BHIC- 133 ( भू- राजस्व ) Unit- 10 भारत का इतिहास C. 1206- 1707 / bhic- 133- bhoo- raajasv- unit- 10 bharat ka itihas
Subject- IGNOU- BAG- 2nd year
परिचय
दिल्ली सल्तनत के प्रारंभिक शासक द्वारा राजस्व प्रणाली में परिवर्तन किया गया। भूमि कर न देने वाले क्षेत्र मवास कहलाते थे। जो कर नहीं देता था उस पर सैनिक कार्यवाही करके, धमकी देकर उन्हें बाध्य किया जाता था। मुगल साम्राज्य की आय का प्रमुख स्रोत भू- राजस्व था।
खालसा
खालसा वह क्षेत्र जिसका राजस्व केवल सुल्तान के निजी कोष में जमा होता था। अलाउद्दीन खिलजी के शासन में खालसा क्षेत्र में काफी वृद्धि हुई। लेकिन फिरोज तुगलक के समय इस क्षेत्र में काफी घाटे हुए।मुगलों के अधीन में खालसा स्थिर नहीं थे यह हमेशा बदलते रहते थे अकबर के काल में यह कुल जमा का लगभग 25% थी लेकिन जहांगीर के काल में घटकर कुल जमा का 1/20 वहां हिस्सा रह गया।
दिल्ली सुल्तानों के अधीन भू- राजस्व और उसकी वसूली
सल्तनत की आज्ञा ना मानने वाले क्षेत्र मवास कहलाते थे। कर ना देने पर इनके ऊपर सैनिक कार्यवाही की जाती थी। साथ ही लूटमार और लड़ाई द्वारा वसूली की जाती थी।
अलाउद्दीन खिलजी की कृषि नीति
अलाउद्दीन खिलजी ने राज्य की आय को बढ़ाने के लिए बिचौलिए द्वारा वसूले गए मुनाफे को समाप्त कर दिया। तथा सीधे राजस्व वसूली करना शुरू कर दिया जो कि हमेशा नगद में होती थी। बरनी के अनुसार राजस्व वसूली में कड़ाई कर दी गई। जिसके कारण किसान अपनी फसल को खेतों में ही बेचने के लिए विवश हो गए।
अलाउद्दीन खिलजी का बाजार नियंत्रण
सुल्तान ने सभी वस्तुओं से लेकर वस्त्रों, दासो, मवेशियों की कीमतों को बलपूर्वक निर्धारित किया। एक बाजार नियंत्रक के रूप में खुफिया अधिकारी की नियुक्ति की। सुल्तान स्वयं प्रतिदिन सभी स्रोतों से जानकारी प्राप्त किया करता था। जमाखोरी पर प्रतिबंध लगा दिया।
दिल्ली सुल्तानों का राजस्व प्रशासन
किसानों से भूमि-कर (खराज) वसूला जाता था जिसे ( दीवान-ए विज़ारत ) के अधिकारियों के पास जमा कर दिया जाता था। उन्हें भी वसूली का एक भाग प्राप्त होता था, जिसे ( हक्क-ए खोती ) का अधिकार कहते थे। यह राशी उन्हें कर मुक्त भूमि के रूप में मिलती थी।इसके अतिरिक्त यह किसानों से भी उनकी उपज का कुछ भाग अलग से लेते थे, जिसे बरनी ( किस्मत-ए खोती ) कहते थे भूमि-कर के अलावा कृषक को गृह कर (घरी) और चरागाह कर (चराई) भी देना होता था।
मुगलकालीन भू- राजस्व व्यवस्था
मुगलों के समय में भू- राजस्व उत्पादन में हिस्सा प्राप्त किया जाता था। यह कर भूमि पर नहीं लगता था बल्कि उसके बजाय उत्पादन और उपज पर लगता था आइन-ए- अकबरी में यह कहा गया है कि यह राज्य की सुरक्षा के लिए एक शुल्क है खरीफ और रबी की फसलों पर राजस्व निर्धारण अलग अलग किया गया था।
भू- राजस्व मांग का परिणाम
मुगल कालीन भारत में राजस्व मांग की कोई सीमा न थी। यह मांग अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग थी। औरंगजेब ने कुल उत्पादन का आधा कर निर्धारित कर दिया था। भू -राजस्व कुल उत्पादकता का 1/2 था राजस्थान में यह दर जाति और वर्ग के आधार पर निर्धारित किया गया था।
