B.A- HINDI HONS हिंदी भाषा और उसकी लिपि का इतिहास- Semester- 1st Complete Unit- 1st Notes In Hindi


भारोपीय भाषा परिवार एवं आर्यभाषाएँ 

परिचय

विश्व में 4000 से भी अधिक भाषाएँ बोली जाती है। एक दूसरे से जुड़ी भाषाओं को भाषा परिवार कहा जाता है। एक स्थान से जुड़ी भाषाएँ एक भाषा परिवार कहलाती हैं भारतीय भाषाओं को 4 वर्गों में विभाजित किया गया है।

4 मुख्य भाषा परिवार

1. औस्ट्रिक भाषा परिवार

ईरान से जो लोग भारत में आए तो वो सुदूर भारत में जाकर फैल गए उनके साथ जो बोलिया आई जैसे :-संथाली, मुंडारी आदि ऑस्ट्रिया परिवार में गिनी जाती है।

2. तिब्बत चीनी परिवार 

इस परिवार में तिब्बत और हिमालयी भाषाएँ आती है। इसमें उत्तरी असम और उसके आस- पास की सभी भाषाएँ इस परिवार में शामिल है।

3. द्रविड़ परिवार

यह दक्षिण की भाषाओं का परिवार है इसमें दक्षिण की चार मुख्य भाषाएँ तमिल,तेलुगु, कन्नड़, मलयालम और अन्य भाषाएँ इसमें सम्मिलित है।

4. भारोपीय परिवार

यह सबसे बड़ा भाषा परिवार है क्योंकि इसमें भारत और यूरोप दोनों की भाषाओं का समिश्रण है। इसीलिए भारत, यूरोपीय भाषा न कहकर भारोपीय भाषा परिवार कहा जाता है।


भारोपीय भाषा परिवार के अन्य नाम

इंडो जर्मनिक परिवार

इंडो केल्टिक परिवार

भारत -यूरोपीय /भारोपीय

भारत- हित्ती आदि।

इसका सबसे प्रचलित नाम भारोपीय ही है।


सतम् वर्ग की शाखाएं

1. इलिरियन 

इसकी प्रमुख भाषा अल्बेनियम है। यह अल्बेनिया और यूनान के कुछ भागों में बोली जाती है। 

2. बाल्टिक 

लिथुआनिया की लिथुआनिन और लाटविया की लोटीश मुख्य भाषाएँ है। इनकी मुख्य विशेषता है कि ये संगीतात्मक होते है और इनमे स्वरों का आघात होता है।

3. स्लाविक

रूस के दक्षिण भाग में श्वेत रूसी, युक्रेन में लघु रूसी पश्चिमी भाग के पोलैंड में पोलिश चेकोस्लोवाकिया में चेक तथा दक्षिणी भाग के बल्गारिया में बल्कगरियन, यूगोस्लाविया में सर्बो क्रोशियन

4. आर्मीनियन

इसकी 2 मुख्य बोलिया है- यह आर्मीनिया की भाषा है  यूरोप में स्तंबुल एशिया में अरारा 

5. आर्य 

इसे भारत-ईरानी शाखा भी कहते है। इसकी 2 उपशाखाएँ है-

1. भारतीय

2. ईरानी 


केन्तुम वर्ग की शाखाएं :-

1. केल्टिक

इस शाखा की भाषाएँ आयरलैंड, वेल्स और स्कॉटलैंड आदि क्षेत्रों में बोली जाती है। दो हज़ार वर्ष पहले इसका प्रयोग यूरोप के एक बड़े भाग में 

2. जर्मनिक

आइसलैंड , डेनमार्क , नार्वे, स्वीडन, इंग्लैंड, जर्मनी, हॉलैंड, बेल्जियम।

3. इटैलिक 

 इटैलिक/इतालवी ,रोम,फ्रांस,स्पेन ,पुर्तगाल। इस वर्ग की भाषाओँ का विकास लैटिन से हुआ |

4. ग्रीक

इसका क्षेत्र विस्तार यूनान,यूगोस्लाविया, बल्गारिया, अल्बरिया और साइप्रस तक है। यह संस्कृत के निकट है और इसमें समास तथा लिंग भी रहे है।

