B.A. FIRST YEAR हिंदी सिनेमा और उसका अध्ययन यूनिट 1 Chapter- 3 हिंदी सिनेमा और उसकी विषयवार कोटिया NOTES
0Eklavya Snatakमार्च 21, 2021
स्वतंत्रता पूर्व हिंदी सिनेमा
1913 से 31 के मध्य बनी लगभग 13 समूह फिल्मों को किसी भाषा विशेष की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता भाषीय फिल्मों के इतिहास की शुरुआत 1931 में बनी सवाक फिल्म आलम आरा से हुई जो पहली हिंदुस्तानी भाषा की फिल्म थी इस फिल्म से ही गीत संगीत और नृत्य भारतीय सिनेमा के अनिवार्य अंग बन गए 1931 में कुल 28 फिल्मे में बनी थी जिनमें से 13 फिल्में हिंदी की थी इस दौर में बनने वाली फिल्मों के विषय धार्मिक पौराणिक ऐतिहासिक और सामाजिक थे
स्वतंत्रता पश्चात हिंदी सिनेमा
इस दौर की फिल्मों में मध्यम वर्ग के साथ-साथ समाज के दलित वर्गों के जीवन के संघर्षों और बदलावों को पेश किया गया था यह वह दौर था जब हिंदी में कलात्मक और लोकप्रिय फिल्मों का निर्माण अपने उत्कर्ष पर था इस दौर में हिंदी में दहेज दो आंखें बारह हाथ, नवरंग, जोगन, आवारा, बूट पॉलिश जागते रहो, अब दिल्ली दूर नहीं, मदर इंडिया, कठपुतली, बैजू बावरा, देवदास मुग़ल-ए-आज़म जैसी सामाजिक दृष्टिकोण से जागरूक और प्रगतिशील फिल्मों का निर्माण हुआ था इन फिल्मों में सामाजिक समस्याओं के संदर्भ में आदर्श और यथार्थ भावना और कर्तव्य और परंपरा और प्रगति का संघर्ष स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था
सिनेमा का वर्तमान दौर
1990 के बाद बढ़ती सांप्रदायिकता के दबाव का असर सिनेमा पर भी दिखाई देने लगा आतंकवाद के नाम पर अंध राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने वाली फिल्मों का रुझान बढ़ने लगा था रोजा, मुंबई, सरफरोशी, वेडनेसडे इस तरह की बहुत सी फिल्मों में इसका प्रभाव देखा जा सकता है लेकिन इसी दौर में ऐसी बहुत सी फिल्म और कार सामने आए जिन्होंने इस दौर की जन विरोधी प्रवृत्तियों के प्रति आलोचनात्मक रुक वाली फिल्मों का निर्माण किया जैसे विशाल भारद्वाज की (मकबूल ओमकारा हैदर )आमिर खान की (तारे जमीन पर सीक्रेट सुपरस्टार )राकेश मेहरा (रंग दे बसंती ) अनुराग कश्यप (ब्लैक फ्राईडे गैंग्स ऑफ वासेपुर) आदि उल्लेखनीय हैं
हिंदी फिल्मों की विषय वार कोटिया
धार्मिक पौराणिक और ऐतिहासिक
फिल्में दादा साहेब फाल्के ने जब राजा हरिश्चंद्र फिल्म बनाई तब उनकी सोच यह थी कि भारत की जनता को धार्मिक और पौराणिक कथाओं के माध्यम से ही सिनेमा हॉल तक लाया जा सकता है मूक सिनेमा के पूरे दौर के साथ-साथ यह प्रवृत्ति सवाक फिल्मों के आरंभिक दौर में भी जारी रही सती सावित्री सती अनुसुइया देवयानी द्रोपदी सती सुलोचना भक्त प्रहलाद भक्त ध्रुव इत्यादि फिल्में बनी जिसने दर्शकों की धार्मिक भावना का पूरा ख्याल रखा रामायण महाभारत और अन्य पौराणिक चरित्रों और कथाओं पर बनने वाली इन फिल्मों भी अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण एवं लोकप्रिय फिल्म थी 1975 में बनी जय संतोषी मां एक लोकप्रिय फ़िल्म थी धार्मिक और पौराणिक कथाओं पर बनने वाले टेलीविजन धारावाहिक भी काफी पसंद किए जाते थे
ऐतिहासिक फिल्में
ऐतिहासिक फिल्में आमतौर पर दो प्रकार की थी एक ऐतिहासिक चरित्रों और घटनाओं पर आधारित और दूसरी ऐतिहासिक कल्पना पर आधारित ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित फिल्में भी जरूरी नहीं कि ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित हो बैजू बावरा मुग़ल-ए-आज़म आषाढ़ का एक दिन शतरंज के खिलाड़ी पद्मावत आदि लोकप्रिय फिल्मों के बहुत से पात्र ऐतिहासिक है लेकिन उनमें दिखाई जाने वाली घटनाएं इतिहास द्वारा प्रमाणिकता नहीं देती