भुगतान का माध्यम
किसानों से नगद रूप में राजस्व का भुगतान होता था। साम्राज्य के सभी भागों में नगदी व्यवस्था स्थापित की गई थी।
भू- राजस्व वसूली
कटाई के समय राज्य अपना हिस्सा वसूल कर लेता था। अबू फजल का मानना था कि रबी की फसल की वसूली होली और खरीफ की दशहरे में शुरू हो जानी चाहिए
राजस्व में राहत/ रियायतें
किसानों से राजस्व वसूली निर्दय तरीके से की जाती थी। बकाया राशि को अगले वर्ष में जोड़ दिया जाता था और किसानों के भाग जाने पर पड़ोसियों से कर वसूल किया जाता था। लेकिन प्राकृतिक आपदा के लिए किसानों को थोड़ी बहुत छूट दी गई थी। ऋण के रूप में बीज और पशुधन उपलब्ध कराया जाता था, और यह ऋण ब्याज मुक्त होता था जिसे फसल की कटाई के समय चुकाना होता था इस ऋण को ' तकावी' कहते थे। किसानों की सुविधा के लिए कुएं खुदवाए जाते थे साथ ही जो कुएं टूट चुके थे उनकी मरम्मत भी करवाई जाती थी।
मुगलों का भू-राजस्व प्रशासन
भू -राजस्व को इकट्ठा करने के लिए अधिकारी, कर्मचारी और प्रतिनिधि
1. करोड़ी - यह मुख्य अधिकारी था जिसका कर्तव्य राजस्व निर्धारण एवं वसूली करना दोनों था।
2. अमीन - अमीन के पद की शरुआत शाहजहां के काल में हुआ था, जिसका काम केवल राजस्व निर्धारण करना था
3. कानूनगो - यह स्थानीय अधिकारी होता था जिसका काम लेखा- जोखा करना होता था
4. चौधरी - यह राजस्व पदाधिकारी होता था इसका काम केवल कर वसूली में मदद करना होता था।
5. मुकद्दम एवं पटवारी - ये दोनों ग्रामीण स्तर के अधिकारी थे। मुकद्दम गाँव का मुखिया होता था। अपनी सेवा के बदले में उसके द्वारा वसूले गए राजस्व में से 2.5% हिस्सा उसे प्राप्त होता था।
दिल्ली सुल्तानों की मुद्रा प्रणाली
दिल्ली सल्तनत की स्थापना के साथ ही मुद्रा अर्थव्यवस्था में अत्यधिक वृद्धि हुई सोने, चांदी और तांबे के सिक्के जारी किए गए शुरुआती सिक्कों पर लक्ष्मी देवी या बेल की आकृतियां बनी होती थी और इनके ऊपर नए शासक का नाम नागरी लिपि में लिखा हुआ होता था। जिन्हें देहलीवान सिक्के कहा गया। अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल तक चांदी की मुद्राएं प्रमुख थी। जबकि गियासुद्दीन तुगलक और मोहम्मद तुगलक के समय सोने के सिक्के प्रमुख हो गए।
मुगलों की मुद्रा व्यवस्था
मुगलकालीन में मुद्रा की शुद्धता पर ज्यादा बल दिया जाता था।
मुद्रा प्रणाली
मुगल काल में तीन तरह के सिक्के बनाए जाते थे। सोना, चांदी और तांबा चांदी के सिक्कों का ज्यादा प्रयोग होता था। व्यापार तथा राजस्व में चांदी के सिक्कों का ही प्रयोग होता था। स्वर्ण मुद्राओं को अशर्फी या मुहर कहा जाता था। सोने के सिक्के का प्रयोग कम होता था। ज्यादातर सोने के सिक्कों को संचय कर लिया जाता था या फिर उपहार के रूप में दिया जाता था। तांबे के सिक्कों को दाम कहा जाता था यह आम प्रचलन में प्रयोग होता था।
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