5. तोखरी 

यह ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से ,ईसा पूर्व सातवी शताब्दी तक मध्य एशिया के तुर्फान प्रदेश में बोली जाने वाली भाषा है। यह संधि ,विभक्ति और शब्द -समूह की दृष्टि से संस्कृत के निकट है यह सब प्राचीनतम रूप है और भारोपीय परिवार सबसे प्राचीनतम परिवार है।


भारोपीय परिवार का महत्व

भारोपीय परिवार का महत्व सर्वाधिक भौगोलिक क्षेत्रफल भाषा- भाषियों की सर्वाधिक संख्या बोलियों की संख्या बहुत अधिक साहित्य रचना की दृष्टि से सम्पन्न और समृद्ध भाषा विज्ञान,नाट्यशास्त्र, काव्यशास्त्र की समृद्ध परंपरा 

भारतीय आर्य भाषाएँ

उत्तर भारत की आर्य भाषाओँ में संस्कृत सबसे प्राचीन हिंदी संस्कृत की उत्तराधिकारिणी

प्राचीन भारतीय भाषाएँ (1500 ई. पू. से 500 ई. पू. तक)

(क) वैदिक संस्कृत 

सभी भाषाओं की जननी संस्कृत का जन्म भी वैदिक संस्कृत से हुआ है। इसमें सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद है ।

वैदिक संस्कृत की विशेषता

उपसर्गों का प्रयोग मूल शब्द के साथ जोड़कर किया गया और मूल शब्द से हट कर स्वतंत्र रूप से भी किये गए।

उदाहरण :- अभिभावक --- संस्कृत में - अभि ग्रहणाति

वैदिक संस्कृत में तीनों वचन मिलते है तथा तीन लिंग भी मिलते है : (पुल्लिंग, स्त्रीलिंग,नपुंसकलिंग)संश्लिष्ट और योगात्मक भाषा है।

वैदिक संस्कृत में ए,ऊ, ई, के अतिरिक्त लृ को भी स्वर माना जाता रहा  है। जबकि लौकिक संस्कृत में लृ का लोप हो जाता है। 


(ख) लौकिक संस्कृत

लौकिक संस्कृत 

बोलचाल की भाषा 8 वीं शताब्दी ईसा पूर्व इसका प्रयोग साहित्य में होने लगा रामायण , महाभारत (संस्कृत में ) रचनाकार – वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, माघ, भारवी, अश्वघोष, भवभूति, विशाख, दंडी, श्रीहर्ष 

लौकिक संस्कृत की विशेषता 

लौकिक संस्कृत को देवभाषा/देव वाणी  कहा गया रामायण, महाभारत, पुराण, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रन्थ की रचना हुई हमारा दर्शनशास्त्र लौकिक संस्कृत में है।नाटक लेखन की परंपरा और काव्य लेखन की परंपरा चालू हुई।उदाहरण :- कालिदास का नाटक 'अभिज्ञानशकुन्तलम, भाष के नाटक आदि। 


संस्कृत

संस्कृत एक समृद्ध भाषा मानी जाती है क्योकि इसका एक अपना व्याकरण है। संस्कृत में ही काव्यशास्त्र की परंपरा आचार्य भरतमुनि से लेकर 15वी -16वी आगे चलती रही। साहित्यिक भाषा के साथ -साथ जन भाषा भी प्रचलन में रहती है। यह भाषा बोलियों से विकसित होती है,यह जनता के हृदय के अधिक निकट होती है।जब लौकिक संस्कृत अभिजात्य वर्ग की भाषा बन गयी उस समय समाज में जनभाषा के रूप में जो आयी वह थी पालि और प्राकृत

मध्यकालीन भारतीय भाषाएँ (500 ई.पू.से 1000ई. तक)

(क) पालि

500 ई. पू. में ही जब गौतम बुद्ध आए तब उस समय संस्कृत भाषा अपने चरम पर थी । जो भी रचनाएँ की जा रही थी वह संस्कृत में की जा रही थी। गौतम बुद्ध ने सामान्य तक अपने उपदेश  देने के लिए पालि भाषा को अपनाया , उन्होंने 'पालि' भाषा में ही अपने उपदेश दिए। बुद्ध का 'धम्म' भी पालि भाषा में है।(500 ई. पू. से प्रथम शताब्दी ई. तक साहित्य की भाषा के रूप में इसे स्थान मिला।)यह भाषा पहली ईस्वी तक रही 