हिंदी सिनेमा में प्रेम संबंध की अभिव्यक्ति
साहित्य की तरह सिनेमा में भी प्रेम कथाओं के भी व्यक्ति उतनी ही पुरानी है जितना कि सिनेमा आमतौर पर हिंदी फिल्मों में प्रेम को त्रिकोण कथाओं के रूप में पेश किया जाता है नायक नायिका और खलनायकप्रेम संबंधों पर सामाजिक संरचनाओं और परंपराओं का एवं धर्म जाति और आर्थिक व सामाजिक हैसियत का असर होता है यह सब सिनेमा ने दर्शकों को दिखाया जिसने मुग़ल-ए-आज़म बॉर्बी आदि
समाज सुधार संबंधी फिल्में
जब संभाग सिनेमा का निर्माण शुरू हुआ तब देश अंग्रेजों के अधीन था और सेंसरशिप के कारण फिल्मकारों के लिए ऐसे विषयों पर फिल्म बनाना संभव नहीं था जिसमें तत्कालीन राजनीति व्यवस्था की आलोचना हो यही वजह है कि उस दौर में ऐसी फिल्में ज्यादा बनी जिसमें सामाजिक मसले उठाए गए जैसे जाति व्यवस्था दलितों का शोषण इत्यादि पर फिल्में बनी जिसमें दुनिया ना माने ,आदमी, पड़ोसी आदि प्रमुख थे
ग्रामीण यथार्थ संबंधी फिल्में
किसानों और गांव वालों के सामने औद्योगिकरण के साथ अशिक्षित और असंगठित होने के कारण उनका जमीदारों और महाजनों के द्वारा शोषण किया जा रहा था इस दृष्टि से मदर इंडिया अत्यंत महत्वपूर्ण फिल्म बनी यह फिल्म आजादी के बाद आशावाद से प्रेरित है इस तरह राज कपूर की फिल्म जागते रहो मैं भी आशावाद को देखा जा सकता है
जातिवाद और दलित यथार्थ संबंधी फिल्मे
1970 के आसपास भारतीय सिनेमा में यथार्थवाद की एक नई लहर आई जिसने दलित समाज की समस्याओं को अपना विषय बनाया श्याम बेनेगल ने इस ओर ध्यान दिया अंकुर मंथन और समर इनमें दलित समस्याओं को अपनी फिल्म का विषय बनाया इसी तरह मृणाल सेन की फिल्म मिल गया गोविंद निहलनी की फिल्म आक्रोश सत्यजीत रॉय की फिल्म सदगति आदि फिल्मों में दलित यथार्थ का चित्रण देख सकते हैं
देशभक्ति और राष्ट्रवाद संबंधी फिल्में
हिंदी सिनेमा आरंभ से ही देश भक्ति से संबंधित फिल्में बनाता रहा है देशभक्ति पर आधारित बहुत सी फिल्में बनी और आज भी बन रही है आजादी की लड़ाई के दौरान हो गई प्रमुख घटनाओं और अंग्रेजों के हाथों शहीद हुए देश भक्तों को लेकर भी कई फिल्में बनी जैसे क्रांति जुनून लगान शहीद मंगल पांडे लक्ष्मीबाई भगत सिंह चंद्रशेखर आजाद सुभाष चंद्र बोस ,महात्मा गांधी आदि को केंद्र में रखकर भी कई फिल्में बनाई गई
स्त्री केंद्रित फिल्में
शुरुआत में नारी जीवन से संबंधित समस्याओं पर इतना अधिक ध्यान नहीं दिया गया परंतु 1970 के दशक के बाद पति-पत्नी के संबंधों में तनाव उनका अलग होना और अंत में उनका पुनर्मिलन इत्यादि को दर्शाया गया जिसमें कोरा कागज अनुभव आविष्कार दूरियां गृह प्रवेश जुदाई ऐसी फिल्में थी 90 के दशक के बाद स्त्री केंद्रित फिल्मों में फिर बदलाव आया जहां स्त्रियां अपने जीवन के बारे में कुछ फैसले ले सकती है एवं मध्ययुगीन उन मूल्यों को चुनौती देती दिखाई देती है इसमें दामिनी बैंडिट क्वीन सरदारी बेगम मृत्युदंड हरी-भरी जुबेदा क्वीन राजी छपाक आदि प्रमुख है
जीवनी परक फिल्में
पिछले कुछ वर्षों में हिंदी सिनेमा में जीवनी पर फ्री में बनाने का चलन काफी बढ़ गया है परंतु ऐसा नहीं कि इस तरह की फिल्में पहले नहीं बनती थी पहले भी भगत सिंह सुभाष चंद्र बोस मिर्जा गालिब लक्ष्मीबाई महात्मा गांधी फूलन देवी आदि के जीवन पर फिल्में बनी परंतु आजकल प्रत्येक क्षेत्र से जीवनी परख फिल्में बनती है जैसे भाग मिल्खा भाग महेंद्र सिंह धोनी मैरी कॉम, पान सिंह तोमर,,दंगल , नीरजा आदि