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BHIC- 133 ( भक्ति और सूफी परंपराएं ) Unit- 16 भारत का इतिहास C. 1206- 1707


Today Topic- BHIC- 133 ( भक्ति और सूफी परंपराएं ) Unit- 16 भारत का इतिहास C. 1206 1707 / bhic 133 - bhakti aur sophe paramparaye unit - 16 bharat ka itihas

Subject- IGNOU- BAG- 2nd year 


bhakti aur sophe paramparaye- unit- 16 bharat ka itihas

दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन की पृष्ठभूमि

सातवीं और दसवीं शताब्दी के बीच दक्षिण भारत के ( शिव के भक्त नयनार ) (विष्णु के भक्त आलवार) संतो ने बिना किसी भेदभाव के भक्ति धर्म का प्रचार किया इन संतो द्वारा राज्य के भक्ति गीत संस्कृत की बजाय तमिल में थे वह घूमकर, नाच गाकर भक्ति का प्रसार किया करते थे इन धर्मों को दक्षिण भारतीय राजाओं का संरक्षण प्राप्त था। कुछ संत महिलाएं निम्न जातियों से भी संबंधित थी इन आंदोलनों ने कभी भी सामाजिक स्तर पर ब्राह्मण धर्म की वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था का विरोध नहीं किया।

उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन

सल्तनत काल के दौरान उभरा यह भक्ति आंदोलन किसी ना किसी दक्षिण भारतीय वैष्णव आचार्य के साथ रहा है। उत्तर भारत के अधिकतर भक्ति आंदोलन दक्षिण भारतीय भक्ति आंदोलन के समान थे किंतु जाति व्यवस्था और ब्राह्मण विशेष अधिकारों को कभी चुनौती नहीं दी गई। इसी तरह से महाराष्ट्र की भक्ति,  बंगाल के वैष्णव आंदोलन से अलग थी उत्तर भारत के रामानंद, बल्लभ, सूरदास और तुलसीदास के भक्ति आंदोलन का अलग ही रूप था 14वी और 17 वी शताब्दी के मध्य उदय हुए सभी भक्ति आंदोलन का नेतृत्व छोटी जातियों के संत  जैसे कि कबीर, नानक, सूरदास आदि के द्वारा हो रहा था।

भक्ति आंदोलन का उदय

उत्तर भारत में 14वी से 17वी शताब्दी के मध्य भक्ति आंदोलन के उदय होने के अनेक राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक कारण थे। मुस्लिम शासकों के बर्बर शासन से एवं उनके अत्याचारों से ग्रस्त होकर जनता ने ईश्वर की शरण में अपने आप को अधिक सुरक्षित महसूस करने के लिए भक्ति मार्ग का सहारा लिया।हिंदू एवं मुस्लिम जनता आपस में सांस्कृतिक संपर्क से दोनों के बीच सहानुभूति और सहयोग की भावना का विकास हुआ। इसी कारण से भक्ति आंदोलन के विकास में सहयोग मिला हिंदुओं ने सूफियों की तरह एकेश्वरवाद में विश्वास करते हुए ऊंच नीच और जात पात का विरोध किया। मुस्लिम शासकों द्वारा मूर्तियों को नष्ट कर देने पर बिना मूर्ति के और मंदिर के ईश्वर की आराधना करने के लिए लोगों का झुकाव भक्ति का सहारा लेना पड़ा

प्रमुख लोकप्रिय आंदोलन और उनकी विशेषताएं

इसके अंतर्गत उत्तर भारत, महाराष्ट्र और बंगाल में हुए प्रमुख एकेश्वरवादी और वैष्णव आंदोलनों की चर्चा की गई। (भारत का एकेश्वरवाद आंदोलन) 15वीं शताब्दी के एकेश्वरवादी आंदोलनों में कबीर का वर्णन सर्वप्रथम होता है, जो बुनकरों के परिवार से संबंधित थे। कबीर ने काफी जीवन काशी में बिताया। कबीर के बाद की पीढ़ी का प्रतिनिधित्व रैदास या रविदास करते हैं। उन्होंने भी बनारस में अपना जीवन बिताया और वे कबीर के विचारों से प्रभावित थे।

सिख धर्म

सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक जी का जन्म पंजाब के एक परिवार में हुआ था उन्होंने भी कबीर और अन्य एकेश्वरवादियों के समान ही अपने मत का प्रचार किया। उन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया उनके अनुसार मुक्ति के लिए एक सच्चे गुरु का होना आवश्यक है। जाति प्रथा का विरोध किया और पुरुष वे नारी की समानता का समर्थन किया , कीर्तन और सत्संग पर बल दिया ,सांप्रदायिक भोज ( लंगर ) की शुरुआत की

सामान स्वरूपगत विशेषताएं

एकेश्वरवादी आंदोलन से जुड़े सभी संतो की शिक्षा में कुछ समानताएं हैं अधिकांश एकेश्वरवादी छोटी जातियों से संबंधित थे। वह एक दूसरे के विचारों का सम्मान भी करते थे। कबीर ने रैदास को संतों का संत कहकर सम्मान भी दिया था। रैदास ने भी सम्मानपूर्वक कबीर, नामदेव, त्रिलोचन कहा थानानक कबीर से अत्यंत प्रभावित थे एकेश्वरवादी ने हिंदू और इस्लाम दोनों धर्मों से अपने धर्म को अलग रखा ज्यादातर एकेश्वरवादी संत सन्यासी नहीं थे वे ग्रहस्त जीवन बिताते हुए लोगों के बीच रहकर उपदेश दिया करते थे। एकेश्वरवादी संत अपने मत का प्रचार करने के लिए हमेशा यात्रा किया करते थे