पालि भाषा की विशेषता

वैदिक व लौकिक संस्कृत के स्वर लृ, ऋ पालि में प्रचलन में नहीं रहे। संस्कृत में तीन संधिया थी - स्वर संधि,व्यंजन संधि,विसर्ग संधि पर पालि में विसर्ग संधि प्रचलन में नहीं रही। संस्कृत में ऐ और औ का प्रचलन पालि में नहीं रहा। उदाहरण:- कैलाश शब्द पालि में केलास हो गया। गौतम – गोतम , संस्कृत में तीन वचन थे पालि में 2 वचन हो गए। पालि भाषा में तद्भव शब्दों की बहुलता मिलती है।

(ख) प्राकृत 

जिस तरह से बुद्ध ने अपने उपदेशो को पहुँचाने के लिए पालि भाषा को अपनाया उसी तरह से महावीर स्वामी ने जैन धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए अपने उपदेश प्राकृत भाषा में दिए। प्राकृत भाषा का भी मध्यकाल में अनेक रूप मिलता है मागधी प्राकृत, अर्धमागधी प्राकृत( जैन साहित्य की भाषा) , शौरसेनी प्राकृत, महाराष्ट्री प्राकृत, पैशाची प्राकृत ( सिंध की तरफ बोली जाती है)हर रूप की अपनी विशेषता है महावीर स्वामी ने जैन धर्म का उपदेश अर्धमागधी प्राकृत में दिया है। प्राकृत भाषा में स्वरों की बहुलता है मध्य व्यंजन का लोप मिलता है। उदाहरण :- रिपु - रियु

(ग) अपभ्रंश 

पालि के बाद प्राकृत उसके समानान्तर चली और यही पालि ,प्राकृत आगे चलकर अपभ्रंश भाषा मध्यकाल में ही साहित्य के रूप में प्रचलन में आई। अपभ्रंश भाषा का शुरुआत में हास्य किया गया बाद में इसे भ्रष्टभाषा (संस्कृत का विकृत रूप) नाम दिया गया।यही अपभ्रंश आगे चलकर अवहट्ट और आगे पुरानी हिंदी के नाम से जानी गयी जिसे देसी भाषा भी कहा जाता है। हिंदी का उद्भव अपभ्रंश से हो रहा है। अतः हिंदी अपभ्रंश से ही विकसित हुई है। अपभ्रंश की विशेषता अपभ्रंश भाषा उकार बहुला है क्योंकि इसके अंत में 'उ' का प्रयोग होता है।

उदाहरण:- जग-जगु० अपभ्रंश में मूर्धन्य 'ष' और तालव्य 'श' दोनों के स्थान पर दन्त्य 'स' का प्रयोग अधिक मिलता है। 'य' के स्थान पर 'ज' का अधिक प्रयोग होता है। उदाहरण:- यमुना – जमुना , युगल – जुगल संस्कृत में तीन लिंग थे अपभ्रंश में 2 लिंग हो गए। संस्कृत में तीन वचन थे अपभ्रंश में आते-आते दो वचन हो गए।(एकवचन और बहुवचन) तद्भव शब्दो की बहुलता हेमछन्द का व्याकरण सर्वाधिक प्रसिद्ध व्याकरण बना क्योकि यह अपभ्रंश में लिखा है।

अपभ्रंश भाषा के अनेक रूप

  • शौरसेनी अपभ्रंश
  • पैशाची अपभ्रंश
  • ब्राचड़ अपभ्रंश 
  • खस अपभ्रंश 
  • महाराष्ट्री अपभ्रंश 
  • अर्धमागधी अपभ्रंश
  • मागधी अपभ्रंश 

1000 ई. के आसपास अपभ्रंश के विभिन्न क्षेत्रीय रूपों से आधुनिक आर्यभाषाओं का जन्म हुआ आर्यभाषाएँ जिनमे हिंदी भीं शामिल है , का जन्म 1000 ई. के आसपास ही हुआ था आधुनिक आर्यभाषाओं का जन्म अपभ्रंशों के विभिन्न क्षेत्रीय रूपों से इस प्रकार से माना जाता है



