस्व वसूलने में मदद करने लगे। उन्हें इस सेवा के लिए कुल राजस्व का एक खास प्रतिशत मिलने लगा जिसे नानकर  कहा जाता था। जोकि लगभग 10% होता था। इसके अलावा भी जमींदार किसानों से कई प्रकार के उपहार वसूल किया करते थे जैसे कि गृह कर। जमींदार अपने इलाकों में साप्ताहिक बाजारों से भी कर वसूला करते थे।


जमींदारों की सैन्य शक्ति

राजस्व वसूल करने के लिए जमींदारों को सैन्य शक्ति का प्रदर्शन करने का भी अधिकार था। जमींदार अपनी सुरक्षा तथा व्यवस्था को बनाए रखने के लिए भी सैन्य शक्ति का इस्तेमाल करते थे।

चौधरी

चौधरी को अन्य जमींदारों से कर वसूल करना होता था इसे भी राजस्व का एक अलग हिस्सा प्राप्त होता था। कुल वसूले गए राजस्व का 2.5 प्रतिशत चौधरियों की नियुक्ति राज्य द्वारा की जाती थी और सही ढंग से काम ना करने पर उन्हें हटाया भी जा सकता था।

कृषक वर्ग

किसान ग्रामीण समाज का मुख्य वर्ग होता था। इनका कर्तव्य था कर देना जिसके आधार पर पूरा शासन और राजतंत्र चलता था। कर देने वाला यह समूह हमेशा दरिद्रता में अपना जीवन व्यतीत करता था।

ग्रामीण समुदाय

गांव में विशिष्ट प्रभावशाली लोग मिलकर एक पंचायत बनाते थे। जो गांव की भूमि संबंधी विवादों को गांव में ही निपटा देते थे। ग्राम स्तर पर पंचायत सर्वोच्च संस्था थी। ग्राम स्तर पर कुछ समुदाय ऐसे भी थे जिनका कृषि से कोई संबंध नहीं था। जैसे महाजन, साहूकारयह किसानों को ब्याज पर ऋण देने का कार्य करती थी तथा लाभ प्राप्त करती थी।


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