अन्य प्रदेशों में भक्ति आंदोलन 

14वीं शताब्दी के दौरान कश्मीर में शैव भक्ति का प्रसार हुआ जिसके प्रमुख संतों में लाल देद नामक महिला आती हैं। गुजरात में भक्ति का प्रचार वल्लभाचार्य और उनके वल्लभ संप्रदाय द्वारा हुआ था, जो गुजरात के व्यापारियों और ज़मींदारों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ। शंकरदेव ने 'सात्रा' नाम से एक संस्था की भी स्थापना की।


सूफी मत की विशेषताएं

सूफी संतों ने राजनीतिक वर्ग से दूरी बनाए रखें तथा किसी भी शासक का संरक्षण स्वीकार नहीं किया सूफी संतों ने जाति प्रथा, अस्पृश्यता, लिंगभेद आदि का विरोध किया। साधारण जीवन पर बल दिया संतो ने सन्यास के बजाय घर ग्रस्ती जीवन जीते हुए अपने कार्य किए सूफी संतों ने साहित्य और संगीत के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।


भारत में सूफी मत का विकास

भारत में सूफी संप्रदायों का विकास दिल्ली सल्तनत की स्थापना के बाद हुआ 13वीं शताब्दी में इस्लामी दुनिया पर मंगोलों के अधिकार के बाद सूफी संत भागकर सीधे भारत आ गए और धीरे-धीरे पूरे भारत में सक्रिय हो गए।

सल्तनत काल के दौरान सूफी सिलसिले

भारत में सल्तनत काल के दौरान लोकप्रिय सिलसिले कई सारे थे जिनमें से प्रमुख है, चिश्ती, सुहरावर्दी, कादिरी

सुहरावर्दी सिलसिला

सुहरावर्दी सिलसिला सल्तनत काल का प्रधान सूफी सिलसिला था। भारत में इसके संस्थापक शेख बहाउद्दीन जकरिया (1182-1262) थे। शेख शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी के शिष्य थे, जिन्होंने बगदाद में इस सिलसिले की शुरुआत की थी। शेख शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी के आदेश से शेख बहाउद्दीन जकरिया भारत आए। मुल्तान और सिंध को उन्होंने अपनी गतिविधि का केंद्र बनाया। उन्होंने मुल्तान में जिस खानकाह की स्थापना की उसकी गिनती भारत में स्थापित आरंभिक खानकाहों में होती है। शेख शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी ने शेख बहाउद्दीन जकरिया के अलावा कई अन्य खलीफाओं (प्रमुख शिष्य) को सुहरावर्दी सिलसिला के प्रचार- प्रसार के लिए भारत भेजा। शेख जलालुद्दीन तबरीजी उन्हीं में से एक थे।


चिश्ती सिलसिला

भारत में स्थापित सूफ़ी संप्रदाय में चिश्ती संप्रदाय सबसे लोकप्रिय था। सल्तनत काल में चिश्ती संप्रदाय का विकास दो चरणों में  हुआ। प्रथम चरण में यह ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती द्वारा भारत में स्थापित हुआ। दूसरे चरण की शुरुआत 15वीं- 16वीं शताब्दी में पूरे देश में प्रसार से हुई। शेख नसीरुद्दीन की मृत्यु के बाद यह दिल्ली से बिखरकर विभिन्न क्षेत्रीय राज्यों में फैल गया।


 प्रथम चरण 

भारत में सूफी आंदोलन के तहत सभी सूफी संप्रदायों में चिश्ती संप्रदाय सबसे लोकप्रिय था। इसका प्रारंभ हेरात में हुआ था। ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती ने भारत में इस संप्रदाय की स्थापना की वे गौरी के आक्रमण के समय भारत आये। 1206 में अंतिम रूप से वे अजमेर में बस गए और उन्हें मुसलमानों और गैर- मुसलमानों सभी का आदर प्राप्त हुआ।  उनके कार्यकलापों का कोई प्रमाणिक दस्तावेज उपलब्ध नहीं है।

दूसरे चरण 

दूसरे चरण की शुरुआत 15वीं-16वीं शताब्दी में पूरे देश में इसके और प्रसार से हुई। शेख नसीरुद्दीन की मृत्यु के बाद यह दिल्ली से बिखरकर विभिन्न क्षेत्रीय राज्यों में फैल गया। दक्खन में चिश्ती संप्रदाय की स्थापना शेख बुरहनुद्दीन गरीब ने की। बाद में, कई सूफ़ी चिश्ती बहमनी राज्य की राजधानी गुलबर्गा जाकर बस गए।

नक्शबंदी सिलसिला

नक्शबंदी सिलसिले के संस्थापक ख्वाजा बहाउद्दीन नक्शबंदी थे। इस संप्रदाय के सातवें उत्तराधिकारी ख्वाजा बाकी बिल्लाह ने भारत में इस संप्रदाय की नींव रखी। इस सिलसिले के संतों ने  इस्लाम के कानून (शरियत) पर काफी बल दिया। बिल्लाह के प्रमुख शिष्य शेख अहमद ने वहदत-उल वुजूद का विरोध किया

चिश्ती सिलसिला की लोकप्रियता का कारण

चिश्ती संप्रदाय निम्नलिखित कारणों से लोकप्रिय था। चिश्ती संप्रदाय की कई परंपराओं का भारतीय परंपराओं से मिलना। चिश्ती खानकाह में भारतीय समाज के निचले वर्ग को बराबर सम्मान देना। चिश्ती गुरुओं द्वारा नेतृत्व प्रदान करना तथा राज्य का संरक्षण अस्वीकार करना






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