हिंदी का आरंभिक रूप

परिचय

हिंदी भाषा का इतिहास बहुत प्राचीन है। सामान्यतः प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश- अवस्था से ही हिंदी साहित्य का आरंभ स्वीकार किया जाता है। उस समय अपभ्रंश के कई रूप थे और उनमें सातवी- आठवीं शताब्दी से ही पद्य रचना आरम्भ हो गयी थी। अपभ्रंश शब्द का प्रयोग सबसे पहला प्रयोग छठी शताब्दी में प्राकृत वैयाकरण चंड की रचना 'प्राकृत लाक्षणम्' में मिलता है।

इसी शताब्दी में भामह ने भी काव्यालंकार में अपभ्रंश का उल्लेख किया। स्पष्ट है कि छठी शताब्दी में 'अपभ्रंश' शब्द का प्रयोग 'भाषा'  के अर्थ में मिलने लगा । अपभ्रंश की रचनाओं के प्रथम उदाहण स्वयंभू और सरहपा की रचनाओं में ही मिलते है। आठवी शताब्दी और उसके पहले जिस भाषा का प्रयोग होता था उसके लिए आठवी शताब्दी तक अवहत्थ,अवव्भंश, अवहंस, देशी भाषा आदि नाम प्रचलन में आ गए थे।

सामान्यत : 'तेरहवी-चौदहवी शताब्दी तक की भाषा को हिंदी का आरम्भिक रूप माना जा सकता है चौदहवी शताब्दी में ज्योतिश्वर ठाकुर और विद्यापति ने भी 'अवहट्ठ ' शब्द का प्रयोग किया है। चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' ने विक्रम की सातवीं से ग्यारहवीं शताब्दी तक की भाषा को अपभ्रंश और परवर्ती अपभ्रंश को 'पुरानी हिंदी' कहा। वे लिखते है:- "विक्रम की सातवीं शताब्दी से ग्यारहवीं तक अपभ्रंश की प्रधानता रही और वह पुरानी हिंदी में परिणत हो गयी। गुलेरी के अनुसार पुरानी अपभ्रंश संस्कृत और प्राकृत से मिलती है और परवर्ती अपभ्रंश पुरानी हिंदी से। सरहपा को हिंदी का पहला कवि कहा जाता है। गुलेरी जी ने जिसे 'हिंदी' कहा उसी को राहुल सांकृत्यायन जी ने 'हिंदी' कहा । क्योंकि उनका मानना है कि पालि और प्राकृत प्रायः संस्कृत का अनुकरण करती है पर अपभ्रंश में ऐसा नहीं है

ग्यारहवीं - बारहवी शताब्दी तक आते -आते यह साहित्यिक अपभ्रंश प्राकृत के प्रभाव को कम करती हुई जनसामान्य के निकट आने लगी ऐसी स्थिति में यही उचित प्रतीत हुआ कि पूर्ववर्ती अपभ्रंश, परवर्ती अपभ्रंश, अवहट्ठ आदि अलग -अलग नाम देने के स्थान पर सम्पूर्ण अपभ्रंश भाषा को हिंदी कहना चाहिए और अपभ्रंश साहित्य को हिंदी साहित्य।वस्तुतः 'पुरानी हिंदी' पद 'अपभ्रंश' ( या दसवीं शताब्दी के बाद की अपभ्रंश) का परिचायक है।


प्रारम्भिक हिंदी

द्यपि हिंदी के आरंभिक रूप की कोई निर्धारित समय- सीमा नहीं है। फिर भी सामान्यतः हम इसका काल विक्रमी की पंद्रह शताब्दी मान सकते है।'प्रारम्भिक हिंदी' पद अब तक सुपरिभाषित नहीं है। इसके अंतर्गत 1450 ई. के पूर्व रचित अवधि, ब्रजभाषा ,खड़ी बोली, मैथिली और पिंगल सभी 17 बोलियों के लोक साहित्य की पुष्ट परंपरा विद्यमान है। इनमें से कई बोलियाँ/भाषाएँ अलग-अलग समय पर अलग-अलग राज्यों में राजकाज और प्रशासन की भाषा के रूप में भी व्यवहार में रही हैं। प्राचीन काल और मध्य काल में भारत की विविध भाषा-भाषी जनता के परस्पर संपर्क और औपचारिक अवसरों पर प्रयोग की भाषा जिस प्रकार संस्कृत थी, उसी प्रकार आधुनिक काल में हिंदी अपना स्थान बनाए हुए है।


