B.A. FIRST YEAR ( HISTORY ) Chapter- 7 IGNOU- BHIC 131 भारत का इतिहास (प्रारंभ से 300 ई. तक)- ताम्र पाषाण तथा प्रारंभिक लौह युग




परिचय 

शताब्दी ईसा पूर्व की दूसरी शताब्दी तक भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में विभिन्न क्षेत्रीय संस्कृतिया अस्तित्व में आई ये संस्कृति न तो शहरी थी और न ही हड़प्पा संस्कृति की तरह थी,पत्थर एवं तांबे के औजारों का इस्तेमाल इन संस्कृतियों की अपनी अलग विशेषता थी ताम्रपाषाण संस्कृति या अपनी भौगोलिक स्थितियों के आधार पर पहचानी जाती हैं राजस्थान में बानस संस्कृति नर्मदा, ताप्ती नदी के पास कायथ संस्कृति मालवा संस्कृति जो मध्य प्रदेश एवं महाराष्ट्र के अन्य भागों में मिली



गेरुए चित्रित बर्तनों की संस्कृति

उत्तर प्रदेश के बिसौली और बिमौर से गेरुए चित्र बर्तन मिले यह बर्तन सामान्य रूप से नदी के तट से प्राप्त हुए आकार में कई छोटे तथा बड़े हैं इस संस्कृति का काल 2000 से 1500 ईसा पूर्व माना गया है गेरुए बर्तन वाली संस्कृति के मुख्य भौतिक अवशेष बर्तन ही है इन बर्तनों में सुराही, प्याले, छोटे बर्तन, टोटी वाले बर्तन आदि प्रमुख हैं अन्य वस्तुओं में मिट्टी के मनके, पक्की मिट्टी की चूड़ियां, गाड़ी के पहिए के अवशेष मिले हैं


काले एवं लाल मृदभांड संस्कृति

अतिरंजीखेडा में 1960 के दशक के दौरान खुदाई से विशेष प्रकार के मृदभांड मिले इन्हें काला एवं लाल मृदभांड कहा जाता है बर्तनों के विशेष लक्षण यह है कि उनके अंदर के भाग तथा बाहर के भाग में किनारा काले रंग तथा शेष लाल रंग का है बर्तन चाक पर बनाए गए हैं कुछ बर्तन हाथ से भी बनाए गए हैं


चित्रित धूसर मृदभांड की संस्कृति

अहिक्षेत्र में इस संस्कृति को 1946 में पहली बार खोजा गया इसके बाद काफी संख्या में स्थल प्रकाश में आए इनमें से 30 स्थानों की खुदाई हो चुकी है। इनमें रोपड़, भगवानपुरा, आलमगीरपुर, हस्तिनापुर, जखेड़ा, मथुरा इत्यादि प्रमुख हैं। इस संस्कृति के क्षेत्रों की बीच की दूरी 10 से 12 किलोमीटर से अधिक नहीं है। यहां खुदाई से ताम्र, लोहा, कांच तथा हड्डियों की वस्तुएं प्राप्त हुई यहां घरों का आकार गोलाकार एवं आयताकार था। फसलों में चावल गेहूं और जो तथा पशुओं में गाय बैल भैंस सूअर बकरी हिरण आदि के अवशेष प्राप्त हुए।


उत्तरी काली पॉलिश वाली मृदभांड संस्कृति

यह संस्कृति सर्वप्रथम तक्षशिला में 1930 में मिली परंतु इस संस्कृति कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में बहुतायत है इसका उद्गम क्षेत्र यहीं से माना जाता है बाद में व्यापारियों तथा बौद्ध भिक्षु के द्वारा  गंगा घाटी में इसे फैला दिया गया


भवनों के अवशेष 

उत्खनन से पता चलता है कि इसकाल के दौरान मकान बनाने का काम बड़े स्तर पर होता था कौशांबी से इसके प्रमाण मिले यही से ईटों के फर्श वाले रास्ते तथा गलियां मिली मकानों में लकड़ी का प्रयोग पर्याप्त मात्रा में हुआ इमारतों को योजनाबद्ध तरीके से बनाया जाता था


बर्तन 

उत्तरी काली पोलीस वाले मृदभांड की मुख्य विशेषता इसका चमकदार ऊपरी भाग है यह बर्तन चाक पर बनाए जाते थे कुछ बर्तन सुनहरे, सफेद, गुलाबी, इसपाती नीले तथा भूरे रंग में ही पाए गए


अन्य वस्तुएं 

इस संस्कृति के क्षेत्रों में ताम्र, सोने ,लोहे, चांदी, पत्थर, कांच, हड्डी के विभिन्न प्रकार के औजार गहने तथा अन्य वस्तुएं प्राप्त हुई जैसे छेनी, चाकू, सुईया, पिने सलाइयां आदि


गहने 

पत्थरों, कांच, चिकनी मिट्टी, ताम्र तथा हड्डियों की मालाएं सामान्य रूप से प्रचलित थी यह चौकोर गोलाकार आदि हुआ करती थी 


मिट्टी की मूर्तियां 

मिट्टी की मूर्तियों में मानव तथा पशुओं की मूर्तियां प्रमुख है पुरुषों की मूर्तियां सादी हैं महिलाओं की मूर्तियां सर के पहनावे, कान के गहने, हार आदि से सुसज्जित हैं


जीवनयापन तथा व्यापार 

पुरातात्विक साक्ष्यों से पता चला है इन क्षेत्रों में धान, जो, मटर, बाजरा काले चने आदि की कृषि होती थी गाय, बैल, भेड़, बकरियां पाली जाती थी विभिन्न प्रकार की मालाएं व्यापारिक गतिविधियों की ओर संकेत करती हैं तक्षशिला, कौशांबी, अहिक्षेत्र, श्रावस्ती के बीच व्यापारिक संबंध रहते होंगे छठी तथा चौथी सदी ईसा पूर्व के बीच भारत, बेबिलोनिया, सीरिया, सुमेर के बीच व्यापार होता था



भारत में लौह युग

लोहे का प्रयोग भारत में लगभग 1100 ई.पू. में आरंभ हुआ लौह युग का प्राचीनतम चरण पिकलीहल तथा हल्लूर की खुदाई तथा बहमगिरी के शव दफनाने वाले स्थान के आधार पर निश्चित किया गया है लौह युग के बारे में अधिकांश जानकारी महापाषाण कालीन कब्रों की खुदाई से मिली हैं कब्रों से काले और लाल मृदभांड मिले तश्तरी, प्याले, घुंडी वाले बर्तन, बर्तन रखने के लिए गोलाकार स्टैंड इत्यादि मिले



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