 हिंदी शब्द का अर्थ एवं प्रयोग

 हिंदी शब्द का इतिहास (वियुत्पत्ति)

परिचय 

हिंदी शब्द का इतिहास बहुत पुराना है, फारसी में संस्कृत की ‘स’ ध्वनि ‘ह’ हो जाती है, ‘सिंध’ से ‘हिन्द’ और ‘सिन्धी’ से ‘हिंदी’ बना शब्दार्थ की दृष्टि से हिन्द (भारत) की किसी भाषा को ‘हिंदी’ कहा जा सकता है | हिन्द शब्द सम्पूर्ण भारत का पर्याय बनकर उभरा \इसी हिन्द से हिंदी शब्द बना आज हम जिस भाषा को हिंदी के रूप में जानते हैं वह आधुनिक आर्यभाषाओं में से एक है हिंदी शब्द का इतिहास (वियुत्पत्ति)हिंदी नाम वास्तव में ईरान के लोगों की देन है। ईरान के सम्राट (500 ई.पू.) दारा के अभिलेखों में हिंदु शब्द आया है। वहां 'हिंदु' शब्द 'सिंधु' का फारसी रूप है। दरअसल फारसी में 'स' का उच्चारण 'ह' होता है, आगे चलकर हिंदु का 'उ' लुप्त हो गया और बाकी रह गया 'हिंद'।

शुरुआत में ईरानी लोग सिंधु नदी के तटवर्ती भूभाग को हिंद कहते थे लेकिन धीरे-धीरे पूरे भारत के लिए वे हिंद का इस्तेमाल करने लगे। आगे चलकर 'हिंद' में 'ईक' प्रत्यय लगने से 'हिंदीक' शब्द बना और बाद में 'हिंदीक' में से 'क' के गायब होने से हिंदी बना। 

हिंदी शब्द का अर्थ

हिंदी का मतलब था, भारत का निवासी या वस्तु और भारत की भाषा। हिन्दु  > हिन्द >हिन्दीक >हिंदी 

भाषा के अर्थ में हिंदी का प्रयोग

शुरुआत में हिंदी शब्द भारत की सभी भाषाओं के लिए इस्तेमाल हुआ मध्यकालीन अरबी और फारसी साहित्य में 'जबाने-हिंदी' का इस्तेमाल भारत की सभी भाषाओं-संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश के लिए चलता रहा है।ईरानी बादशाह नौशेरवा के हकीम बजरोया ने 'पंचतंत्र' को 'कलिला व दिमना' नाम से अरबी में अनुवाद किया जिसकी भूमिका में लिखा गया कि यह अनुवाद 'जबाने हिंदी' से किया गया है। यहां जबाने हिंदी से मतलब संस्कृत था ।

मुसलमानों ने शुरू में 'हिंद' की भाषा को हिंदी कहा, लेकिन बाद में उन्हें महसूस हुआ कि पूरे देश में एक ही भाषा का व्यवहार नहीं होता तो उन्होंने मध्य देश की भाषा हिंदी कहना शुरू कर दिया। हिंदी के प्राचीन नाम हिंदवी, हिंदुई, दक्खिनी हिंदी, रेखता, रेख्ती आदि हैं। भाषा के संदर्भ में 'हिंदी' शब्द के प्रयोग का श्रेय भारतीय मुसलमान कवियों को ही है। जो दक्षिण में बसकर 'दक्खिनी' में साहित्य रचना कर रहे थे। आज हिंदी शब्द का प्रयोग तीन अर्थों : व्यापक अर्थ, भाषा वैज्ञानिक अर्थ और सीमित अर्थ में होता है।

व्यापक अर्थ में प्रयोग

प्राचीन व्यापक अर्थ में देश की सभी भाषा के लिए हिंदी का इस्तेमाल हुआ। अलबरूनी, अमीर खुसरो और अबुल फजल ने हिंदी का यही अर्थ समझा लेकिन मौजूदा समय में व्यापक अर्थ में हिंदी का प्रयोग पांच उपभाषाओं और उसकी 17 बोलियों के लिए किया जाता है इसे ही हिंदी क्षेत्र या हिंदी भाषा क्षेत्र भी कहा जाता है। इसकी पांच उपभाषाओं के नाम हैं -पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी, पहाड़ी, बिहारी और राजस्थानी हैं। ब्रज, अवधी, खड़ी बोली आदि बोलियों के विकास एवं साहित्य संबंधित विवेचन हिंदी साहित्य के अंतर्गत इसी व्यापक अर्थ के कारण किया जाता है ।

भाषा वैज्ञानिक अर्थ में प्रयोग

भाषा वैज्ञानिक अर्थ में पश्चिमी हिंदी और पूर्वी हिंदी शब्द की बोलियों के लिए हिंदी का शब्द प्रयोग किया जाता है। इस अर्थ में पश्चिमी हिंदी की खड़ी बोली, ब्रजभाषा, हरियाणवी, कन्नौजी, बुंदेली और पूर्वी हिंदी की अवधी बघेली, छत्तीसगढ़ी बोलियों का सामूहिक नाम हिंदी है। बिहारी, राजस्थानी और पहाड़ी उपभाषा वर्ग को इसमें शामिल नहीं किया जाता है।

सीमित अर्थ में

सीमित अर्थ में हिंदी शब्द का प्रयोग खड़ी बोली पर आधारित है। नागरी लिपि में लिखी जाने वाली यह संस्कारित और मानकीकृत भाषा है जो भारत की राष्ट्रभाषा है वर्तमान समय में साहित्य, शिक्षा , आकाशवाणी, पत्रकारिता और शासन के माध्यम के रूप में प्रयुक्त होती है। यह भारत की राजभाषा होने के साथ-साथी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली आदि राज्यों की राजभाषा भी है।


(घ) हिंदी का विकास-  (आदिकाल , मध्यकाल , आधुनिक काल)

परिचय 

मध्यकाल में पालि, प्राकृत और अपभ्रंश आगे चलकर आधुनिक भारतीय भाषाओं का उद्भव हुआ । यह आधुनिक भारतीय भाषाएँ 1000 ई. से प्रारंभ होकर अब तक निरंतर चल रही है। आधुनिक भारतीय भाषाएँ :-

1000ई. से अब तक इसको तीन कालखण्डों में बांटा गया है।

आदिकाल :- 【 1000ई. - 1500 ई.】

हर विद्वान के अपने मत के अनुसार किसी ने इसे पहली शताब्दी से 8वी, किसी ने 9वी किसी ने 12वी तो किसी ने 13वी तक आदिकाल माना है। इस काल में विभिन्न क्षेत्रों में जो बोलियां बोली जाती थी उनका विकास हुआ वही बोलिया साहित्य में प्रयोग की जाने लगी। इस काल में डिंगल, पिंगल, अपभ्रंश, अवधी, ब्रज, राजस्थानी, भोजपुरी, मैथिली, हिन्दवी ये सारी बोलियां जो क्षेत्र विशेष में बोली जाती थी इनका साहित्य में प्रयोग हुआ।

उदाहण :- अवहट्ठ में पूरा रासो साहित्य मिलता है। विद्यापति ने मैथिली में रचना की। इसी कालावधि में मैथिल कोकिल विद्यापति हुए जिनकी पदावली में मानवीय सौंदर्य और प्रेम की अनुपम व्यंजना मिलती है।इनके 2 प्रमुख ग्रन्थ हुए कीर्तिलता और कीर्ति पताका अमीर खुसरो का भी यही समय है। विद्यापति की मैथिली रचना साहित्यिक भाषा नहीं बन सकी जितनी ब्रज और अवधी बनी।

(ख) मध्यकाल

तेरहवी सदी तक धर्म के क्षेत्र में बड़ी अस्तव्यस्तता आ गई।जनता में सिद्धो और योगियों आदि द्वारा प्रचलित अंधविश्वास फैल रहा था। उस समय  मुगल शासन था, सूफ़ी बाहर से आये थे। सूफ़ियों को अपने धर्म का प्रचार- प्रसार करने के लिए मानवता की आवश्यकता थी तो उन्होंने अवधी को अपनाया। ऐसे समय में भक्ति आंदोलन का आरंभ आलवार संतो द्वारा हुआ। वहाँ शंकराचार्य के अद्वैतमत और मायावाद के विरोध में चार सम्प्रदाय खड़े हुए। इन चारों सम्प्रदाय ने उत्तर भारत मे विष्णु के अवतारों का प्रचारप्रसार किया। इनमें से एक के प्रवर्तक रामानुजाचार्य थे। भक्ति के क्षेत्र में रामानंद ने ऊँच नीच का भेदभाव मिटाने पर बल दिया । 

राम के सगुण और निर्गुण दो रूपों को माननेवाले दो भक्तों-कबीर और तुलसी को इन्होंने प्रभावित किया।1700 ई. के आस पास हिंदी कविता में एक नया मोड़ आया इसे विशेषतः दरबारी संस्कृति और संस्कृत सहित्य से बढ़ावा मिला, यह रीतिकाल था। रीतिकाल में कवि राजाओं और रईसों के आश्रय में रहते थे। वहाँ मनोरंजन और कलाविलास का वातावरण स्वाभाविक था। रीतिकाल मुख्यतः मांसल श्रृंगार का काव्य है। इसमें नर- नारी जीवन के स्मरणीय पक्षों का सुंदर उद्घाटन हुआ है। इस काल के प्रमुख कवियों में आचार्य केशवदास उनकी रचनाएँ कविप्रिया, रसिकप्रिया और रामचन्द्रिका और अन्य कवि घनानंद आदि आते है । मध्यकाल में अवधी और ब्रज भाषा साहित्य के रूप में प्रयोग की गई ।

तुलसी दास ने रामचरितमानस में अवधी भाषा का प्रयोग किया और अवधी को एक उच्च स्थान दिया। जायसी का पद्मावत जो सूफ़ी काव्य में रचा गया वह भी अवधी में रचा गया। इसी भाषा के समानांतर थी ब्रज भाषा जिसका अपना एक लालित्य था उसमें एक संगीत था व भाव को प्रकट करने की एक विशिष्टता थी जो कवियों को अधिक आकर्षित हुई। अवधी की अपेक्षा ब्रज को अधिक स्थान मिला, कृष्ण भक्त कवियों ने ब्रज को अपना लिया। यही ब्रज भाषा 18वी शताब्दी तक साहित्य की भाषा बनी रही।


(ग) आधुनिक काल :-【1800 ई. - अब तक】

अंग्रेजों के आने से पूर्व साहित्यों की भाषा ब्रज और अवधी चल रही थी ।शासन की भाषा फ़ारसी चल रही थी, उर्दू का प्रचलन था।परंतु मतभेद नहीं था, यह आधुनिक युग का आरम्भ काल था जब भारतीयों का यूरोपीय संस्कृति से सम्पर्क हुआ।भारत में अपनी जड़ें जमाने के काम में अंग्रेजी शासन ने भारतीय जीवन को विभिन्न स्तरों पर प्रभावित और आंदोलित किया। नई परिस्थितियों के धक्के से पुरानी व्यवस्था का ढांचा टूटने लगा और एक नए युग की चेतना का आरम्भ हुआ। नए युग के साहित्यसृजन की सरविच्च संभावनाएं खड़ी बोली गद्य में निहित थी, इसलिए इसे गद्य युग भी कहाँ गया। 19वी शताब्दी में गद्य का विकास खड़ी बोली में हुआ और इसके पथप्रदर्शक भारतेंदु हरिश्चंद्र थे।अग्रेजो के आने के बाद परिवर्तन हुआ ब्रज व अवधी का प्रयोग कम हुआ इसके स्थान पर खड़ी बोली में साहित्य लिखा जाने लगा।वर्तमान हिंदी खड़ी बोली का ही मानक रूप है।







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